परमपिता परमेश्वर
जिस किसी ने भी परमपिता परमेश्वर का सान्निध्य पा लिया वह भला जीवन में किसी दु:ख-संताप से ग्रसित क्यों होगा? जिस किसी ने परमदेव के दिव्य तेज को धारण कर लिया वह सदा ही सत्य-अहिंसा, प्रेम के पावन पुंजों में बसता है।
जिस किसी ने भी परमपिता परमेश्वर का सान्निध्य पा लिया वह भला जीवन में किसी दु:ख-संताप से ग्रसित क्यों होगा? जिस किसी ने परमदेव के दिव्य तेज को धारण कर लिया वह सदा ही सत्य-अहिंसा, प्रेम के पावन पुंजों में बसता है। प्रसन्नता बांटकर वह खुद भी प्रसन्न रहता है। वस्तुत: प्रसन्नता परमात्मा का दिया हुआ एक प्रसाद है, जिसे उस परमपिता ने हर एक जीव को दे रखा है। परमेश्वर के दिव्य तेज को धारण करने वाला मनुष्य जब भी कुछ करता है, अनूठा ही करता है। उसके अंदर दूसरों के दोष-दुर्गुण की बात तो दूर, सोचना भी असंभव होता है। वह सदैव अच्छा ही देखता है, अच्छा ही सुनता है और अच्छा ही बोलता है। वह प्रयत्न-पुरुषार्थ से कभी आलस्य नहीं करता। वह इस जीवन रूपी कर्मक्षेत्र में सदैव तत्पर रहता है। वह प्रेम की परिभाषा को भली-भांति समझता है। वह जानता है कि उस एक परमात्मा का नूर ही घट-घट में व्याप्त है। कई बार हम अपने बुद्धि और विवेक से उस अनाम, स्वयंभू सत्ता को न तो पकड़ पाते हैं, और न ही समझ पाते हैं, परंतु यदि अहसास हो तो बात बनते देर नहीं लगती।
जिस किसी ने उसे जाना, उसको अनुभूत किया, उसने उस प्रभु को अपने पास ही पाया। विडंबना तो यह है कि जो परमपिता हमेशा, हर पल हमारे पास है उसे हम अपने करीब रहने का अहसास नहीं कर पाते। कबीरदास कहते हैं कि जब वह परमपिता हमारे पास सदैव हैं तो हम उसे ढूंढने के लिए खजूर के पेड़ पर क्यों चढ़ रहे हैं। वह ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, संपूर्ण विश्व ब्रंांड का पालक है, सर्वत्र मौजूद है, हर पल हमारे हृदय मंदिर में विराजमान है। तो हम उसकी संतान होकर उसे न पहचानें, यह संभव ही नहीं हो सकता? वह जगन्नाथ है, विश्वनाथ है, रघुनाथ है। जरा सोचिए, कि उससे दूर रहकर क्या हम अनाथ नहीं हो जाएंगे? क्या हमारी स्थिति और भयावह नहीं होगी? हमें आज ही अंतर्मुखी होकर अपने हृदय मंदिर में झांकना होगा और चित्त की वृत्तियों को सब बुराईयों से हटाकर उस परमपिता परमेश्वर की शरणागति प्राप्त करनी होगी। तभी जीवन सफल हो सकेगा। आचार्य अनिल वत्स
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