कर्म में योग का महत्व
योग के माध्यम से मनुष्य मानसिक, शारीरिक, आत्मिक और आध्यात्मिक स्तर पर स्वस्थ रहता है। वह अपने कर्मों और इंद्रियों को वश में कर सकता है। इसीलिए कर्म योग में ईश्वर का ध्यान आवश्यक है और कर्म योग का मार्ग ध्यान मार्ग से ही होकर जाता है।
योग के माध्यम से मनुष्य मानसिक, शारीरिक, आत्मिक और आध्यात्मिक स्तर पर स्वस्थ रहता है। वह अपने कर्मों और इंद्रियों को वश में कर सकता है। इसीलिए कर्म योग में ईश्वर का ध्यान आवश्यक है और कर्म योग का मार्ग ध्यान मार्ग से ही होकर जाता है।
योग का हमारे जीवन में अत्यधिक महत्व है। इससे मनुष्य अपने कर्मों को वश में करके प्रभु केबताए रास्ते पर चल कर अपने भविष्य को सुंदर बना सकता है।
ईश्वर हर जगह विद्यमान है, यह सभी जानते हैं। इस कारण मनुष्य को ऐसे स्थान का चयन करना आवश्यक है, जिससे कि मनुष्य अच्छे और बुरे कर्मों का अंतर समझ सके। यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि कर्म योग का मार्ग ध्यान योग से ही प्रारंभ होता है। इसी कारण कर्म योग में भगवान में ध्यान का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।
गीता में कर्म की व्याख्या
श्रीमद्भगवद् गीता के अध्याय छह में कर्म योग पद्धति की विशेष रूप से संस्तुति की गई है। भगवान इस बात पर बल देते हैं कि कर्म योग की प्रक्रिया भक्ति-भाव है। अर्थात कृष्ण भाव में किया गया कर्म श्रेष्ठ कर्म होता है। इस संसार में प्रत्येक मनुष्य अपने और अपने परिवार के पालन एवं देखभाल के लिए, निजी स्वार्थ पूर्ति केे लिए अथवा निजी इंद्रिय अथवा काम पूर्ति हेतु कर्म करता है। भले ही वह स्वार्थ पूर्ति के लिए हो या समाज के हित के लिए, लेकिन कृष्ण भाव में रहकर किया गया कर्म ही श्रेष्ठ कर्म होता है। इसका यह भी तात्पर्य है कि कर्म बिना किसी फल की कामना द्वारा होना चहिए।
कृष्ण भाव में रह कर कार्य करना प्रत्येक मनुष्य का धर्म एवं कर्तव्य होता है। यही श्रेष्ठ कर्म योग है। लोग कहते हैं कि भगवान का ज्ञान होने से कोई लाभ नहीं होता, परंतु यह अज्ञानता अथवा घमंड का लक्षण है। सबसे पहले तो जानें कि मानव प्रभु का ही अंश है। यानी मनुष्य तो मनुुष्य ही रहेगा और प्रभुु भी प्रभु ही रहेंगे। यानी प्रभु के ध्यान योग में किया गया कर्म ही श्रेष्ठ कर्म योग होगा। बिना ध्यान योग के श्रेष्ठ कर्म योग का फल न तो बनेगा और न ही प्राप्त हो सकेगा।
ध्यान योग में कर्म
कर्म में ध्यान रखना होगा कि प्रभु अपने स्थान पर ही विराजमान रहेंगे और मानव अपने स्थान पर ही विराजमान रहेगा। शास्त्रों में यही कहा गया है कि प्रभु के ध्यान योग में रह कर अगर कोई कर्म किया जाता है तो ऐसा मनुष्य उच्च एवं श्रेष्ठ कर्मों को करते हुए उच्च योनि में जन्म लेता है या जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर मुक्ति को प्राप्त होता है।
अत: ध्यान योग में कार्य करने से श्रेष्ठ कर्म योग बनता है। जिस प्रकार शरीर के अंग अपनी-अपनी तुष्टि के लिए कार्य नहीं करते बल्कि पूरे शरीर की तुष्टि केे लिए कार्य करते हैं, उसी तरह इंसान को भी निजी स्वार्थ पूर्ति के लिए कार्य न करके पूर्ण परमात्मा पुरुषोत्तम एवं समस्त सृष्टि के लिए कार्य एवं कर्म करना ही श्रेष्ठकर होता है। इस तरह से कर्म योग करने वाला व्यक्ति ही पूर्ण रूप से सिद्ध योगी बन जाता है तथा उसको श्रेष्ठ मानव माना जाता है।
कौन है संन्यासी
कर्मों में पाप और पुण्य का योग सदैव चलता रहता है। सुख और दुख का भी योग सदैव चलता रहता है, लेकिन जो कर्म योग ध्यान योग के साथ किया जाता है उसमें मनुष्य सुख एवं दुख के कुचक्र से भी मुक्त रहता है। ध्यान योग को भूल कर कर्मयोग करने वाला व्यक्ति कभी सुखी नहीं रह सकता है।
श्रीमदभगवद् गीता के छठे अध्याय में जोकि प्रसिद्ध सांख्य योग को वर्णित करता है, प्रथम श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-अनाश्रित: कर्मफलं कार्य कर्म करोति य:
स संन्यासी च योगी च न निरग्निनर्न चाक्रिय:।
