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सिर्फ

एक स्त्री जब शादी करती है तो अपना बचपन, यादें सब छोड़ कर नए और अजनबी परिवेश में कदम रखती है। अपनी जड़ों से उखड़ कर दूसरे की जमीन पर फिर से उगती है। मन में कई सपने होते हैं, जिन्हें हमसफर के साथ मिल कर पूरा करना चाहती है वह। मगर कई बार पति तो मिलता है- जीवनसाथी नहीं। जीवनसाथी तलाशती स्त्री पूरी जिंदगी सिर्फ इंतजार करती रह जाती है।

By Edited By: Published: Sat, 10 May 2014 11:19 AM (IST)Updated: Sat, 10 May 2014 11:19 AM (IST)
सिर्फ

कोई पुरुष कभी समझ पाएगा कि विदाई की बेला में वधू के मन पर क्या गुजर रही होती है! अपना सुरक्षित माहौल और खून के रिश्ते पीछे छोड अनजाने, अपरिचित लोगों के बीच जाकर रहना.. दो-एक दिन के लिए नहीं, सदैव के लिए। परायेपन के भय के बीच हलकी सी जो आस की किरण होती है, वह होती है पति से। अजनबी वह भी होता है, मगर प्यार की डोर उन्हें करीब लाती है। वह मान लेती है कि जिस तरह वह पति के प्रति समर्पित होगी, उसी तरह वह भी अनजाने परिवेश में उसका सहारा बनेगा।

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मेरे लिए तो यह परिवर्तन और बडा था। साधारण मध्यवर्गीय परिवार की थी मैं और तीन बहनों में सबसे बडी। पिता का अपना कारोबार इतना ही अच्छा था कि हम सबकी जरूरतें पूरी हो सकें। देखने में मैं साधारण से कुछ ज्यादा सुंदर थी और किशोरावस्था पार करते-करते रिश्ते भी आने शुरू हो गए थे। बारहवीं की परीक्षा भी नहीं दे पाई थी कि एक संपन्न परिवार में रिश्ता तय हो गया। मोटर पा‌र्ट्स का फैला हुआ कारोबार था उनका। परिचित हैरान थे मेरे सौभाग्य पर। मां ईश्वर को धन्यवाद देती न थकतीं। छोटी बहनें आने वाले दिनों की तैयारी से ही उत्साहित थीं। ..और पापा? पापा तो यही सोच कर संतुष्ट थे कि बडी का रिश्ता अच्छे घर में हो जाने से दोनों छोटी बेटियों के लिए वर मिलना सरल हो जाएगा। मेरे मन में डर तो था, लेकिन मैं पूरे मन से नए माहौल में ढलने को दृढसंकल्प थी। यही संस्कार मिले थे मुझे अपने परिवार से।

सुख-सुविधाओं से भरपूर था मेरा नया घर। कमी थी तो बस हमसफर की। पति बाहर वालों के सामने तो बहुत सहज और विनम्र दिखते थे, लेकिन सारे कर्तव्य बाहर वालों के सामने निभाए जाते। बाकी समय वे हमेशा मेरी अवहेलना करते। हालांकि शुरू के कुछ दिन अच्छी तरह बीते। मिलन का खुमार, हनीमून का साथ, घूमना-फिरना, संबंधियों व दोस्तों के घर निमंत्रण पर जाना..। गुडिया सी सजी मैं छोटी-छोटी बातों पर खुश हो जाती। उस उम्र में सोच ही उतनी होती थी।

