मन को साधना है जरूरी
शरीर के कष्ट से बड़ा कष्ट मन का है। कहते हैं मन को साधना ही मुश्किल काम है। व्रत, उपवास, चिंतन, ध्यान, दान और प्रार्थना से मन को नियंत्रित करने की कोशिशें चलती रहती हैं। निरंतर आत्म-चिंतन और सदाचरण से चंचल मन पर नियंत्रण किया जा सकता है।

शरीर के कष्ट से बडा कष्ट मन का है। कहते हैं मन को साधना ही मुश्किल काम है। व्रत, उपवास, चिंतन, ध्यान, दान और प्रार्थना से मन को नियंत्रित करने की कोशिशें चलती रहती हैं। निरंतर आत्म-चिंतन और सदाचरण से चंचल मन पर नियंत्रण किया जा सकता है।
हृदय में ही हमारी आत्मा का निवास है। आत्मा को घेरे हुए एक चिन्मय कोष होता है, जिसे चित्त कहते हैं। चिन्मय कोष के ऊपर मनोमय कोष है। इसी को मन कहते हैं। चित्त चेतन है, मन संकल्प का केंद्र है। मन प्रेरक है। मस्तिष्क एवं इंद्रियां इसी से प्रेरित होती हैं। इसका कार्य आत्मा से प्राप्त संदेशों का क्रियान्वयन करना है। मन से प्रेरणा प्राप्त करके ज्ञानेंद्रियां एवं कर्मेंद्रियां कार्य करती हैं।
मन-शक्ति और प्राण-शक्ति
आत्मा को देखने की दो शक्तियां हैं। एक है, मन-शक्ति, दूसरी प्राण-शक्ति। मन की दो श्रेणियांं हैं-सिद्ध मन और असिद्ध मन। सिद्ध मन से ही चित्त वृत्तियों का निरोध हो सकता है। असिद्ध मन से मन शक्तियों का विकास नहीं कर सकता। मन को सिद्ध करने के लिए एक निश्चित पद्धति अपनानी पडती है।
जीवन में निरंतर प्रेरणा मिलती रहे, व्यक्ति उत्साहित रहे, आधुनिक सुख-सुविधाओं का उपयोग करता रहे, सही मार्ग पर भी चलता रहे, चिंताओं और दुख के दलदल में न फंसे, यह सब तभी संभव हो सकता है, जब वह अपने मन की शक्तियों का प्रयोग अच्छी तरह कर सके। मन की अनेक शक्तियां हैं। संकल्प मन का धर्म है, इच्छा संकल्प की जननी है। संकल्प जहां होगा, वहीं चिंतन प्रारंभ होगा और वहीं से क्रिया आरंभ होगी।
मन का धर्म है- कल्पना करना। वह अपने संकल्प के अनुसार एक लक्ष्य बनाता है। फिर संकल्प शक्ति का उपयोग करके लक्ष्य हासिल करने की दिशा में अग्रसर होता है। इच्छा-शक्ति प्रबल होती है तो लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में भी तेज्ाी आ जाती है और परिणाम भी तुरंत मिलने लगते हैं। लक्ष्य की पूर्ति जल्दी हो, उसमें एकाग्रता का भी बडा योगदान है। मन की शक्तियां इधर-उधर भटकती हैं तो उसमें बिखराव होता है। ऐसी स्थिति में लक्ष्य सिद्ध होना असंभव है। अत: मन की शक्ति को पूर्ण तन्मयता के साथ लक्ष्य की साधना में लगा कर सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।
पतन का कारण
मन कमज्ाोर होता है तो मनुष्य भोगों में फंस कर अपने जीवन को व्यर्थ कार्यों में खपाता चला जाता है। भोगों के प्रति वासना बढऩा ही पतन का कारण है। आदि गुरु शंकराचार्य ने अपने 'विवेकचूणामणि ग्रंथ में इसका बहुत सुंदर वर्णन एक श्लोक में किया है, जिसका भावार्थ यह है कि मन जब लक्ष्य से थोडा भी भटकता है, तब वह हाथ से गिरी हुई गेंद की तरह हो जाता है। जिस तरह गेंद एक बार हाथ से छूटती है तो सीढिय़ों से नीचे लुढकती चली जाती है, उसी तरह व्यक्ति का पतन भी तेज्ा गति से होने लगता है।
ज्ारूरत और इच्छा
भोग भी दो तरह का होता है। पहला है- देह भोग और दूसरा है-विषय भोग। देह भोग का अर्थ है- शारीरिक स्वास्थ्य। यह सच है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास हो सकता है। स्वस्थ शरीर के बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। कहा भी गया है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति में मूल कारण शरीर का निरोगी होना ही है।
