Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    दक्षिण की गंगा है गोदावरी

    By Edited By:
    Updated: Wed, 29 Aug 2012 12:09 PM (IST)

    बचपन में सुबह उठकर हम जो भूपाली गाते थे, उनमें से ये चार पंक्तियां अब भी स्मृति-पट पर अंकित है :

    Hero Image

    नई दिल्ली। बचपन में सुबह उठकर हम जो भूपाली गाते थे, उनमें से ये चार पंक्तियां अब भी स्मृति-पट पर अंकित है :

    उठोनियां प्रात:काली। वदनी वदा चंद्रमौली

    श्रीबिंदुमाधवाजवली। स्नान करा गंगेचें। स्नान करा गोदचें।।

    कृष्णा वेण्या तुंगभद्रा। शरयू कालिंदीनर्मदा।

    भीमा भीमा गोदा। करी स्नान गंगेचें।।

    गंगा और गोदा एक ही हैं। दोनों के माहात्म्य में जरा भी फर्क नहीं है। फर्क करना ही हो तो इतना ही कि कलिकाल के पाप के कारण गंगा का माहात्म्य किसी समय कम हो सकता है; किंतु गोदावरी का माहात्म्य कभी कम हो नहीं सकता। श्रीरामचंद्र के अत्यंत सुख के दिन इस गोदावरी के तीर पर ही बीते थे और जीवन का दारुण आघात भी उन्हें यहीं सहना पड़ा था। गोदावरी का दक्षिण की गंगा है।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    कृष्णा और गोदावरी इन दो नदियों ने दो विक्रमशाली महाप्रजाओं का पोषण किया है। यदि हम कहें कि महाराष्ट्र का स्वराज्य और आंध्र का साम्राज्य इन्हीं दो नदियों का ऋणी है, तो इसमें जरा-सी भी अत्युक्ति नहीं होगी। साम्राज्य बने और टूटे, महाप्रजाएं चढ़ीं और गिरी, किंतु इस ऐतिहासिक भूमि में ये दो नदियां अखंड बहती ही जा रही हैं। ये नदियां भूतकाल के गौरवशाली इतिहास की जितनी साक्षी है, उतनी ही भविष्यकाल की महान आशाओं की प्रेरक भी हैं। इनमें भी गोदावरी का माहात्म्य कुछ अनोखा ही है। वह जितनी सलिल-समृद्ध है उतनी ही इतिहास-समृद्ध भी हैं।

    गोपाल-कृष्ण के जीवन में जिस तरह सर्वत्र विविधता-ही-विविधता भरी हुई है, एक-सा उत्कर्ष-ही-उत्कर्ष दिखाई देता है, उसी तरह गोदावरी के अति दीर्घ प्रवाह के किनारे सृष्टि-सौंदर्य की विविधता और विपुलता भरी पड़ी है। ब्रह्मदेव की एक कल्पना में से जिस तरह सृष्टि का विस्तार होता है, वाल्मीकि की एक कारुण्यमयी वेदना में से जिस तरह रामायणी सृष्टि का विस्तार हुआ है, उसी तरह ˜यंबक के पहाड़ के कगार से टपकती हुई गोदावरी में से ही आगे जाकर राजमहेंद्री की विशाल वारि-राशि का विस्तार हुआ है।

    सिंधु और ब्रह्मपुत्र को जिस तरह हिमालय का आलिंगन करने की सूझी, नर्मदा और ताप्ति को जिस तरह विंध्या-सतपुड़ा को पिघलाने की सूझी, उसी तरह गोदावरी और कृष्णा को दक्षिण के उन्नत प्रदेश को तरह करके उसे धन-धान्य से समृद्ध करने की सूझी है। पक्षपात से सह्याद्रि पर्वत पश्चिम की ओर ढल पड़ा, यह मानो उन्हें पसंद नहीं आया। ऐसा ही जान पड़ता है कि उसे पूर्व की ओर खींचने का अखंड प्रयत्‍‌न ये दोनों नदियां कर रही हैं।