लेकिन जल्द ही आबोहवा बदलने लगी। दुलहन का जोडा उतरा, घर-गृहस्थी में रमने लगी और उधर पति को एक नई गुडिया की तलाश होने लगी। उनके लिए पत्नी का कोई महत्व नहीं था। मैं सिर्फ उनकी जरूरत थी। इसके अलावा भी मेरा वजूद हो सकता है, यह उनकी समझ से बाहर था। व्यावसायिक मामलों में पिता से मशविरा होता तो घरेलू मामलों में मां से। मैं पराये घर से आई थी और परायी ही रही। परिवार के हर संस्कार, तौर-तरीके, तहजीब और रीति-रिवाज मैंने अपनाए। सारे कर्तव्य पूरे करने के बावजूद मेरे अधिकार सीमित और वहीं तक थे, जहां तक घर के सदस्य चाहें। यूं तो मेरे नाम के आगे भी परिवार का नाम जुडा था, लेकिन इसका हिस्सा मैं कभी नहीं बन पाई। जैसे किसी भरे हुए पन्ने पर हाशिया छोड दिया जाता है, जरूरत पडने पर उपयोग किया जाता है। मेरी स्थिति उसी हाशिये सी थी।

परिवार को वारिस चाहिए था। दो साल बाद यह उम्मीद पूरी हो गई। एक साथ एक नहीं, दो-दो वारिस मिल गए। मुझे भी थोडा संतोष इसलिए हुआ कि इस बहाने मुझे अपने वजूद को साबित करने का एक मौका मिला। मगर मेरी यह संतुष्टि अल्पकालीन ही साबित हुई।

पति को अब पूरी आजादी मिल गई। काम के बाद क्लब जाते, यार-दोस्तों की महफिलों में डिनर और अकसर पीना-पिलाना भी होता। इतना तक तो मैं स्वीकार कर लेती। मगर धीरे-धीरे महिला दोस्तों की संख्या बढने लगी। मित्रता की आड में क्या चल रहा है, यह खबर भी उडती-उडती मुझ तक पहुंचने लगी। हर व्यक्ति की अपनी स्वतंत्रता है और एक सीमा के बाद किसी भी वयस्क व्यक्ति को इसके लिए बहुत नहीं समझाया जा सकता। पहले हर काम आड में होता था, सामाजिक-पारिवारिक मर्यादाओं का पालन किया जाता, मगर मेरी चुप्पी ने धीरे-धीरे साहस बढा दिया पति का। उनकी हिम्मत खुल गई। पैसे के बल पर वह किसी के भी शरीर को पा लेते और उपभोग के बाद उसे दूध में पडी मक्खी की तरह अपनी जिंदगी से निकाल भी फेंकते। पुरुष होने के नाते कुछ विशेषाधिकार सुरक्षित थे उनके पास। इसके लिए उनके मन में कोई ग्लानि या अपराध-बोध भी कभी नहीं पनपा।

अब तक मैंने जो कहानियां पढी थीं, उनमें दुख-तकलीफ, विपत्ति के बाद अंत में राजा-रानी सुख-चैन से जीवन बिताते थे, मगर मेरी जिंदगी की कहानी उलटी कलम से लिखी जा रही थी। मैं सोचती, कहानियों में यह क्यों नहीं बताया जाता कि विवाह के बाद का जीवन कैसा होता है? अब तो पानी सिर के ऊपर बहने लगा था। घर में ही ख्ाुला खेल खेला जाने लगा। और एक दिन..अति हो गई। आया के भरोसे दोनों बच्चों को छोड मैं बाथरूम में नहाने घुसी। थोडी ही देर में उनकी रोने की आवाज सुन कर अचानक बाहर आई तो आया को नदारद पाया। उसे देखने घर में घुसी तो आया को साहब के कमरे में आलिंगनबद्ध पाया। संदेह तो कई दिनों से था, अब प्रमाण भी मिल गया था। जिस बात को अब तक अपना वहम समझ कर झटक देती थी, वही साक्षात सामने थी। यह ऐसा सच था, जिसे कहना भी मुश्किल था और निभाना भी मुश्किल।

