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    Hanuman Bahuk: हनुमान भक्त भी नहीं जानते होंगे ये शक्तिशाली पाठ, तमाम बाधाएं कर सकता है दूर

    धार्मिक मान्यताओं के अनुसार हनुमान जी की पूजा करने वाले साधक भय और चिंताओं से दूर रहते हैं। हनुमान जी की कृपा प्राप्ति के लिए अधिकतर भक्तजन हनुमान चालीसा का ही पाठ करते हैं। लेकिन आज हम आपको गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखित एक शक्तिशाली प्रार्थना बताने जा रहे हैं जिसके पाठ से साधक को हनुमान जी की असीम कृपा प्राप्त हो सकती है।

    By Suman Saini Edited By: Suman Saini Updated: Thu, 22 Aug 2024 06:04 PM (IST)
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    Hanuman Bahuk हनुमान भक्त भी नहीं जानते होंगे ये शक्तिशाली पाठ।

    धर्म डेस्क, नई दिल्ली। ऐसा माना जाता है कि तुलसीदास जी द्वारा रचित हनुमान बाहुक का पाठ लगातार 40 दिनों तक करने से व्यक्ति के जीवन की तमाम बाधाएं दूर हो सकती हैं। हनुमान बाहुक में 44 छंद हैं, जिसमें हनुमान जी की महिमा और महानता का गुणगान किया गया है। हनुमान चालीसा के अलावा हनुमान बाहुक को भी बजरंगबली की कृपा के लिए बहुत ही अच्छा माना जाता है।

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    हनुमान बाहुक (Hanuman Bahuk)

    श्रीगणेशाय नमः

    श्रीजानकीवल्लभो विजयतेश्रीमद्-गोस्वामि-तुलसीदास-कृतहनुमान बाहुक:

    सिंधु-तरन, सिय-सोच-हरन, रबि-बाल-बरन तनु ।

    भुज बिसाल, मूरति कराल कालहुको काल जनु ।।

    गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव ।

    जातुधान-बलवान-मान-मद-दवन पवनसुव ।।

    कह तुलसिदास सेवत सुलभ सेवक हित सन्तत निकट ।

    गुन-गनत, नमत, सुमिरत, जपत समन सकल-संकट-विकट ।।1।।

    स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रबि-तरुन-तेज-घन ।

    उर बिसाल भुज-दंड चंड नख-बज्र बज्र-तन ।।

    पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन ।

    कपिस केस, करकस लँगूर, खल-दल बल भानन ।।

    कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति बिकट ।

    संताप पाप तेहि पुरुष पहिं सपनेहुँ नहिं आवत निकट ।।2।।

    झूलना

    पञ्चमुख-छमुख-भृगु मुख्य भट असुर सुर, सर्व-सरि-समर समरत्थ सूरो ।

    बाँकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली, बेद बंदी बदत पैजपूरो ।।

    जासु गुनगाथ रघुनाथ कह, जासुबल, बिपुल-जल-भरित जग-जलधि झूरो ।

    दुवन-दल-दमनको कौन तुलसीस है, पवन को पूत रजपूत रुरो ।।3।।

    घनाक्षरी

    भानुसों पढ़न हनुमान गये भानु मन-अनुमानि सिसु-केलि कियो फेरफार सो ।

    पाछिले पगनि गम गगन मगन-मन, क्रम को न भ्रम, कपि बालक बिहार सो ।।

    कौतुक बिलोकि लोकपाल हरि हर बिधि, लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खभार सो।

    बल कैंधौं बीर-रस धीरज कै, साहस कै, तुलसी सरीर धरे सबनि को सार सो ।।4।।

    भारत में पारथ के रथ केथू कपिराज, गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो ।

    कह्यो द्रोन भीषम समीर सुत महाबीर, बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो ।।

    बानर सुभाय बाल केलि भूमि भानु लागि, फलँग फलाँग हूँतें घाटि नभतल भो ।

    नाई-नाई माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जोहैं, हनुमान देखे जगजीवन को फल भो ।।5।।

    गो-पद पयोधि करि होलिका ज्यों लाई लंक, निपट निसंक परपुर गलबल भो ।

    द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक-ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो ।।

