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    यहां माता का गिरा था हृदय इसलिए इस शक्तिपीठ को हृदयपीठ भी कहते है

    By Preeti jhaEdited By:
    Updated: Fri, 24 Mar 2017 12:26 PM (IST)

    मंदिर के गर्भगृह में चंद्रकांत मणि है। जिससे सतत जल स्रवित होकर लिंग विग्रह पर गिरता है। बैद्यनाथ ज्योर्तिलिंगपर गिरनेवाला जल रोग से मुक्ति दिलाता है।

    यहां माता का गिरा था हृदय इसलिए इस शक्तिपीठ को हृदयपीठ भी कहते है

    देवघर ।  देवघर हृदयपीठ कहलाता है। यह शक्तिपीठ भी है। इसकी ऐतिहासिक धारणा धार्मिक साहित्य के आधार दक्ष यज्ञ से जुड़ी है। सतयुग में एक समय की बात है जब दक्ष प्रजापति ने शिवजी से अपमानित होकर वृहस्पति नामक यज्ञ प्रारंभ किया। प्रजापति ने शिव को छोड़कर सभी देवी देवताओं को निमंत्रण दे दिया। पिता के घर यज्ञ सुनकर सती जाने की इच्छा जाहिर की। भगवान शंकर पहले राजी नहीं हुए लेकिन आग्रह करने पर जाने की अनुमति दे दी। जब वह वहां गईं और पिता के मुख से पति का अनादर सुना तो यज्ञ कुंड में कूद गईं। उसके बाद तो हाहाकार मच गया। शिव सुनते ही वहां पहुंचे। क्रोधित होकर सती के मृत शरीर को कंधे पर लेकर नृत्य करने लगे। तब विष्णु ने अपने चक्र से सती के मृत देह का अंग प्रत्यंग काट डाला। वह जिस जिस स्थान पर गिरा वही महापीठ कहलाया। देवघर में माता का हृदय गिरा और जयदुर्गा शक्ति के रूप में है। देवघर की शक्ति साधना में भैरव की प्रधानता है और बैद्यनाथ स्वयं यहां भैरव हैं। इनकी प्रतिष्ठा के मूल में तांत्रिक अभिचारों की ही प्रधानता है। तांत्रिक ग्रंथों में इस स्थल की चर्चा है। देवघर में काली और महाकाल के महत्व की चर्चा तो पद्मपुराण के पातालखंड में भी की गयी है। 

