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    अध्यात्म के सिंबल

    ईश्वर के साकार या निराकार होने को लेकर दार्शनिकों और धर्मशास्त्रियों के बीच बहुत बहसें चली हैं। भारत में निराकार को भी प्रतीकों के रूप में ढाला जा चुका है। वैज्ञानिक चेतनासंपन्न ध्यानगुरु श्री हनुतश्री के विचार।

    By Edited By: Updated: Fri, 31 Aug 2012 05:02 PM (IST)
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    पूरी दुनिया में विद्वान लोग ईश्वर के प्रति एक खास नजरिया रखते हैं। उनका सोचना है कि ईश्वर निराकार है। हम उसे वैसे नहीं देख सकते हैं, जैसे अपने को आईने में देखते हैं। ईश्वर पूरी तरह से बोध का मामला है। जो उस बोध से गुजर जाता है, वही बुद्ध हो जाता है।

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    सरल लोग, जिनकी दुनिया उनकी रोजी-रोटी के इर्द-गिर्द मंडराती रहती है, वे ईश्वर को निराकार नहीं मानते। उनका खयाल है कि ईश्वर हमारी तरह ही कहीं होगा और वहीं से हमारे ऊपर नजर रख रहा होगा। यही बात दर्शन और पौराणिक शब्दावली में कही जाए तो ईश्वर सगुण है। ठीक वैसे ही जैसे हम लोग सगुण हैं। ये सरल लोग यह मानते हैं कि ईश्वर बिलकुल मनुष्य के रूप में ही होगा-वैसे ही आंख, नाक, कान, दिल और दिमाग, वही चलने का तरीका और प्यार का नजरिया। यह सगुण ईश्वर है। विद्वानों ने ईश्वर को निर्गुण बना रखा है-निरगुनिया।

    ये नजरिया सिर्फ भारतीय धर्मो में शामिल नहीं है। सन 1953 में टेक्सास के अपने मशहूर सत्संग में सुविख्यात अमेरिकी इवेंजलिस्ट रेवरेंड बिली ग्राहम ने साफ तौर पर यह घोषणा की कि ईश्वर स्वर्ग में रहता है। उनकी कल्पना यह थी कि स्वर्ग न्यूयॉर्क या लंदन की तरह कोई जगह है, जहां सडकें सोने की बनी हैं और कारें हीरे-जवाहरात से तैयार होती हैं। वहां किसी को किसी तरह की मेहनत करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह स्वर्ग व ईश्वर की दुर्लभ सगुण संकल्पना थी। मैं कभी-कभी सोचता हूं कि यदि स्वर्ग ऐसा ही है तो कितनी बोरिंग जगह होगा।

    अब यह दर्शनशास्त्र का बडा महत्वपूर्ण द्वंद्व है। इस पर बडी बहसें हुई हैं। कई सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। ईश्वर निराकार भी है और साकार भी है। ईश्वर निर्गुण भी है और सगुण भी है। भारतीय धर्मो ने इसे बडे आराम से निपटाया है। अगर भगवान निराकार है, निर्गुण है तो वह सुपर ईश्वर है, उसके लिए हमने ब्रह्म शब्द चुना है-द ऐब्सलूट। अगर भगवान साकार हैं, सगुण हैं तो उनके लिए ईश्वर शब्द चुना है। ब्रह्म का केवल बोध किया जा सकता है। यही बोध आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा होगा, जिसे हम परम तत्व या अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। लेकिन सगुण ईश्वर के साथ हम रिश्ता जोड सकते हैं। यही रिश्ता भक्ति के द्वारा ईश्वर को एप्रोच करने का तरीका है। यहां ईश्वर हमारे बहुत करीब आ जाता है और हम उसे थोडा और नीचे ले आते हैं। जब ईश्वर थोडा और नीचे आता है तो अवतार के रूप में आ जाता है-कभी राम बनके, कभी श्याम बनके। यहां से एक आम आदमी के लिए ईश्वर के साथ तादात्म्य बैठाना और सरल हो जाता है। पूरी दुनिया में भक्ति की मदद से ईश्वर की निकटता आम आदमी के लिए बिलकुल ठीक-ठीक समझ में आने वाली बात हो जाती है।

    अवतार की थियरी ईश्वर का सरलीकरण है। ऐसा नहीं है कि केवल हम ही सरलीकरण के उस्ताद हैं, लेकिन दूसरे धर्मो के मुकाबले आध्यात्मिकता के मामले में हम कुछ ज्यादा ही उस्ताद हैं। अन्य धर्मो में भी ईश्वर का सरलीकरण किया गया है। ईश्वर और आध्यात्मिकता से संबंधित जितने सिंबल हैं, भारत में उनका बडा बेहतरीन प्रगटीकरण हुआ है। ईश्वर को अगर वाणी में व्यक्त करें तो वह ॐ होगा। अगर आंखों से देखने वाली किसी ऑब्जेक्टिव चीज के रूप में व्यक्त करें तो वह प्रकाश होगा। यहां तक तो सब ठीक होगा, लेकिन जो निराकार हो-जिसका कोई आकार ही नहीं है-जो दिखता ही नहीं है, फिर उसे कैसे व्यक्त करेंगे? लेकिन भारतीय आध्यात्मिकता ने निराकार को भी व्यक्त करने के कुछ तरीके सोचे होंगे।