    इन दोनों नदियां का उद्गम-स्थान पश्चिमी समुद्र से 50-75 मील से अधिक दूर नहीं है, फिर भी दोनों 800-900 मील की यात्रा करके अपना जलभार या कर-भार पूर्व-समुद्र को ही अर्पण करती हैं और इस कर-भार का विस्तार भी कोई मामूली नहीं है। उसके अंदर सारा महाराष्ट्र देश आ जाता है, हैदराबाद और मैसूर के राज्यों का अंतर्भाव होता है, और आंध्र देश तो सारा-का-सारा उसी में समा जाता है। मिश्र संस्कृति की माता नील नदी हमारी गोदावरी के सामने कोई चीज ही नहीं है।

    त्रयंबक के पास पहाड़ की एक बड़ी दीवार में से गोदा का उद्गम हुआ है। गिरनार की ऊंची दीवार पर से भी त्रयंबक गांव से जो चढ़ाई शुरू होती है, वह गोदामैया की मूर्ति के चरणों तक चलती ही रहती है। इससे भी ऊपर जाने के लिए बाई और पहाड़ में विकट सीढि़यां बनाई गई हैं। इस रास्ते मनुष्य ब्रह्मगिरि तक पहुंच जाता है किंतु वह दुनिया ही अलग है।

    गोदावरी के उद्गम-स्थान से जो दृश्य दीख पड़ता है वही हमारे वातावरण के लिए विशेष अनुकूल है। महाराष्ट्र के तपस्वियों और राजाओं ने समान भाव से इस स्थान पर अपनी भक्ति उड़ेल दी है। कृष्णा के किनारे बाई, सातारा और गोदा के किनारे नासिक तथा पैठण महाराष्ट्र की सच्ची सांस्कृतिक राजधानियां हैं, किंतु गोदावरी का इतिहास तो सहन-वीर रामचंद्र और दु:खमूर्ति सीतामाता के वृतांत से ही शुरू होता है।

    राजपाट छोड़ते समय राम को दु:ख नहीं हुआ; किंतु गोदावरी के किनारे सीता और लक्ष्मण के साथ मनायु हुए आनंद का अंत होते ही राम का हृदय एमदम शतधा विदीर्ण हो गया। बाघ-भेडि़यों के अभाव में निर्भय बने हुए हिरण आर्य रामभद्र की दु:खोन्मत्त आंखें देखकर दूर भाग गए होंगे। सीता की खोज में निकले देवर लक्ष्मण की दहाड़ें सुनकर बड़े-बड़े हाथी भी भय-कंपित हो गए होंगे और पशु-पक्षियों के दु:खाश्रुओं से गोदावरी के विमल जल भी कषाय हो गए होंगे।

    हिमालय में जिस तरह पार्वती थी, उसी तरह जनस्थान में सीता समस्त विश्व की अधिष्ठात्री थी। उसके जाने पर जो कल्पांतिक दु:ख हुआ, वह यदि सार्वभौम हुआ हो, तो उसमें आश्चर्य ही क्या है?

    राम-सीता का संयोग तो फिर हुआ, किंतु उनका जनस्थान का वियोग तो हमेशा के लिए बना रहा। आज भी आप नासिक-पंचवटी में घूमकर देखें, चाहे चौमासे में जायं या गरमी में, आपको यही मालूम होगा, मानो सारी पंचवटी जटायु की तरह उदास होकर सीता-राम पुकार रही है। महाराष्ट्र के साधु-संतों ने यदि अपनी मंगल-वाणी यहां न फैलाई होती, तो जनस्थान मानो भयानक उजाड़ प्रदेश हो जाता। गरमी की धूप को टालने के लिए जिस तरह तृण-सृष्टि चारों ओर फैल जाती है, उसी तरह जीवन की विषमता को भुला देने के लिए साधु-संत सर्वत्र विचरते हैं, यह कितने बड़े सौभाग्य की बात है! जब-जब नासिक-˜यंबक की ओर जाना होता है, तब-तब वनवास के लिए इस स्थान को पसंद करने वाले राम-लक्ष्मण की आंखों से सारा प्रदेश निहारने का मन होता है, किंतु अर बार कंपित तृणों में से सीतामाता की कातर तनु-यष्टि ही आंखों के सामने आती है।