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    धार्मिक पहलू व परंपराओं को देखें तो मंदिर से जुड़ी कई ऐसी परंपरा है जिसका निर्वहन नित्य किया जाता है। कांचाजल की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। कांचा शब्द का बांग्ला और मैथिली में भी प्रयोग है। दरअसल 1920 तक यहां की भाषा बांग्ला थी। मंदिर का पट जब प्रात:काल खुलता है तो रात्रि में अर्पित विल्वपत्र, फूल चंदन को हटाया जाता है। उसके बाद कांचाजल स्थानीय तीर्थ पुरोहित परिवार की ओर से अर्पित किया जाता है। 
     इतिहास के पन्नों में यह भी वर्णित है कि जब शिव को प्रसन्न करने के लिए लंकापति रावण ने शीश चढ़ाना शुरू किया तो वे प्रसन्न हो गए और कैलाश जाने को साथ हो गए। इतना ही नहीं रावण के शीश को जोड़ दिया था, तब से वह बैद्यनाथ कहलाए। शिव पुराण में भी इसकी चर्चा है। कहा जाता है कि शिवलिंग लेकर लंका जाते वक्त रावण को लघुशंका लगी तो ब्राह्मण के वेश में विष्णु ने ही अपने हाथ में लिया। क्योंकि शिव से वचन लिया था कि जब वह जमीन पर रखेगा तो वहां से नहीं हिलेंगे। देवलोक में यह सुनकर हाहाकार मचा था। लेकिन ईश्वर की माया के आगे रावण अपने साथ नहीं ले जा सका। तब विष्णु के हाथ शंकर देवघर में ही स्थापित हुए। इसी परंपरा को लेकर यहां होलिका दहन के दिन हरि और हर का मिलन कराया जाता है। 
    भारत में बारह ज्योर्तिलिंग हैं। इसमें एक बैद्यनाथ ज्योर्तिलिंग है जो देवघर में विराजमान हैं। बृहत्स्तोत्ररत्नाकर के स्तोत्र संख्या 181 में लिखा है  'पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने, सदा वसन्तं गिरिजासमेतम् सुरासुराराधितपादपद्यं। श्रीबैद्यनाथं तमहं नमामिÓ। यह स्पष्ट करता है कि पूर्वोत्तर भारत के प्रज्वलिका निधान यानी चिताभूमि में बैद्यनाथ प्रतिष्ठित हैं। शिव पुराण के अध्याय 38 में भी द्वादश ज्योर्तिलिंग की जो चर्चा की गई है, उसमें बैद्यनाथं चिताभूमौ का उल्लेख है। जो यह स्पष्ट करता है कि यह चिताभूमि तत्कालीन बिहार संप्रति झारखंड में अवस्थित है। इसे कामना लिंग कहा जाता है। सारी मनोरथ विल्वपत्र के साथ जलार्पण से पूरी हो जाती है। 
    बैद्यनाथ नाम को लेकर भी कई तथ्य हैं। मंदिर के गर्भगृह में चंद्रकांत मणि है। जिससे सतत जल स्रवित होकर लिंग विग्रह पर गिरता है। बैद्यनाथ ज्योर्तिलिंगपर गिरनेवाला जल चरणामृत के रूप में जब लोग ग्रहण करते हैं तब वह किसी भी रोग से मुक्ति दिलाता है। बैद्यनाथ मंदिर को स्थापत्य कला की नजर से देखें तो यह प्राचीनतम मंदिरों में एक है। अभिलेखों में इसे पालकालीन मंदिर कहा जाता है। लेकिन इतिहास के विशेषज्ञ इसे देशी स्थापत्यकला का नमूना मानते हैं। एकमात्र बैद्यनाथ मंदिर है जिसके शिखर पर पंचशूल है। सामान्यतया भारत के शिव मंदिरों के शिखर पर त्रिशूल ही प्रचलित है। महाशिवरात्रि के अवसर पर इसे विधि पूर्वक उतारा जाता है और प्राण प्रतिष्ठा के साथ पुन: स्थापित कर दिया जाता है। बारह ज्योर्तिलिंग में यह एकमात्र ज्योर्तिलिंग है जहां शिवरात्रि के अवसर पर रात्रि प्रहर शिवलिंग पर सिंदूर दान होता है, क्योंकि शिव व शक्ति एक साथ विराजते हैं। 
    एकमात्र ज्योर्तिलिंग है जहां मंडल कारा में कैदियों से बने मोर मुकुट बाबा बैद्यनाथ को नित्य शृंगार पूजा के बाद अर्पित किया जाता है। कई लोक कथाएं भी यहां से जुड़ी है। कहा जाता है कि सुबह मंदिर के मुख्य द्वार पर शहनाई बजती थी। 
    कोट- 
    बैद्यनाथधाम शक्तिपीठ है और यहां सती का हृदय गिरा है। शक्तिपीठ की एकमात्रा में शक्ति अंश शिवांश को समभाव में लेकर संगठित होती है। देवी भागवत एवं तंत्र चूड़ामणि में इस पीठ का नाम बैद्यनाथधाम है। 
    डॉ. मोहनानंद मिश्र, संपादक, 
    श्रीश्री वैद्यनाथ ज्योर्तिलिंग वांड्मय 
    देवघर में स्थापित ज्योर्तिलिंग शिव व शक्ति का सम्मिश्रण है। यहां दोनों विराजमान है, जिसका पुराणों में प्रमाण है। शिवरात्रि की रात यहां शिवलिंग पर सिंदूर दान होता है। यह किसी दूसरे ज्योर्तिलिंग में देखने को नहीं मिलता है। 
    दुलर्भ मिश्र, उपाध्यक्ष अखिल भारतीय तीर्थ पुरोहित महासभा, देवघर