    संकट समाज असमंजस भो रामराज, काज जुग पूगनि को करतल पल भो ।

    साहसी समत्थ तुलसी को नाह जाकी बाँह, लोकपाल पालन को फिर थिर थल भो ।।6।।

    कमठ की पीठि जाके गोडनि की गाड़ैं मानो, नाप के भाजन भरि जल निधि जल भो ।

    जातुधान-दावन परावन को दुर्ग भयो, महामीन बास तिमि तोमनि को थल भो ।।

    कुम्भकरन-रावन पयोद-नाद-ईंधन को, तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो ।

    भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान, सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो ।।7।।

    अत्यन्त बलवान् तीनों काल और तीनों लोक में कोई नहीं हुआ ।।।।

    दूत रामराय को, सपूत पूत पौनको, तू अंजनी को नन्दन प्रताप भूरि भानु सो ।

    सीय-सोच-समन, दुरित दोष दमन, सरन आये अवन, लखन प्रिय प्रान सो ।।

    दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो, प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो ।

    ज्ञान गुनवान बलवान सेवा सावधान, साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो ।।8।।

    दवन-दुवन-दल भुवन-बिदित बल, बेद जस गावत बिबुध बंदीछोर को ।

    पाप-ताप-तिमिर तुहिन-विघटन-पटु, सेवक-सरोरुह सुखद भानु भोर को ।।

    लोक-परलोक तें बिसोक सपने न सोक, तुलसी के हिये है भरोसो एक ओर को ।

    राम को दुलारो दास बामदेव को निवास, नाम कलि-कामतरु केसरी-किसोर को ।।9।।

    महाबल-सीम महाभीम महाबान इत, महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को ।

    कुलिस-कठोर तनु जोरपरै रोर रन, करुना-कलित मन धारमिक धीर को ।।

    दुर्जन को कालसो कराल पाल सज्जन को, सुमिरे हरनहार तुलसी की पीर को ।

    सीय-सुख-दायक दुलारो रघुनायक को, सेवक सहायक है साहसी समीर को ।।10।।

    रचिबे को बिधि जैसे, पालिबे को हरि, हर मीच मारिबे को, ज्याईबे को सुधापान भो ।

    धरिबे को धरनि, तरनि तम दलिबे को, सोखिबे कृसानु, पोषिबे को हिम-भानु भो ।।

    खल-दुःख दोषिबे को, जन-परितोषिबे को, माँगिबो मलीनता को मोदक सुदान भो ।

    आरत की आरति निवारिबे को तिहुँ पुर, तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो ।।11।।

    सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि, सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँक को ।

    देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ, बापुरे बराक कहा और राजा राँक को ।।

    जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद, ताके जो अनर्थ सो समर्थ एक आँक को ।

    सब दिन रुरो परै पूरो जहाँ-तहाँ ताहि, जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँक को ।।12।।

    सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि, लोकपाल सकल लखन राम जानकी ।

    लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि, तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी ।।

    केसरी किसोर बन्दीछोर के नेवाजे सब, कीरति बिमल कपि करुनानिधान की ।

    बालक-ज्यों पालिहैं कृपालु मुनि सिद्ध ताको, जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की ।।13।।

    करुनानिधान, बलबुद्धि के निधान मोद-महिमा निधान, गुन-ज्ञान के निधान हौ ।

    बामदेव-रुप भूप राम के सनेही, नाम लेत-देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ ।।

    आपने प्रभाव सीताराम के सुभाव सील, लोक-बेद-बिधि के बिदूष हनुमान हौ ।

    मन की बचन की करम की तिहूँ प्रकार, तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ ।।14।।

    मन को अगम, तन सुगम किये कपीस, काज महाराज के समाज साज साजे हैं ।

    देव-बंदी छोर रनरोर केसरी किसोर, जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं ।

