प्रयाग में वैतरणी का अवतरण
बचपन से ही सुनता-पढ़ता आया हू्ं कि प्रयाग तट पर पावन गंगा और यमुना से जिस देव सरिता सरस्वती का संगम होता है, वह पृथ्वी की अकेली अदृश्य नदी है। सोमवार की अलसुबह मेरी यह धारणा टूट चुकी थी। सरस्वती से अलग प्रयागराज में स्वर्ग की नदी वैतरणी का अदृश्य अवतरण हो चुका था।
बचपन से ही सुनता-पढ़ता आया हू् कि प्रयाग तट पर पावन गंगा और यमुना से जिस देव सरिता सरस्वती का संगम होता है, वह पृथ्वी की अकेली अदृश्य नदी है। सोमवार की अलसुबह मेरी यह धारणा टूट चुकी थी। सरस्वती से अलग प्रयागराज में स्वर्ग की नदी वैतरणी का अदृश्य अवतरण हो चुका था। मन को एक झटका लगा कि भला प्रयाग में वैतरणी कैसे? फिर आवास से मेला क्षेत्र तक पहुंचने के दौरान आंखों देखी और काया झेली मुसीबतों ने मन को झिंझोड़ा। पाया कि स्वर्ग की वैतरणी तो अमावस की काली रात में लापरवाह प्रशासन की पीठ पर सवार होकर इस पुण्यभूमि में उतर चुकी है। और तो और, इतवार की रात को रेलवे स्टेशन पर भयानक गर्जना और तबाही लेकर उतरी यह वैतरणी सवेरे होने तक पूरे तीर्थराज को अपनी प्रवाह गोदी में समेट चुकी थी।
वैतरणी, मतलब मुसीबतों, वर्जनाओं और बाधाओं के सांद्र प्रवाह वाली सड़ांध उगलती नदी। वाकई, आज प्रयाग को पार करना वैतरणी से बड़ी मुसीबत है। श्रद्धालुओं से अटे पूरे तीर्थराज की हालत आज शब्दों में बयां करने वाली नहीं है। मान्यता है कि तीनों लोकों में वैतरणी सर्वाधिक प्रदूषित नदी है। व?र्ज्य व व्यर्थ के रक्त, मांस-मज्जा, पीव जैसी तमाम सड़ांधों के कीचड़ से सनी इस नदी को पार करने की पात्रता केवल असली साधक को ही है। मतलब कि ज्यादातर जीव इसमें फंसकर उसी में समा जाते हैं। आज सुबह मेले में सेक्टर चार के बांध वाले इलाके में खड़ा था कि जेहन में प्रयाग की वैतरणी का चित्र उभरने लगा। पूरे दिन शहर के हाल का एक चित्र खींचना हो तो आपकी कूची कसमसाती अपार जनराशि और अपनों को खो चुके लोगों के व्याकुल कलरव की स्याही पर टिक जाएगी। फिर, बेगाने इंतजामिया का खोखलापन आपको फ्लैप मुहैया कराएगा। दरअसल, संगम के पुण्य स्नान के बाद अपने घरों को लौट रहे श्रद्धालुओं का भरोसा डिगने लगा है। मेला क्षेत्र के अलावा बाकी पूरे शहर में सोमवार को श्रद्धालु हैरान-परेशान होकर रुआंसे भटकते रहे, लेकिन उन्हें सही राह दिखाने वाला कोई नहीं था। चेकपोस्टों पर तैनात वर्दीधारी लोगों को राह दिखाने के बदले भटकाने में व्यस्त देखे गए। रेलवे और बस स्टेशनों पर लाखों का हुजूम जमा है, लेकिन उन्हें नहीं पता कि वे अपने घर कब और कैसे पहुंचेंगे। उनके बिछड़ों को उनसे कौन मिलाएगा। किसी के पैसे खत्म हो रहे हैं तो किसी का धैर्य, सड़क नापते हुए कई श्रद्धालु इतने थक गए हैं कि अब एक पग बढ़ाना मुश्किल हो रहा है, पास में मौजूद भारी गठरी उनका हौंसला तोड़ रही है, भूख और भीड़ से परेशान बिलखते बच्चे, बूढ़े और बीमारों का विलाप खुशमिजाज इलाहाबाद को रुआंसा कर रहा है, हादसे में मारे गए श्रद्धालुओं के परिजन जो मेले में ही कैद होकर रह गए हैं, उनका रुदन दिल कंपा रहा है, मेले में लापता लोगों के परिजन प्यासे हिरण के भांति मारे-मारे फिर रहे हैं।
अपना होशोहवास खो चुके ऐसे लोग लाउडस्पीकरों पर गूंज रहे संदेशों को भरोसे के साथ सुनते हैं और जब उनके बिछड़ों का नाम नहीं लिया जाता तो उनका चीत्कार ध्वनिवर्धक यंत्र की आवाज को दबा देता है। लाखों लोगों को यह नहीं पता कि वे इंतजामिया की खुशफहमी रूपी वैतरणी में लापरवाहियों के कीचड़ से कैसे बाहर निकलें। उनकी व्याकुलता तब नाउम्मीदी में बदलती दिखती है, जब संदेश गूंजता है कि रेलवे स्टेशन की ओर जाना मना है। यह बात अलग है कि लाखों श्रद्धालुओं से ठसाठस भरे मेले में आने की कोई मनाही नहीं है। लोग और आ रहे हैं, आते जा रहे हैं। इन विकट हालात के बावजूद श्रद्धा हमेशा की तरह अडिग है। भोपाल से आए रामदीन बिसारिया की मां मेले में कहीं गुम हो गई है। वह कहते हैं- तीर्थराज हमें हौसला भी देता है, मेरी मां जरूर मिल जाएगी। हालांकि यहां के प्रशासनिक इंतजाम को देखकर रामदीन का हौंसला टूटता है और अचानक से उनकी आंखें डबडबा जाती है। बहरहाल, जीवन के आशापूरित आसमान में ऐसे तमाम दुख-दर्द के क्षुद्र ग्रह समय के साथ विलुप्त हो जाएंगे, लेकिन इस महाकुंभ में उभरी व्यवस्था की अमावस की छाया शायद हमारे जेहन का लंबे समय तक पीछा न छोड़े। काशीनाथ सिंह की कविता की लाइनें याद आती हैं- नवा चान उगे, नवा चान उगे.। कुंभ में पधारे श्रद्धालुओं को भी इस अमावस के छंटने का इंतजार है। लिहाजा वे प्रतिपदा के आसमान में ही नया चांद तलाश रहे हैं। नया चांद उगेगा, लेकिन इसके लिए व्यवस्था के ग्रह-योग में लापरवाही, संवेदनहीनता और अक्षमता की खतरनाक युति का टूटना जरूरी है।
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