यह मेरे स्त्रीत्व पर सबसे बडी चोट थी। मैंने खुद को अपमानित-तिरस्कृत महसूस किया। ऐसा लगा मानो किसी ने मुंह पर जोरदार थप्पड रसीद कर दिया हो। वैसा ही झन्नाटा मैं पूरे वजूद पर महसूस करने लगी थी। बात घर के बाहर न फैले, परिवार की बदनामी न हो, यह सोच कर सास के सामने मन की उलझन रखी तो उलटे सारा दोष मेरे ही सर मढ दिया गया। कहने लगीं, तुम बेवजह शक करती हो। देखो, शादी भरोसे पर ही टिकती है और फिर मर्द तो होता ही भंवरे के समान है, उसे बांध कर रखना तो तुम्हारा फर्ज है। इसमें भी तो तुम्हारा ही कसूर है न? तुम उसे खुश कर पातीं तो वह ऐसी अनपढ गंवार लडकी के पीछे क्यों भागता? मेरी चुप्पी देख सास ने आगे कुछ और पंक्तियां जोड दीं, मैंने यह सोच कर तुमसे अपने बेटे की शादी की थी कि तुम्हारी सुंदरता उसे बांधे रखेगी और वह इधर-उधर जाना बंद कर देगा। वरना हमारे पास तो एक से एक अच्छे रिश्ते आ रहे थे। मैं समझ चुकी थी कि घर के बिगडे हुए सपूत को सुधारने के लिए मुझ जैसी मिडिल क्लास कम पढी-लिखी लडकी को बलि का बकरा बनाया गया है। सास-ससुर का तरीका नाकाम रहा तो इसके लिए दंड भी मुझे ही भुगतना होगा। मैं जानती थी कि शादी में भरोसा बडी चीज है। लेकिन अपनी आंखों से पति को किसी दूसरी स्त्री के साथ देख कर कोई पत्नी कैसे उस पर भरोसा कर सकती है, यह बात मेरी समझ से परे थी। मैं ससुराल के ताने झेल सकती थी, पति की बेरुख्ाी से भी समझौता कर सकती थी, लेकिन बच्चों के सामने अपने ही घर में पति को किसी और के साथ कैसे बांटती! सास को कुछ और न सूझा तो बाबाओं-साधुओं के पास जा-जाकर तावीज और भभूत लाकर मुझे देने लगीं, जो दावा करते थे कि उनके यहां पति को वश में करने के शर्तिया नुसखे हैं। मैं जानती थी, बेकाबू व्यक्ति को किसी नुसखे से काबू नहीं किया जा सकता। दिन-प्रतिदिन पति की रासलीला यूं ही चलती रही।

निराश होकर एक दिन बचपन की सहेली से मन की बात बांटी तो उसने भी पलट कर कहा, मस्त रहो यार! कहां जाएगा? लौट कर तुम्हारे पास ही आएगा न! शुक्र करो कि उसने कभी तुम्हारे साथ मारपीट नहीं की।

दिल के खुश रखने को गालिब ये खयाल अच्छा है..। जिंदा रहने के लिए कोई न कोई तो बहाना चाहिए। इसे मजबूरी कह सकते हैं, लेकिन जो घाव किसी को दिखाए भी न जा सकें, वे ज्यादा ही कसकते हैं। कैसा समाज है यह, जहां पुरुष की भटकन का दोष भी पत्नी के सर मढ दिया जाता है। स्त्री की निष्ठा चौबीस कैरेट शुद्ध हो। अग्नि परीक्षा देकर भी उसका चरित्र संदिग्ध रहता है और उसे कभी भी त्यागा जा सकता है। हमारे पूर्वज स्त्रियों के लिए सीता और सावित्री जैसे आदर्श निर्धारित करते समय पुरुषों के आगे कोई आदर्श रखना क्यों भूल गए?