    बीर बरजोर, घटि जोर तुलसी की ओर, सुनि सकुचाने साधु खल गन गाजे हैं ।

    बिगरी सँवार अंजनी कुमार कीजे मोहिं, जैसे होत आये हनुमान के निवाजे हैं ।।15।।

    सवैया

    जान सिरोमनि हौ हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो ।

    ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो ।।

    साहेब सेवक नाते तो हातो कियो सो तहाँ तुलसी को न चारो ।

    दोष सुनाये तें आगेहुँ को होशियार ह्वैं हों मन तौ हिय हारो ।।16।।

    तेरे थपे उथपै न महेस, थपै थिरको कपि जे घर घाले ।

    तेरे निवाजे गरीब निवाज बिराजत बैरिन के उर साले ।।

    संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरी के से जाले ।

    बूढ़ भये, बलि, मेरिहि बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले ।।17।।

    सिंधु तरे, बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवा से ।

    तैं रनि-केहरि केहरि के बिदले अरि-कुंजर छैल छवा से ।।

    तोसों समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से ।

    बानर बाज ! बढ़े खल-खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवा-से ।।18।।

    अच्छ-विमर्दन कानन-भानि दसानन आनन भा न निहारो ।

    बारिदनाद अकंपन कुंभकरन्न-से कुञ्जर केहरि-बारो ।।

    राम-प्रताप-हुतासन, कच्छ, बिपच्छ, समीर समीर-दुलारो ।

    पाप-तें साप-तें ताप तिहूँ-तें सदा तुलसी कहँ सो रखवारो ।।19।।

    घनाक्षरी

    जानत जहान हनुमान को निवाज्यौ जन, मन अनुमानि बलि, बोल न बिसारिये ।

    सेवा-जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी, साहेब सुभाव कपि साहिबी सँभारिये ।।

    अपराधी जानि कीजै सासति सहस भाँति, मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये ।

    साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के, बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये ।।20।।

    बालक बिलोकि, बलि बारेतें आपनो कियो, दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपाधि न्यारिये ।

    रावरो भरोसो तुलसी के, रावरोई बल, आस रावरीयै दास रावरो बिचारिये ।।

    बड़ो बिकराल कलि, काको न बिहाल कियो, माथे पगु बलि को, निहारि सो निवारिये ।

    केसरी किसोर, रनरोर, बरजोर बीर, बाँहुपीर राहुमातु ज्यौं पछारि मारिये ।।21।।

    सिंहिका के समान बाहु की पीड़ा को पछाड़कर मार डालिये ।।

    उथपे थपनथिर थपे उथपनहार, केसरी कुमार बल आपनो सँभारिये ।

    राम के गुलामनि को कामतरु रामदूत, मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये ।।

    साहेब समर्थ तोसों तुलसी के माथे पर, सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये ।

    पोखरी बिसाल बाँहु, बलि, बारिचर पीर, मकरी ज्यौं पकरि कै बदन बिदारिये ।।22।।

    राम को सनेह, राम साहस लखन सिय, राम की भगति, सोच संकट निवारिये ।

    मुद-मरकट रोग-बारिनिधि हेरि हारे, जीव-जामवंत को भरोसो तेरो भारिये ।।

    कूदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम-पब्बयतें, सुथल सुबेल भालू बैठि कै बिचारिये ।

    महाबीर बाँकुरे बराकी बाँह-पीर क्यों न, लंकिनी ज्यों लात-घात ही मरोरि मारिये ।।23।।

    लोक-परलोकहुँ तिलोक न बिलोकियत, तोसे समरथ चष चारिहूँ निहारिये ।

    कर्म, काल, लोकपाल, अग-जग जीवजाल, नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिये ।।

    खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर, तुलसी सो देव दुखी देखियत भारिये ।

    बात तरुमूल बाँहुसूल कपिकच्छु-बेलि, उपजी सकेलि कपिकेलि ही उखारिये ।।24।।

    करम-कराल-कंस भूमिपाल के भरोसे, बकी बकभगिनी काहू तें कहा डरैगी ।

    बड़ी बिकराल बाल घातिनी न जात कहि, बाँहूबल बालक छबीले छोटे छरैगी ।।

    आई है बनाइ बेष आप ही बिचारि देख, पाप जाय सबको गुनी के पाले परैगी ।

    पूतना पिसाचिनी ज्यौं कपिकान्ह तुलसी की, बाँहपीर महाबीर तेरे मारे मरैगी ।।25।।

    भालकी कि कालकी कि रोष की त्रिदोष की है, बेदन बिषम पाप ताप छल छाँह की ।

    करमन कूट की कि जन्त्र मन्त्र बूट की, पराहि जाहि पापिनी मलीन मन माँह की ।।

    पैहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि, बाबरी न होहि बानि जानि कपि नाँह की ।

