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    विद्वता और विनम्रता की प्रतिमूर्ति मैत्रेयी

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    Updated: Wed, 01 Aug 2012 12:54 AM (IST)

    पौराणिक ग्रंथों में जिन विदुषी स्त्रियों का जिक्र आता है, उनमें मैत्रेयी का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है क्योंकि उन्होंने ज्ञान की प्राप्ति के लिए समस्त सांसारिक सुखों को त्याग दिया था।

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    महर्षि याज्ञवल्क्य  की दो पत्नियां थीं। पहली पत्नी भारद्वाज ऋषि की पुत्री कात्यायनी और दूसरी मित्र ऋषि की कन्या मैत्रेयी  थीं। याज्ञवल्क्य  उस दर्शन के प्रखर प्रवक्ता थे, जिसने इस संसार को मिथ्या स्वीकारते हुए भी उसे पूरी तरह नकारा नहीं। उन्होंने व्यावहारिक धरातल पर संसार की सत्ता को स्वीकार किया। एक दिन याज्ञवल्क्य  को लगा कि अब उन्हें गृहस्थ आश्रम छोडकर वानप्रस्थ के लिए चले जाना चाहिए। इसलिए उन्होंने दोनों पत्नियों के सामने अपनी संपत्ति को बराबर हिस्से में बांटने का प्रस्ताव रखा। कात्यायनी ने पति का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, पर मैत्रेयी बेहद शांत स्वभाव की थीं। अध्ययन, चिंतन और शास्त्रार्थ में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। वह जानती थीं कि धन-संपत्ति से आत्मज्ञान नहीं खरीदा जा सकता। इसलिए उन्होंने पति की संपत्ति लेने से इंकार करते हुए कहा कि मैं भी वन में जाऊंगी और आपके साथ मिलकर ज्ञान और अमरत्व की खोज करूंगी। इस तरह कात्यायनी को ऋषि की सारी संपत्ति मिल गई और मैत्रेयी  अपने पति की विचार-संपदा की स्वामिनी बन गई।

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    पति से मिला आत्मज्ञान

    वृहदारण्य को उपनिषद् में मैत्रेयी  का अपने पति के साथ बडे रोचक संवाद का उल्लेख मिलता है। मैत्रेयी  ने याज्ञवल्क्य  से यह ज्ञान ग्रहण किया कि हमें कोई भी संबंध इसलिए प्रिय होता है क्योंकि उससे कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ जुडा होता है। मैत्रेयी ने अपने पति से यह जाना कि आत्मज्ञान के लिए ध्यानस्थ,समर्पित और एकाग्र होना कितना जरूरी है। याज्ञवल्क्य ने उन्हें उदाहरण देते हुए यह समझाया कि जिस तरह नगाडे की आवाज के सामने हमें कोई दूसरी ध्वनि सुनाई नहीं देती। वैसे ही आत्मज्ञान के लिए सभी इच्छाओं का बलिदान जरूरी होता है।

    स्त्री जाति का बढाया सम्मान

    याज्ञवल्क्य  ने मैत्रेयी  से कहा कि जैसे सारे जल का एकमात्र आश्रय समुद्र है उसी तरह हमारे सभी संकल्पों का जन्म मन में होता है। जब तक हम जीवित रहते हैं, हमारी इच्छाएं भी जीवित रहती हैं। मृत्यु के बाद हमारी चेतना का अंत हो जाता है और इच्छाएं भी वहीं समाप्त हो जाती हैं। यह सुनकर मैत्रेयी  ने पूछा कि क्या मृत्यु ही अंतिम सत्य है? उसके बाद कुछ भी नहीं होता? यह सुनकर याज्ञवल्क्य  ने उन्हें समझाया कि हमें अपनी आत्मा को पहचानने की कोशिश करनी चाहिए। शरीर नश्वर है, पर आत्मा अजर-अमर है। यह न तो जन्म लेती है और न ही नष्ट होती है। आत्मा को पहचान लेना अमरता को पा लेने के बराबर है। वैराग्य का जन्म भी अनुराग से ही होता है। चूंकि मोक्ष का जन्म भी बंधनों में से ही होता है, इसलिए मोक्ष की प्राप्ति से पहले हमें जीवन के अनुभवों से भी गुजरना पडेगा। यह सब जानने के बाद भी मैत्रेयी की जिज्ञासा शांत नहीं हुई और वह आजीवन अध्ययन-मनन में लीन रहीं। आज हमारे लिए स्त्री शिक्षा बहुत बडा मुद्दा है, लेकिन हजारों साल पहले मैत्रेयी  ने अपनी विद्वत्ता से न केवल स्त्री जाति का मान बढाया, बल्कि उन्होंने यह भी सच साबित कर दिखाया कि पत्नी धर्म का निर्वाह करते हुए भी स्त्री ज्ञान अर्जित कर सकती है।

    संगीत में हैं भगवान

    मेरी समझ से हर इंसान की अपनी दुनिया होती है और वह उसी में जीना चाहता है। फिर वही उसका धर्म हो जाता है। मैं संगीत साधक हूं इसलिए मुझे सरगम के सात सुरों में ही भगवान मिलते हैं। मेरे लिए भगवान को महसूस करने के लिए जगह या वक्त  की कोई पाबंदी नहीं होती। मैं मानता हूं कि वह प्रकृति के हर कण में हैं। सारा संसार उन्हीं का है। भगवान को पाने के लिए कुछ विशेष नहीं करता। जब भी मेरा मन अशांत होता है तो सही सुर पकड कर गाना शुरू कर देता हूं। इससे मुझे ऐसा लगता है कि ईश्वर मेरे आसपास ही हैं। मैं गीता के दर्शन को अपने जीवन में उतारने की कोशिश करता हूं। इससे मुझे आत्मिकखुशी मिलती है।

    प्रस्तुति :  रतन