प्रेम आत्मा की सच्ची अभिव्यक्ति
प्रेम आत्मा की सच्ची अभिव्यक्ति है। नारद भक्ति सूत्र में स: हि अनिर्वचनीयो प्रेम रूप: कहकर परमेश्वर को पे्रम रूप घोषित किया है। यही परमतत्व है। इसी का बोध होने में ज्ञान की सार्थकता है।
प्रेम आत्मा की सच्ची अभिव्यक्ति है। नारद भक्ति सूत्र में स: हि अनिर्वचनीयो प्रेम रूप: कहकर परमेश्वर को पे्रम रूप घोषित किया है। यही परमतत्व है। इसी का बोध होने में ज्ञान की सार्थकता है। प्रेम आत्मा की विशेषता है। कबीर कहते हैं, ढाई आखर पे्रम का पढ़े सो पंडित होय। अर्थात् ढाई अक्षरों में ही निहित पे्रम के इस तत्व को प्राप्त कर लेने में ही पांडित्य की सार्थकता है। इसमें ऐसा कौन सा तत्व निहित है, जिसे जानने से सब कुछ जान लिया जाता है? इस विषय पर चिंतन करने से ज्ञात होता है कि पत्नी-बच्चों से किया जाने वाला पे्रम, पे्रम नहीं मोह होता है। इस पे्रम और मोह में विरोधाभास जैसी स्थिति है। पे्रम चेतन से होता है और मोह जड़ से। पत्नी आदि से किया जाने वाला तथाकथित पे्रम उसके जड़ शरीर से होता है, न कि चेतन स्वरूप आत्मा से, अत: यह मोह ही है। इसकी जड़ की ओर उन्मुखता मात्र हाड़-मांस वाले शरीरधारियोंतक ही सीमित नहीं रहती, वरन लकड़ी, पत्थर व चूने के बने भवन से लेकर विभिन्न प्रकार के सामानों तक बढ़ जाती है, पर इसके विस्तार का क्षेत्र जड़ ही है।
महर्षि याज्ञवल्क्य स्पष्ट करते हैं कि कोई भी आत्मा के कारण प्रिय हो, यही प्रेम की सच्ची परिभाषा है। मोह जहां विभेद उत्पन्न करता है, पे्रम वहीं अभेद की स्थिति पैदा करता है, पे्रम व्यापक तत्व है, जबकि मोह सीमित-परिमित। पे्रम का प्रारंभ संभव है किसी एक व्यक्ति से हो, पर उस तक सीमित नहीं रह सकता। यदि यह सीमित रह जाता है, कुछ पाने की कामना रखता है तो समझना चाहिए कि यह मोह है। प्रेम वस्तुओं से जुड़कर सदुपयोग की, मनुष्यों से जुड़कर उनके कल्याण की और विश्व से जुड़कर परमार्थ की बात सोचता है। मोह में मनुष्य, पदार्थ, विश्व से किसी न किसी प्रकार के स्वार्थ सिद्धि की अभिलाषा रहती है। प्रेम की ज्योति सामान्य दीपक की ज्योति नहीं, जिसमें अनुताप हो, अपितु यह दिव्य चिंतामणि की शीतल स्निग्ध ज्योति है, जिससे शरीर, मन, बुद्धि, अंत:करण प्रकाशित होते व समस्त संताप शांत होते हैं।
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