    हमारे पुराणों में एक कथा है। एक बार भगवान शंकर की ओर उनका एक शिष्य आ रहा था। पार्वती माता ने शंकर जी की तरफ इशारा करके कहा लो तुम्हारा चेला आ गया.. उससे मिलो..। शंकर भगवान ने अपने चेले की ओर देखा और कहा, यह मेरा तीसरे दर्जे का शिष्य है। तीसरा दर्जा अर्थात थर्ड क्लास। बहुत वर्ष पहले भारत में एक समाजवादी रेलमंत्री ने तीसरा दर्जा हमेशा के लिए ख्ात्म कर दिया था। पूरी दुनिया में बचे केवल पहले और दूसरे दर्जे में पास किए जाते हैं। केवल भारत ऐसा देश है जहां लोग थर्ड क्लास में भी पास होते हैं। लेकिन शंकर भगवान के मामले में कोई थर्ड क्लास शिष्य कैसे हो सकता है? क्या भगवान के शिष्यों की भी अलग-अलग कोटि निर्धारित की जा सकती है? अब शिवजी की बात सुनकर पार्वती जी को बडा कौतूहल हुआ। तब भगवान ने कहा कि हमारा सबसे अछा शिष्य वह है जो मुझे ध्यान में स्मरण करता है। यह मेरा निराकार रूप है। इसका केवल बोध ही हो सकता है। यह पूरी तरह भावनाओं का मामला है। लेकिन यह भावना सांसारिक भावना नहीं होगी, बल्कि इसमें आध्यात्मिक अनुभव का बोध होगा।

    भगवान शंकर ने आगे कहा कि मेरा दूसरा सबसे प्रिय शिष्य वह होगा जो मेरे लिंग की पूजा करता हो और मेरा सबसे निकृष्ट शिष्य वह होगा जो मेरी मूर्ति की पूजा करता हो। शिवलिंग पूजक सेकंड क्लास शिष्य होंगे और मूर्ति पूजक थर्ड क्लास शिष्य। यही कारण है कि भारत में भगवान शंकर के लिंग के पूजन की परंपरा चल निकली है। जो परंपराओं से अपरिचित हैं, वही भगवान शंकर की मूर्ति की पूजा करते हैं। भारत के सभी प्रमुख शैव स्थल मूलत: ज्योतिर्लिग ही हैं।

    अब पार्वती जी के लिए कौतूहल था कि लिंग की पूजा करने वाला दूसरा सबसे प्रिय शिष्य कैसे है? जैसे हमारी आध्यात्मिक परंपरा में ध्यान या मेडिटेशन निराकार को प्रगट करता है, उसी तरह यहां धर्म में लिंग निराकार का प्रगट करता है। लिंग मूल रूप से एक समतल सिलेंड्रिकल आकार में पत्थर होता है। समतल सिलेंड्रिकल पत्थर में अगर कोई छेनी-हथौडा उठा ले तो किसी भी तरह के रूप को आकार दिया जा सकता है। अगर मूर्तिकला का अभ्यास किसी को हो तो वह भगवान शंकर के लिंग में छेनी-हथौडे से दुनिया के किसी भी रूप को आकार दे सकता है। इसलिए एक तरह से देखें तो लिंग जो निराकार होता है, उस पर कई आकार छिपे होते हैं।

    लेकिन शंकर इस निराकार को भी प्रथम श्रेणी में मानने के लिए तैयार नहीं थे, जबकि लिंग शंकर के निराकार रूप को प्रगट कर रहा था। क्यों? क्योंकि निराकार होते हुए उसमें एक आकार था। जब भी हम उसको किसी देवता का आकार देंगे तो हमें उसमें से पत्थरों को छीलना पडेगा। उसमें कुछ कमी आ जाएगी। इसीलिए निराकार रूप साकार रूप के मुकाबले हमेशा श्रेष्ठ होता है। निराकार को एप्रोच करने के तरीके भारतीय आध्यात्मिकता की विशिष्टता हैं। इस तरीके को ही हम ध्यान या मेडिटेशन के नाम से जानते हैं। अगर आप भगवान के पहले दर्जे के शिष्यों में शामिल होना चाहते हैं तो आपको उनके निराकार स्वरूप का बोध करना पडेगा, जो आप केवल मेडिटेशन से हासिल कर सकते हैं।

    ध्यान का अभ्यास

    हममें से कोई भी एक सरल ध्यान के अभ्यास से ही अपने आपको निराकार से जोड सकता है। ध्यान करने का सबसे सरल तरीका है किसी एकांत स्थान पर चुपचाप बैठ जाइए। फिर अपनी सांसों का बोध करना शुरू करें, जैसे ही सांसों का बोध हो, सांसों को धीमी करना शुरू करें। इसी बीच अपने निचले जबडे को हल्का सा ढीला छोडें। अपने गालों के तनाव को रिलैक्स करें। विचारों को शिथिल करने की कोशिश करें। थोडी देर में आप गहरे ध्यान में होंगे।

    पंद्रह मिनट रोजाना ध्यान करने से हममें से कोई भी स्वयं को निराकार से जोड सकता है।