नहीं भूलती वो बचपन की सहेली
कुछ लोग अपनी गलतियों को सहजता से स्वीकार नहीं पाते। ऐसी स्थिति में जब भी उन्हें नाकामी मिलती है तो उसके लिए वे स्थितियों को जिम्मेदार ठहराते हैं। ऐसे ...और पढ़ें

जब भी मैं यह कहावत सुनती हूं तो मुझे बरबस अपने बचपन की सहेली निशा (परिवर्तित नाम) की याद आ जाती है।
मेरी वह दोस्त बेहद खूबसूरत थी, लेकिन पढाई और एक्स्ट्रा कैरिकुलर एक्टिविटीज में उसे जरा दिलचस्पी नहीं थी। निशा अकसर दूसरी लडकियों से कहती थी कि मैं बडी आसानी से किसी भी प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त कर सकती हूं, लेकिन जानबूझकर भाग नहीं लेती। मुझे मालूम है कि अमी की मम्मी यहां टीचर हैं और वह कभी भी मुझे फर्स्ट नहीं आने देंगी। उसकी ऐसी बातों से मुझे बहुत दुख पहुंचता था, लेकिन वह अपनी ऐसी हरकतों से बाज नहीं आती। उसकी जली-कटी बातें सुनकर मुझे बहुत दुख होता था। ऐसे में मां को मेरी मनोदशा का अंदाजा हो गया।
एक रोज हिंदी व्याकरण की किताब से मां मुझे कुछ मुहावरों और कहावतों के अर्थ समझा रही थीं। उसी क्रम में मेरे सामने नाच न जाने आंगन टेढा वाली कहावत आई। जब मैंने मां से पूछा तो उन्होंने इसका अर्थ समझाते हुए मुझसे कहा कि जिन लोगों को कोई काम नहीं आता वे दूसरों के कार्यो में गलतियां ढूंढते हैं और अपनी सारी नाकामियों के लिए दूसरों को दोषी ठहराते हैं। ऐसे लोगों की बातों को दिल पर नहीं लेना चाहिए, बल्कि ऐसी नकारात्मक बातों को चुनौती मानते हुए हमें दोगुने उत्साह से अपना कार्य करना चाहिए।
मां की इस सीख को मैंने पूरी तरह आत्मसात कर लिया और ऐसी नकारात्मक बातों को भूलकर केवल पढाई पर अपना ध्यान केंद्रित किया।
बारहवीं की परीक्षा में मुझे बहुत अच्छे अंक प्राप्त हुए। इसके बाद आगे की पढाई के लिए मैं आगरा चली गई। इसी बीच मेरी उस दोस्त की शादी हो गई, पर उसके साथ मेरा संपर्क बना रहा। वक्त बीतने के बाद भी उसकी फितरत नहीं बदली थी। जब मैं हॉस्टल जा रही थी तो निशा ने व्यंग्य से कहा, अब तुम्हें पता चलेगा क्लास में फर्स्ट आना कितना मुश्किल है। उसकी यह बात मेरे दिल पर लग गई। मैंने दृढ निश्चय किया कि अब मुझे हर हाल में फर्स्ट आना है। इसी बीच सन 2000 में दिल्ली स्थित नेहरू युवा केंद्र की स्वर्ण शताब्दी के उपलक्ष्य में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम में मुझे प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ। कार्यक्रम की तसवीर अखबारों में भी छपी थी। उसे देखकर निशा ने मुझे बधाई दी। उसने कहा कि मेरे मन में तुम्हारे प्रति गलत भावना थी, तभी मैं तुम्हारी बुराई करती थी। तुम वास्तव में काबिल हो। तभी तो तुम्हें यह पुरस्कार मिला। तब मैंने उसे अपनी मां की सीख के बारे में बताया कि अगर तुम्हें कोई कार्य नहीं आता तो उसे सीखने की कोशिश करो। कभी भी अपने अंदर नाच न जाने आंगन टेढा वाली भावना को पनपने मत दो। मेरी बातों को गंभीरता से लेते हुए निशा ने ब्यूटीशियन का कोर्स किया और आज वह भी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन गई है।
मनोविज्ञान की नजर में
नाच न जाने आंगन टेढा एक ऐसा मुहावरा है, जो रैशनलाइजेशन नामक डिफेंस मेकैनिज्म को दर्शाता है। इसके तहत व्यक्ति अपनी गलतियों या असफलताओं को तार्किक ढंग से छिपाने की कोशिश करता है। उसे अपने इस व्यवहार का खुद ही अंदाजा नहीं होता। उसके मन में यह प्रक्रिया अवचेतन रूप से चलती रहती है, जो व्यक्ति को हताशा, डिप्रेशन और कई तरह की गंभीर मनोवैज्ञानिक समस्याओं से बचा लेती है। दिक्कत तो तब शुरू होती है, जब व्यक्ति सचेत ढंग से ऐसे व्यवहार को अपनी आदत बना लेता है। फिर वह अपनी गलतियों को सुधारने के बजाय उसका सारा दोष स्थितियों पर डालकर समस्याओं से बच निकलने की कोशिश करता है। इससे उसका आत्मविश्वास कमजोर पडने लगता है और मन में हीन भावना घर कर जाती है, जो उसके मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत नुकसानदेह साबित होती है।
ऐसे लोगों के साथ सबसे बडी दिक्कत यह होती है कि वे अपनी समस्या को आसानी से स्वीकार नहीं पाते। ऐसी स्थिति में परिवार के सदस्यों की यह जिम्मेदारी बनती है कि उनके साथ सहयोग पूर्ण रवैया अपनाते हुए सबसे पहले उन्हें उनकी समस्या से परिचित कराएं। उसके बाद उसे समस्या का हल ढूंढने के लिए प्रेरित करें। सबसे पहले ऐसे लोगों को अपनी गलतियां स्वीकारने की कोशिश करनी चाहिए। किसी नाकामी पर बहुत ज्यादा पछताने या शर्मिदगी महसूस करने से कोई फायदा नहीं होता। भलाई इसी में है कि नकारात्मक बातों को भूल कर जीवन में सिरे से आगे बढने का प्रयास किया जाए। अगर व्यक्ति अच्छी सोच के साथ अपने भीतर बदलाव लाने की कोशिश करे तो यह समस्या आसानी से हल हो जाती है।
डॉ. अशुम गुप्ता, मनोवैज्ञानिक सलाहकार

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