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    गंगा दशहरा का महात्मय

    By Edited By:
    Updated: Wed, 30 May 2012 12:17 PM (IST)

    गंगा दशहरा का पर्व ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष दशमी को मनाया जाता है।

    गंगा दशहरा का पर्व ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष दशमी को मनाया जाता है। ज्येष्ठमास की शुक्ल पक्ष की दसवीं को हस्त नक्षत्र और सोमवार होने पर, यह अभूतपूर्व समय माना जाता है। हस्त नक्षत्र में बुधवार के दिन गंगावतरण हुआ था। इसलिये ही यह तिथि अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस दिन गंगा स्नान का महत्व अधिक माना जाता है.क्योकि गंगा स्नान, दान, तर्पण से दस पापों का नाश होता है। इसलिये इस तिथि को दशहरा कहा जाता है।

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    प्राचीन काल में अयोध्या के राजा सगर की केशिनी और सुमति नामक दो रानियां थीं। केशिनी के अंशुमान नामक पुत्र और सुमति के साठ हजार पुत्र हुये। राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ किया यज्ञ की पूर्ति के लिये एक घोड़ा छोड़ा गया। इन्द्र यज्ञ को भंग करने हेतु घोड़े को चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध आये। राजा ने यज्ञ के घोड़े को खोजने के लिये अपने साठ हजार पुत्रों को भेजा। घोड़े को खोजते- खोजते वे कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे। उन्होने यज्ञ के घोड़े को वहां बंधा पाया। उस समय कपिल मुनि तपस्या कर रहे थे। राजा के पुत्रों ने कपिल मुनि को चोर समझ चोर-चोर कहकर पुकारना शुरु कर दिया। कपिल मुनि की समाधि टूट गयी। क्रोधित हो राजा के सारे पुत्रों को श्राप से जला कर भस्म कर दिया। पिता की आज्ञा पाकर अंशुमान अपने भाइयों को खोजता हुआ कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचा। महात्मा गरुड ने अंशुमान को उसके भाइयों के भस्म होने का वृतांत बताया, उन्होनें अंशुमान को यह भी बताया कि अगर अपने भाईयो की मुक्ती चाहिये तो गंगाजी को पृथ्वी पर लाना पड़ेगा। महात्मा की आज्ञा से अंशुमान घोड़े को लेकर यज्ञ मंडप में पहुंच राजा सगर को पूरा वृतांत बताया। महाराज सगर की मृत्यु के पश्चात अंशुमान ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये तप किया, परन्तु वह असफ़ल रहे। इसके बाद उनके पुत्र दिलीप ने भी तपस्या की परन्तु वे भी असफ़ल रहे। अन्त में दिलीप के पुत्र भागीरथ ने गोकर्ण नामक तीर्थ में जाकर तपस्या की। तपस्या करते-करते बहुत से वर्ष बीत गये। तब ब्रह्माजी ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर गंगा जी को पृथ्वी पर ले जाने का वरदान दिया। अब समस्या यह थी कि ब्रह्माजी के कमण्डल से छूटने के बाद गंगाजी के वेग को पृथ्वी पर कौन संभालेगा। ब्रह्माजी ने बताया कि भूलोक में भगवान शंकर के अलावा और किसी में इस वेग को संभालने की शक्ति नही है। इसलिये गंगा का वेग संभालने के लिये भगवान शंकर से अनुग्रह करो। महाराज भागीरथ ने एक अंगूठे पर खड़े होकर भगवान शंकर की आराधना की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न हो भगवान शंकर अपनी जटाओं में गंगाजी को संभालने के लिये तैयार हो गये। ब्रह्माजी ने अपने कमंडल से गंगाजी को पृथ्वी पर छोड़ा.शिवजी ने उन्हे अपनी जटाओं में समेट लिया। कई वर्षों तक गंगाजी को जटाओं से निकलने का रास्ता नही मिल सका। महाराज भागीरथ ने भगवान शंकर से फिऱ से गंगाजी को छोडऩे का अनुग्रह किया भगवान शंकर ने गंगाजी को पृथ्वी पर खुला छोड़ दिया। गंगाजी हिमालय की घाटियों से कल-कल करती हुई मैदान की तरफ़ बढीं. आगे-आगे भागीरथ जी और पीछे-पीछे गंगाजी। जिस रास्ते से गंगाजी जा रहीं थी,उसी रास्ते में ऋषि जन्हु का आश्रम था। गंगाजी के सानिध्य से उनकी तपस्या में विघ्न पड़ा, तो वे गंगाजी को पी गये। भागीरथ के द्वारा उनसे प्रार्थना करने पर उन्होने अपनी जांघ से गंगाजी को निकाल दिया। गंगाजी ऋषि जन्हु के द्वारा जांघ से निकालने के कारण जन्हु की पुत्री जान्ह्वी कहलायीं। इस प्रकार गंगाजी हरिद्वार,सोरों और ब्रह्मवर्त प्रयाग और गया होती हुई केलिकात्री स्थान पर जा पहुंची । उसके आगे कपिल मुनि का आश्रम जो आज गंगासागर के नाम से मशहूर है, वहां पर राजा भागीरथ के पीछे-पीछे जाकर राजा सगर के साठ हजार पुत्रों की भस्म को अपने में समेट कर समुद्र में मिल गयीं। उसी समय ब्रह्माजी ने प्रकट होकर भागीरथ के कठिन तप और प्रयास की भूरि-भूरि प्रसंसा की। ब्रह्माजी ने भागीरथ के साथ उनके हजार प्रतिपितामहों को अमर होने का वरदान दिया। उसके बाद उन्होने भागीरथ को वरदान दिया कि गंगाजी को पृथ्वी पर लाने के कारण उनका एक नाम भागीरथी भी होगा। राजा भगीरथ ने प्रजा को एक हजार वर्ष तक सुख पहुंचाकर मोक्ष को प्राप्त किया। इस कथा को सुनने और सुनाने पर जाने अन्जाने में किये गये पापों का उसी प्रकार से अन्त हो जाता है। जिस प्रकार से सूर्योदय के पश्चात अंधेरे का।

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