अर्थात जो पुरुष अपने कर्म फल के प्रति अनासक्त है और जो अपने कर्तव्य का पालन करता है, वही संन्यासी और योगी है। वह व्यक्ति संन्यासी नहीं हो सकता, जिसने अग्नि को त्याग दिया हो या जो कर्म ही न करता हो।
यदि कोई व्यक्ति योग के नियामक सिद्धांतों के अनुसार कर्म करता है, वह अनेक प्रकार की सिद्धियां प्राप्त करता है। हालांकि इस तरह के शक्तिशाली कर्मयोगी अत्यंत दुर्लभ होते हैं, किंतु वे मानव समाज में विद्यमान रहते हैं। भक्ति-योगी और ध्यान-योगी नि:स्वार्थ भाव से पूर्ण समाज की तुष्टि के लिए कर्म करता है और आत्म-तुष्टि की कामना नहीं करता। उसकी सफलता की कसौटी ध्यान योग के द्वारा प्रभु की तुष्टि होती है, वह कर्म योग के अनुसार श्रेष्ठ कर्म होता है।
अज्ञानता से विफलता
यदि कोई व्यक्ति यह सोचता है कि वह अपने कार्य स्वयं करने में सक्षम है या वह हर चीज्ा अपने बलबूते प्राप्त कर सकता है तो यह उसकी अज्ञानता एवं अहंकार है। अगर किसी इंसान की एक उंगली उसके शरीर से काट कर अलग कर दी जाती है तो वह बेकार हो जाती है। ठीक इसी तरह अगर कोई इंसान ध्यान योग को भूल कर, अकेले ही कर्म योग में भाग लेता है तो वह सदैव ही विफल रहेगा।
कर्म का अर्थ क्रियाशीलता से होता है। ख्ााली बैठ कर सिर्फ भगवान का ध्यान करना क्रियाशीलता या कर्मशीलता नहीं होती है। हमारे पास जो भी ऊर्जा और संसाधन हैं, उन्हें प्रभु का ध्यान करते हुए, कर्म में भाग लेना ही उचित कर्म योग होता है।
योग और कर्म एक-दूसरे से परस्पर जुडे हुए हैं। योग एवं कर्म के माध्यम से ही सर्वोपरि सत्ता से जुडकर परम आनंद की प्राप्ति होती है तथा उस व्यक्ति को संपूर्ण तुष्टि की प्राप्ति होती है। योग पद्धति की तुलना सीढी से की जा सकती है। अपने कर्म द्वारा जब इंसान सबसे ऊपर के सोपान पर पहुंच जाता है तो उसे परम आनंद की प्राप्ति होती है।
कर्म और योग का मिश्रण
श्रीमद्भगवद् गीता में श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन युद्ध अर्थात कर्म करने से विचलित होता है तो प्रभु श्रीकृष्ण गीता ज्ञान से अर्जुन को कर्म अर्थात युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं। यही कर्म की सही प्रेरणा है। हमें उन कर्मों से दूर रहना चाहिए, जो हमारी चेतना, ज्ञान एवं ध्यान योग में बाधक हैं। योग का सही ज्ञान एवं पालन, समस्त व्यर्थ के कर्म से हमारा ध्यान दूर रखता है। ऐसा ज्ञान इंसान को कर्म और योग के मिश्रण से परम आनंद प्रदान करता है। आनंद कभी ग्ालत ढंग से नहीं प्राप्त किया जा सकता है। आनंद तो सागर के समान होता है। इंसान जितना क्रियाशील होकर सागर के समान अपने कर्म और योग में मंथन करेगा, उतना ही उसे परम आनंद की प्राप्ति होगी।
बात एक बार की
तीन यात्री एक पेड के नीचे विश्राम कर रहे थे। उनके कंधों पर दो झोले थे, एक आगे और एक पीछे। तीनों में एक काफी उत्साहित दिखता था। दूसरा थका था, लेकिन चेहरे पर आशा दिखती थी, जबकि तीसरे का चेहरा मुरझाया हुआ था। तीनों एक-दूसरे को बताने लगे कि कौन हैं, क्या करते हैं, कहां जा रहे हैं और उनके झोलों में क्या है। एक ने बताया कि उसने पीछे के झोले में दोस्तों-संबंधियों की अच्छाइयां भरी हैं और आगे के झोले में उनकी बुराइयां हैं। दूसरे ने आगे बुराइयां भरी थीं और पीछे अच्छाइयां,आगे देख कर वह ख्ाुश होता। तीसरे यात्री का आगे का झोला काफी भरा था और पीछे का हलका। पूछने पर उसने मुस्कराते हुए कहा कि उसने भी अच्छाइयों की थैली आगे और बुराइयों की थैली पीछे लटका रखी है, लेकिन पीछे की थैली में छेद है, जिससे बुराइयां टिकती नहीं और गिरती जाती हैं, इससे झोले का वज्ान हलका रहता है। यह यात्री सदा उत्साहित दिखता था। जिस यात्री के आगे के झोले में अच्छाइयां और पीछे बुराइयां थीं, वह प्रसन्न रहता था, क्योंकि चलते समय उसकी नज्ार अच्छाइयों पर रहती थी और वह बुराइयों को भूला रहता था। जिसने बुराइयों को आगे रखा था, वह दुखी रहता था। निहितार्थ यह है कि हमेशा दूसरों की बुराइयां देखेंगे तो ख्ाुश नहीं रह सकेंगे। हर इंसान में कोई न कोई अच्छाई होती है, उसकी सराहना करें और बुराइयों को भूल जाएं, यही बेहतर रिश्तों का सार है।
डॉ. योगेश कुमार शर्मा