    आन हनुमान की दुहाई बलवान की, सपथ महाबीर की जो रहै पीर बाँह की ।।26।।

    सिंहिका सँहारि बल, सुरसा सुधारि छल, लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है ।

    लंक परजारि मकरी बिदारि बारबार, जातुधान धारि धूरिधानी करि डारी है ।।

    तोरि जमकातरि मंदोदरी कढ़ोरि आनी, रावन की रानी मेघनाद महँतारी है ।

    भीर बाँह पीर की निपट राखी महाबीर, कौन के सकोच तुलसी के सोच भारी है ।।27।।

    तेरो बालि केलि बीर सुनि सहमत धीर, भूलत सरीर सुधि सक्र-रबि-राहु की ।

    तेरी बाँह बसत बिसोक लोकपाल सब, तेरो नाम लेत रहै आरति न काहु की ।।

    साम दान भेद बिधि बेदहू लबेद सिधि, हाथ कपिनाथ ही के चोटी चोर साहु की ।

    आलस अनख परिहास कै सिखावन है, एते दिन रही पीर तुलसी के बाहु की ।।28।।

    टूकनि को घर-घर डोलत कँगाल बोलि, बाल ज्यों कृपाल नतपाल पालि पोसो है ।

    कीन्ही है सँभार सार अँजनी कुमार बीर, आपनो बिसारि हैं न मेरेहू भरोसो है ।।

    इतनो परेखो सब भाँति समरथ आजु, कपिराज साँची कहौं को तिलोक तोसो है ।

    सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास, चीरी को मरन खेल बालकनि को सो है ।।29।।

    आपने ही पाप तें त्रिपात तें कि साप तें, बढ़ी है बाँह बेदन कही न सहि जाति है ।

    औषध अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये, बादि भये देवता मनाये अधिकाति है ।।

    करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल, को है जगजाल जो न मानत इताति है ।

    चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो राम दूत, ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है ।।30।।

    दूत राम राय को, सपूत पूत बाय को, समत्व हाथ पाय को सहाय असहाय को ।

    बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत, रावन सो भट भयो मुठिका के घाय को ।।

    एते बड़े साहेब समर्थ को निवाजो आज, सीदत सुसेवक बचन मन काय को ।

    थोरी बाँह पीर की बड़ी गलानि तुलसी को, कौन पाप कोप, लोप प्रकट प्रभाय को ।।31।।

    देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग, छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं ।

    पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाम, राम दूत की रजाइ माथे मानि लेत हैं ।।

    घोर जन्त्र मन्त्र कूट कपट कुरोग जोग, हनुमान आन सुनि छाड़त निकेत हैं ।

    क्रोध कीजे कर्म को प्रबोध कीजे तुलसी को, सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं ।।32।।

    तेरे बल बानर जिताये रन रावन सों, तेरे घाले जातुधान भये घर-घर के ।

    तेरे बल रामराज किये सब सुरकाज, सकल समाज साज साजे रघुबर के ।।

    तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत, सजल बिलोचन बिरंचि हरि हर के ।

    तुलसी के माथे पर हाथ फेरो कीसनाथ, देखिये न दास दुखी तोसो कनिगर के ।।33।।

    पालो तेरे टूक को परेहू चूक मूकिये न, कूर कौड़ी दूको हौं आपनी ओर हेरिये ।

    भोरानाथ भोरे ही सरोष होत थोरे दोष, पोषि तोषि थापि आपनी न अवडेरिये ।।

    अँबु तू हौं अँबुचर, अँबु तू हौं डिंभ सो न, बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये ।

    बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि, तुलसी की बाँह पर लामी लूम फेरिये ।।34।।