..धीरे-धीरे पति ने बेडरूम भी अलग कर लिया, यह कहते हुए कि तुम्हारे बच्चे सोने नहीं देते..। बच्चों को अलग कमरा मिला तो पति का नया बहाना था, तुम रात को देर तक जागती हो, नींद खराब होती है..।

अकसर रात की नीरवता में मोबाइल पर पति का स्वर सुनाई देता। हंस-हंस कर की जाती बातें मेरे कानों में पडतीं। गुस्सा उन स्त्रियों पर आता, जो इतनी आसानी से शिकार बन जाती थीं और जिन्हें इनकी मंशा के बारे में कुछ पता नहीं होता था। हमारे बीच संवाद अब नगण्य हो चुका था। हां, फोन पर हर हफ्ते किसी नई गर्लफ्रेंड की तारीफ में कसीदे पढते पति का स्वर मुझे सुनाई देता रहा। ..इतना होने के बावजूद कभी-कभी पति अपना हक मांगने मेरे पास भी आ जाते। मुझसे उम्मीद की जाती कि जिंदगी भर मिले तिरस्कार का बदला मैं समर्पित पत्नी बन कर चुकाऊं। यह उनका कानूनी हक था।

बिजनेस पार्टीज, पारिवारिक आयोजनों में हम खुशहाल दंपती की तरह साथ जाते। मेरे परिचित मेरे भाग्य की सराहना करते न अघाते और मैं मुसकराते हुए इस जहर को पीती। कुछ आंसू आंखों से नहीं टपकते। वे मन के भीतर ही बहते रहते हैं।

..शादी की पच्चीसवीं सालगिरह नजदीक थी। घर में निर्णय लिया गया कि इसे धूमधाम से मनाया जाएगा। यह भी एक तरीका है सामाजिक दायरे में वैभव दिखाने का। तैयारियां शुरू हो गई। पांच सितारा होटल बुक कराया गया। हर काम परफेक्ट..! इवेंट मैनेजर ने सारी व्यवस्थाएं नफासत से कीं। मुझे कुंदन का जडाऊ सेट पहनाया गया, डिजाइनर साडी पहन कर मैं पार्लर में तैयार हो रही थी। एक-एक कर अतिथि पहुंचने लगे..। रात के नौ बजे तक पार्टी पूरे शबाब पर पहुंच गई। शहर के तमाम गणमान्य लोग वहां उपस्थित थे। हाथों में गिलास पकडे अकारण ही ठहाके लगा रहे थे लोग। देश-दुनिया की राजनीति पर बहस हो रही थी, व्यवस्था का विश्लेषण हो रहा था। पति मेरा हाथ थामे मेहमानों से मिल रहे थे। ख्ाूबसूरत साडियों में लिपटी मेहमान स्त्रियां मुझे बधाई दे रही थीं। कुछेक के स्वर में तो ईष्र्या का पुट साफ नजर आ रहा था।

रात के बारह बजे तक पार्टी चलती रही। अतिथि लौटने लगे तो हम मेहमानों का धन्यवाद करने द्वार पर खडे हुए। मेरी बुआ ने जाते हुए मुझे आलिंगनबद्ध किया और बोलीं, कितनी खुशकिस्मत हो तुम! स्मार्ट और बडे दिल वाला पति मिला है तुम्हें। पता भी नहीं चला बेटी और आज तुम्हारी शादी को 25 साल भी हो गए। धन-दौलत, ऐशो-आराम, दो हैंडसम बेटे..। और क्या चाहिए जिंदगी में खुश रहने को?

मुझे ऐश्वर्य, वैभव और चकाचौंध के बदले अपना पति चाहिए। चंद ऐसे पल चाहिए उसके साथ, जो सिर्फ मेरे हों, जिन्हें औरों से बांटना न पडे। पति के साथ बेफिक्र दिन-रात चाहिए.., कहना चाहा मैंने, मगर शब्द होठों पर ही ठिठक गए। मैंने अपने आंसू छिपा लिए। मुस्करा कर बुआ की ओर देखा और थैंक्स कहते हुए अगले मेहमान को विदा करने की तैयारी करने लगी।

उषा वधवा


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