अब बात आती है विषय भोग की। इसे हम तीन श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं। पहला व्यसन, दूसरा विषय-विकार, तीसरा वासना। कहते हैं, आशा-तृष्णा न मिटे, मिट-मिट गए शरीर। जब मनुष्य जीवन की मूल आवश्यकताओं से तृप्त होकर कई तरह की इच्छाओं-लालसाओं के चंगुल में फंस जाता है, तो विषय-शक्ति ज्ाोर मारने लगती है। वह इन इच्छाओं के बोझ तले दब जाता है और सुख उससे कोसों दूर भाग जाता है, क्योंकि तृष्णा का घडा कभी भरता नहीं है।
देह-भोग शरीर की आवश्यकता है, मगर विषय-भोग इच्छा है। आवश्यकता को इच्छा से नहीं जोडा जा सकता। इच्छा मन की वस्तु है। वह अनंत की ओर ले जाती है। आवश्यकता की पूर्ति संभव है-इच्छाओं की नहीं। व्यसन, विषय-विकार, वासना, अनैतिकता, अमर्यादित, असंयमित जीवन के दलदल में धकेल देती है।
तुलसीदास जी लिखते हैं, 'तृष्णा उदर वृद्धि अति भारी/ त्रिविधि ईषना तरुन तिजारी/
जुग विधि ज्वर मत्सर अविवेका/कह लगि कहां कुरोग अनेका....।
तृष्णा (अधिक की इच्छा) यानी अधिक खाने से पेट निकलता है। मोटापा एक भारी रोग है। प्रसिद्धि, धन, पुत्र जैसी तमाम इच्छाएं प्रबल हैं। मत्सर अविवेक भी ज्वर का रोग है। ये सभी मन के रोग हैं।
मन को जीतना है ज्ारूरी
मन ही सुख-दुख एवं मोक्ष का कारण है। मन पर विजय पाना आवश्यक है। कहा गया है, जिसने मन को जीत लिया, उसने संसार को जीत लिया। मन की पवित्रता से मनोविकारों से मुक्ति मिलेगी। मन को पवित्र करने के लिए वस्तुओं एवं व्यक्तियों के त्याग की नहीं, बल्कि इनसे उपजी वासना और सांसारिकता का त्याग करने की ज्ारूरत है। जैसे-जैसे जीवन में संतोष एवं त्याग बढेगा, मन पवित्र होता जाएगा और जीवन में ख्ाुशियां बढती जाएंगी।
मन को पवित्र करने का सबसे सुंदर उपाय आंतरिक निरीक्षण है। दोषों एवं विकारों का सूक्ष्म निरीक्षण करें और उसे धीरे-धीरे मिटाते चलें। इससे समस्त विकार जैसे, भय, चिंता, विषाद, ईष्र्या, घृणा, काम, क्रोध, लोभ, मोह से दूर होते चले जाएंगे।
व्रत-तप और दान का महत्व
शारीरिक कष्ट से बडा मन का कष्ट होता है। इस कष्ट से मुक्ति के लिए मन, वचन और कर्म की एकता आवश्यक है, तभी कष्टों से मुक्ति संभव है। मन बडा वेगवान है। उसके निग्रह के उपाय में व्रत-तप और दान का महत्व है। व्रत में हम साधना करते हैं कि इच्छाओं पर संयम कैसे रखा जाए। इसमें अनुपयोगी और अनुपयुक्त इच्छाओं की छंटनी किए जाने का मार्ग प्रशस्त होता है। इससे भी मन की पवित्रता, स्वास्थ्य और शक्ति मिलती है, दुर्बल मन बलवान बनता है। प्रार्थना का भी इसमें बडा योगदान है।
दान से विषय-वासना क्षीण होती है और जीवन में संतोष एवं त्याग की वृद्धि होती है। यदि यह मान लें कि समस्त अर्जित धन भगवान का दिया है तो इससे तुरंत धन के मोह पर नियंत्रण हो जाता है। व्यक्ति अपने लिए आवश्यक धन से अधिक धन का दान करता है और उसे सेवा में लगा देता है। उपवास, यज्ञ, हवन सब कर्म तप के अंतर्गत आते हैं। इससे भी मन बलवान एवं पवित्र होता है। धर्म के अनुसार आचरण एवं सदाचार का पालन चंचल मन से मुक्ति प्रदान करके सुखमय जीवन के पथ को प्रशस्त करता है।
फतेह बहादुर सिंह
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