    घेरि लियो रोगनि, कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं, बासर जलद घन घटा धुकि धाई है ।

    बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस, रोष बिनु दोष धूम-मूल मलिनाई है ।।

    करुनानिधान हनुमान महा बलवान, हेरि हँसि हाँकि फूँकि फौजैं ते उड़ाई है ।

    खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि, केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है ।।35।।

    सवैया

    राम गुलाम तु ही हनुमान गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो ।

    पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो ।।

    बाँह की बेदन बाँह पगार पुकारत आरत आनँद भूलो ।

    श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो ।।36।।

    घनाक्षरी

    काल की करालता करम कठिनाई कीधौं, पाप के प्रभाव की सुभाय बाय बावरे ।

    बेदन कुभाँति सो सही न जाति राति दिन, सोई बाँह गही जो गही समीर डाबरे ।।

    लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि, सींचिये मलीन भो तयो है तिहुँ तावरे ।

    भूतनि की आपनी पराये की कृपा निधान, जानियत सबही की रीति राम रावरे ।।37।।

    पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुँह पीर, जरजर सकल पीर मई है ।

    देव भूत पितर करम खल काल ग्रह, मोहि पर दवरि दमानक सी दई है ।।

    हौं तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारेही तें, ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है ।

    कुँभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि, हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है ।।38।।

    बाहुक-सुबाहु नीच लीचर-मरीच मिलि, मुँहपीर केतुजा कुरोग जातुधान हैं ।

    राम नाम जगजाप कियो चहों सानुराग, काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान हैं ।।

    सुमिरे सहाय राम लखन आखर दोऊ, जिनके समूह साके जागत जहान हैं ।

    तुलसी सँभारि ताड़का सँहारि भारि भट, बेधे बरगद से बनाइ बानवान हैं ।।39।।

    बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो, राम नाम लेत माँगि खात टूकटाक हौं ।

    परयो लोक-रीति में पुनीत प्रीति राम राय, मोह बस बैठो तोरि तरकि तराक हौं ।।

    खोटे-खोटे आचरन आचरत अपनायो, अंजनी कुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं ।

    तुलसी गुसाँई भयो भोंडे दिन भूल गयो, ताको फल पावत निदान परिपाक हौं ।।40।।

    भुला दिये, आखिर उसी का फल आज अच्छी तरह पा रहा हूँ ।।40।।

    असन-बसन-हीन बिषम-बिषाद-लीन, देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को ।

    तुलसी अनाथ सो सनाथ रघुनाथ कियो, दियो फल सील सिंधु आपने सुभाय को ।।

    नीच यहि बीच पति पाइ भरु हाईगो, बिहाइ प्रभु भजन बचन मन काय को ।

    ता तें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस, फूटि फूटि निकसत लोन राम राय को ।।41।।

    जीओं जग जानकी जीवन को कहाइ जन, मरिबे को बारानसी बारि सुरसरि को ।

    तुलसी के दुहूँ हाथ मोदक हैं ऐसे ठाँउ, जाके जिये मुये सोच करिहैं न लरि को ।।

    मोको झूटो साँचो लोग राम को कहत सब, मेरे मन मान है न हर को न हरि को ।

    भारी पीर दुसह सरीर तें बिहाल होत, सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि को ।।42।।

    सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित, हित उपदेश को महेस मानो गुरु कै ।

    मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय, तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुर कै ।।

    ब्याधि भूत जनित उपाधि काहु खल की, समाधि कीजे तुलसी को जानि जन फुर कै ।

    कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ, रोग सिंधु क्यों न डारियत गाय खुर कै ।।43।।

    कहों हनुमान सों सुजान राम राय सों, कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये ।

    हरष विषाद राग रोष गुन दोष मई, बिरची बिरञ्ची सब देखियत दुनिये ।।

    माया जीव काल के करम के सुभाय के, करैया राम बेद कहैं साँची मन गुनिये ।

    तुम्ह तें कहा न होय हा हा सो बुझैये मोहि, हौं हूँ रहों मौनही बयो सो जानि लुनिये ।।44।।

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