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    तंत्र साधना: कपाल में चाय, कपाल में खाना

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    Updated: Sat, 26 Jan 2013 02:58 PM (IST)

    त्रीम्। त्रीम्। त्रीम्। मेज पर रखी आधी खोपड़ी (कपाल) से भाप निकल रहा है और नीचे से ऊपर तक काली वेशभूषा में महाराज उसी कपाल से चुस्की ले रहे हैं। ऐसा लगता है कि किसी तीसरी दुनिया में पहुंच गए हैं। बहुत कुछ श्मशान और तेलिया मशान की तरह।

    कुंभनगर। त्रीम्। त्रीम्। त्रीम्। मेज पर रखी आधी खोपड़ी (कपाल) से भाप निकल रहा है और नीचे से ऊपर तक काली वेशभूषा में महाराज उसी कपाल से चुस्की ले रहे हैं। ऐसा लगता है कि किसी तीसरी दुनिया में पहुंच गए हैं। बहुत कुछ श्मशान और तेलिया मशान की तरह। आंखें आश्चर्य से फटी रह जाती हैं। ध्यानमग्न लंदन की डैबोरा राबर्ट्स भी इस रहस्य को समझने आई हैं। लाल तिलक लगाए गोरी-चिट्टी डैबोरा पर काला लबादा खूब फब रहा है। आसपास काला चोंगा पहने कुछ चेहरे नजर आ रहे हैं। वहीं विराजमान हैं कई भुजाओं वाली मां कामाख्या देवी। अब तनिक संदेह नहीं कि यह तंत्र साधना का संसार है, जिसके नाम से तांत्रिक, कपाल क्त्रिया और अन्य बहुत कुछ आंखों के सामने घूमने लगता है।

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    मेला क्षेत्र के सेक्टर नौ में तंत्र मर्मज्ञ कापालिक महाकाल भैरवानंद सरस्वती के मां कामाख्या आश्रम में यह सब कुछ देखने को मिलता है। मूल रूप से पंजाब निवासी भैरवानंद का दिल्ली के रोहिणी में आश्रम है। पिछले करीब 50 साल से वह तंत्र साधना में लगे हैं। इस ओर रुझान हुआ, तब वह सिर्फ 30 के थे। यहां चौथी बार आए हैं। जिस कपाल क्त्रिया के नाम से ही सामान्यत: रोंगटे खड़े हो जाते हैं, उसी कपाल में वह चाय पीते हैं, खाना खाते हैं। बीच-बीच में अंग्रेजी में बोलने लगते हैं। पिछले वर्ष इंडियन यूरोपियन यूनियन ने उन्हें नीदरलैंड में ग्लोबल पीस एंड फ्रेंडशिप अवार्ड से सम्मानित किया है। बताते हैं कि ईश्‌र्र्वर की आराधना तीन तरह से होती है। वैदिक रीति-वैष्णव पद्धति, तांत्रिक और वैदिक-तांत्रिक मिश्रित पद्धति। वह स्पष्ट भी करते हैं कि तंत्र न तो कोई जादू टोना है न ही चमत्कार है। यह परमात्मा की आराधना का मार्ग है, जिससे महानिर्वाण की प्राप्ति होती है।

    लेकिन श्मशान में ही इसकी साधना क्यों होती है? कापालिक महाकाल का मानना है कि कि दुनिया में इससे पवित्र कोई स्थान ही नहीं है। वहां न छल है न कपट। पूर्ण शांति होती है, जहां पहुंचकर मनुष्य को कुछ देर के लिए ही सही, यह अहसास होता है कि यही सत्य है, यही अंत है। तंत्र की साधना रात में होती है। शंखिनी-डाकिनी-पिशाचिनी, तेलिया मशान आदि तंत्र से जुड़ी बातों को वह बहुत हद तक किवदंती और भ्रांति मानते हैं। काला जूता, काला मोजा, काला वस्त्र और यहां तक की काला बिस्तर भी। इस रहस्य से भैरवानंद पर्दा उठाते हैं, काला रंग वैराग का द्योतक है। यह अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। इससे भी बड़ी बात कि काले पर कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ता। हद से ज्यादा इसका बेहद का अर्थ है। वह बताते हैं कि जिस तरह ब्रंा के मुख से चार वेद निकले, उसी तरह तंत्र की उत्पत्ति भोले भंडारी के श्रीमुख से हुई। तंत्र साधना में क्या खान-पान को लेकर कोई आग्रह है? मांस, मदिरा आदि पंच मकार की भी तंत्र में चर्चा होती है, इसके जवाब में वह कहते हैं, ऐसा कुछ नहीं है। मैं पान, बीड़ी, तंबाकू कुछ नहीं लेता। यह क्त्रिया विश्‌र्र्व कल्याण के लिए है। अनुरागी को कम से संस्कृत पढ़ना आना चाहिए और ईश्‌र्र्वर में आस्था जरूरी है।

    इस रहस्य के आकर्षण में विदेशी भी हैं। वे इस पर रिसर्च कर रहे हैं और साधना भी। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, फ्रांस, जर्मनी से लोग उनके पास आते रहते हैं। यहीं लंदन की रहने वाली चार्टर्ड एकाउंटेंट डैबोरा राबर्ट्स उर्फ अमृतेश्‌र्र्वरी सरस्वती से मुलाकात होती है। पिछले डेढ़ साल से वह तंत्र की शिक्षा ले रही हैं। अमेरिका की किसी वेबसाइट से जानकारी मिली। उत्कंठा जागी और कापालिक महाकाल की शिष्या बन गई। कहती हैं, नौकरी कर रही हूं, लेकिन मुझे आंतरिक शांति की तलाश थी। अब लग रहा है कि मेरी खोज पूरी हुई। आगे के लिए क्या सोचा है, इस सवाल पर हाथ ऊपर कर देती हैं, मां जानें।

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