श्राद्ध पर्व की महिमा ही तर्पण और अर्पण से है
श्राद्ध पर्व की महिमा ही तर्पण और अर्पण से है। वैसे श्राद्ध का सीधा-सा अर्थ है-श्रद्धा से किया वह काम जिसमें प्रसन्नता, सम्मान और ईमानदारी नजर आए। श्राद्ध को 'महालय' भी कहा जाता है। महालय शब्द का अर्थ भी घर में होने वाले उत्सव से ही है। इन दिनों अमूमन
श्राद्ध पर्व की महिमा ही तर्पण और अर्पण से है। वैसे श्राद्ध का सीधा-सा अर्थ है-श्रद्धा से किया वह काम जिसमें प्रसन्नता, सम्मान और ईमानदारी नजर आए। श्राद्ध को 'महालय' भी कहा जाता है। महालय शब्द का अर्थ भी घर में होने वाले उत्सव से ही है। इन दिनों अमूमन घर में शाकाहारी व्यंजन रोज ही बनाए जाते हैं और पितृ गणों की सेवा में रखे जाते हैं। देखा जाए तो भादौ की पूर्णिमा से आश्विन माह की अमावस्या तक चलने वाला यह पर्व अपने-अपने पितरों को मोक्ष दिलाने का पर्व है। जब वे पृथ्वी पर रहने वाले अपने बच्चों से इस बात की इच्छा रखते हैं कि उनके मोक्ष के लिए वे इस खास समय अवधि में कुछ करें।
महर्षि जाबलि, जिनके नाम से जबलपुर शहर बसा है, ने कहा है कि श्राद्ध करने से सुयोग्य संतान, दीर्घ आयु, निरोगी शरीर, अतुल धन और मनवांछित वस्तुओं की अभिलाषा पूर्ण होती है लेकिन जो लोग श्राद्ध पर्व की अनदेखी करते हैं उनके पितृ भी दुखी होते है। शायद कुंडली के नक्षत्रों में हुए इसी परिवर्तन के तहत किसी भी व्यक्ति के हिस्से में पितृदोष आते हैं। आज के समय में पितृदोष अमूमन हर कुंडली का एक प्रमुख दोष बनकर उभरा है। मगर क्या है सच है?
इस बात को लेकर अक्सर मतमतांतर रहे हैं क्योंकि यह भी कहा जाता है कि 'अपने तो कभी नहीं रूठते'। फिर हमारे पितृ हमसे क्यों रूठ जाते हैं? इसका सीधा-सा अर्थ यही है कि जीते-जी उनकी सेवा करने में हमारे द्वारा ही कोई कमी रह गई, जिस दोष की सजा उनकी मुक्ति के बाद भी हमें ही भोगना पड़ती है। इसलिए विधानों में भी पितृ की सेवा को पितृदोष से मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय बताया गया है।
हम सभी ऋषियों की संतान हैं। ब्राह्मणों के पितृ भृगु ऋषि के पुत्र सोमपा है तो क्षत्रियों के पितृ अंगिरा ऋषि के पुत्र हविर्भुज हैं। वैश्य वर्ग के पितृ पुलस्त्य ऋषि के पुत्र आज्यपा है तो शूद्र वर्ग के पितृ वशिष्ठ ऋषि के पुत्र सुकालि हैं। ऐसे ही देवताओं के पितृ मरीचि ऋषि के पुत्र अग्निश्वात्त को माना गया है। इसलिए अपने-अपने कुल के देवताओं, ऋषियों और पितृ की सेवा व विधिवत पूजन ही धर्म में अनुकूल बताया गया है।
पितृ सेवा ही है अचूक उपाय
अद्भुत रामायण में पुत्र की पुत्रता से जुड़ा यह श्लोक इस बात को स्वीकारता भी है-
जीवतो वाक्य करणात् क्षयाहे भूरि भोजनात्।
गयायां पिण्ड दानेन त्रिभि: पुत्रस्य पुत्रता।।
अर्थात् माता-पिता या अन्य पूर्वजों की निर्वाण तिथि पर गया में किया हुआ पिण्ड दान, ब्राह्मण भोजन और तर्पण करने से पुत्र को पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है। विधिपूर्वक तर्पण करना, कम से कम एक सात्विक ब्राह्मण को दक्षिणा सहित भोजन कराना, गाय, कुत्ते, कौआ, चींटी को हर दिन अन्ना देना पितृदोष शांति के कारगर उपाय हैं। श्राद्ध कर्म करते समय पितृस्तोत्र का पाठ करवाने से पितृगण बड़े प्रसन्न होते हैं।
श्राद्ध उसी तिथि को करना चाहिए जिस दिन पितृ विशेष की मृत्यु हुई थी। इसमें बदलाव करना मनुष्य के लिए संकट को बुलाना होता है। तिथि ज्ञात न होने पर विद्वानों से सलाह कर श्राद्ध करना चाहिए या फिर सर्वपितृ अमावस्या पर श्राद्ध करना सबसे उपयुक्त माना गया है। हर वर्ष आने वाले श्राद्ध या महालय और अमावस्या से भी यही संकेत उभरते हैं कि हमें अपने जीवित देवी-देवता अपने माता-पिता की भी सेवा करना चाहिए। हमें अपने बुजुर्गों को सम्मान देना चाहिए। इसलिए इसे सर्वाधिक महत्व दिया जाता है।
क्या कहता है ज्योतिष शास्त्र
ज्योतिष में सूर्य,चंद्र का राहु-केतु शनि के साथ होना पितृदोष में आता है। तुला राशि का सूर्य, मेष का शनि, वृश्चिक का चंद्रमा इन ग्रहों के साथ हों तो पितृदोष बड़ा कष्ट देता है। इसके अलावा भी कई कारक होते हैं जो किसी जातक की कुंडली में इस दोष को प्रबल कर सकते हैं। इससे यह भी पता चलता है कि पितरों को सद्गति प्राप्त नहीं हुई है। इसलिए श्राद्ध पक्ष के 16 दिनों को पितृसेवा के लिए लोक-परलोक सुधारने वाला माना गया है।
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