    रामभक्त श्रीसमर्थ रामदास जब यहां रहते थे, तब उनके हृदय में कौन-सी ऊर्मियां उठती होंगी! श्रीसमर्थ ने गोदावरी के तीर पर गोबर के हनुमान की स्थापना किस हेतु से की होगी? क्या यह बताने के लिए कि पंचवटी में यदि हनुमान होते तो सीता का हरण कभी न होने देते? सीतामाता ने कठोर वचनों से लक्ष्मण पर प्रहार करके एक महासंकट मोल ले लिया। हनुमान को तो वे ऐसी कोई बात कह नहीं पाती! किंतु जनस्थान और किष्किंधा के बीच बहुत बड़ा अंतर है और गोदावरी कोई तुंगभद्रा नहीं है।

    रामकथा का करुण रस द्वापर युग से आज तक बहता ही आया है। उसे कौन घटा सकता है? इसलिए हम अंत्यज जाति माने गए पांडे के मुंह से वेदों का पाठ करनेवाले श्री ज्ञानेश्वर महाराज से मिलने पैठन चले। गोदावरी जिस तरह दक्षिण की गंगा है, उसी तरह उसके किनारे पर बसी हुई प्रतिष्ठान नगरी दक्षिण की काशी मानी जाती थी। यहां के दशग्रंथी ब्राह्मण जो व्यवस्था देते थे, उसे चारों वर्णो को मान्य करना पड़ता था।

    बड़े-बड़े सम्राटों के ताम्रपत्रों से भी यहां के ब्राह्माणों के व्यवस्था-पत्र अधिक महत्त्‍‌व के माने जाते थे। ऐसे स्थान पर शास्त्र-धर्म के सामने हृदय-धर्म की विजय दिखाने का काम सिर्फ ज्ञानराज ही कर सकते थे। पैठण में ज्ञानेश्वर को यज्ञोपवित्र धारण करने का अधिकार नहीं मिला। सन्यासी शंकराचार्य के ऊपर किये गए अत्याचारों की स्मृति को पर कई रिवाज जिस तरह वहां के राजा ने नम्बूदरी ब्राह्मणों पर कई रिवाज लाद दिए थे।

    हाथ की उंगलियों का जिस तरह पंखा बनता है, उसी तरह बड़ी-बड़ी नदियों में आकर मिलनेवाली और आत्म-विलोपन का कठिन योग साधनेवाली छोटी नदियों का भी पंखा बनता है। सह्याद्रि और अंजिठा के पहाड़ों से जो कोना बनता है, उसमें जितना पानी गिरता है, उस सबको खींच-खींच कर अपने साथ ले जाने का काम ये नदियां करती हैं।

    धारणा और कादवा, प्रवरा और मूला को यदि छोड़ दें तो भी मध्यभारत (मध्य प्रदेश) से दूर-दूर का पानी लानेवाली वर्धा और वेन गंगा को भला कैसे भूल सकता है? दो मिलकर एक बनी हुई नदी का जिसने प्राणहिता नाम रखा, उसके मन में कितनी कृतज्ञता, कितना काव्य, कितना आनंद भरा होगा! और ठेठ ईशान कोण से पूर्व घाट का नीर ले आनेवाली अष्टवक्रा इंद्रावती और उसकी सखी श्रमणी तपस्विनी शबरी को प्रणाम किए बिना कैसे चल सकता है?

    (गांधीवादी चिंतक कालेलकर ने यह आलेख अक्टूबर, 1929 में लिखा था। सस्ता साहित्य प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक सप्त सरिता से साभार)

    मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर