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    ..जड़मति होत सुजान!

    By Edited By:
    Updated: Fri, 02 Aug 2013 12:24 AM (IST)

    दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो कहते हैं कि हमें सबका भला करना चाहिए, पर सयाने वही माने जाते हैं जो सिर्फ कहते हैं। करने वाले तो होते ही नादान हैं और ये नादान भी एक दिन सुजान हो जाते हैं। कैसा लगता है तब, दिलचस्प अनुभव।

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    अभ्यास बडी बुरी चीज है। इससे जड बुद्धि वाला आदमी भी सुजान हो जाता है और सुजान होना इस जमाने में बडा बुरा है। वैसे बेवकूफरहना बडा फायदेमंद है। सुख उसी आदमी को मिलता है जो मूर्ख होता है। इस समय मेरी परेशानी के मुख्य कारण वर्मा जी हैं, जो पिछले एक वर्ष से सुजान हो गए हैं। पहले मेरी कई बातें वे समझ नहीं पाते थे। जबसे उनकी पत्नी आई हैं, उनका सामान्य ज्ञान बढता चला गया है। वे मुझसे भी आगे निकल गए।

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    उस दिन मुझे बडा धक्का लगा, जब मुझे यह जानकारी हुई कि वर्मा जी सुजान हो गए हैं। हुआ यों कि एक दिन मैंने वर्मा जी के सामने प्रस्ताव किया कि कॉलोनी में हरि कीर्तन का आयोजन पहले की तरह उनके घर कर लिया जाए तो उन्होंने दोनों हाथों से इनकार कर दिया। मैंने कहा, कमाल करते हैं आप वर्मा जी, भगवान के नाम पर भी मना करते हैं! धर्म के लिए पीछे नहीं हटना चाहिए।

    वर्मा जी बोले, अजी आत्मा में दया-धर्म, प्रेम भाव रखें, यही सबसे बडा धर्म है। कीर्तन करने से कोई लाभ नहीं। यदि अनिवार्यता है ही, तो आप अपने घर रख लें।

    यह उत्तर सुनकर मेरे तो हाथों के तोते उड गए। वर्मा जी को जब भी कोई काम कहा, उन्होंने कभी इंकार नहीं किया। आज उन्होंने साफ इनकार कर दिया, माजरा समझ में नहीं आया। मैंने कहा, वर्मा जी आपको पता है कि आप कह क्या रहे हैं?

    हां, मुझे अच्छी तरह पता है कि मैं अपने घर से हरि कीर्तन करने की मनाही कर रहा हूं। शायद आपको तो पता ही नहीं है कि पिछले सात वर्षो में जो भी कीर्तन हुआ, मेरे यहां ही हुआ। कभी आपने कहीं और करवाने का प्रस्ताव ही नहीं किया, वे बोले।

    मैंने कहा, वह तो इसलिए कि आपको अच्छा अभ्यास हो गया है। आप ठीक से संपन्न करवा देते हैं।

    शर्मा जी, अभ्यास से ही तो ज्ञान होता है। सात साल अभ्यास के बाद मुझे ज्ञान मिला कि यह परंपरा डाल ली है मैंने। बस अब और नहीं।

    वर्मा जी के जवाब से मैं तिलमिला गया, आपको एकाएक हो क्या गया?

    तभी वर्मा जी की पत्नी निकल आई। उनके तेवर तो और भी खतरनाक थे, अरे शर्मा जी! जाइए किसी और को मूर्ख बनाइए। मैं बाहर क्या रही आपने इन्हें सात साल बेवकूफ बनाकर आयोजनों के नाम पर पैसा बरबाद करवाया और कॉलोनी में वाहवाही खुद लूटी। सामाजिक कार्यकर्ता आप बने, वोट आपने लिए और राजनीतिक प्रभाव आपने बढाया।

    मैंने कहा, आप कह क्या रही हैं श्रीमती वर्मा? कीर्तन के पीछे आप राजनीति घसीट रही हैं? भला सोचिए, इस विशुद्ध धार्मिक कार्यक्रम में राजनीति का क्या लेना-देना?

    तो फिर आप कीर्तन के उद्घाटन के लिए मंत्री जी को क्यों बुलाते रहे? वे बोलीं।

    मुझसे जवाब देते नहीं बना तो वर्मा जी सुजान की तरह हंसे और बोले, जाइए शर्मा जी, किसी और को ढूंढिए।

    सुनकर मैं लौट तो आया, परंतु मन वर्मा के सुजान हो जाने से परेशान था। मैंने घर आकर श्रीमती जी से बताया तो वह भी बडी दुखी हुई। धार्मिक कार्यक्रमों के ही कारण कॉलोनी में उनकी धाक है। उन्हें लगा, वर्मा जी ने कीर्तन नहीं कराया तो सारा भार अपने घर आ गिरेगा। या फिर कीर्तन हो ही नहीं सकेगा। तरह-तरह की बातें होने लगेंगी। पत्नी ने मुझसे कहा, आपने वर्मा जी को कुछ कह तो नहीं दिया था?

    अजी, मैं सबसे ज्यादा मान-सम्मान वर्मा का ही किया करता था, पर हुआ यह कि पूरे सात साल लगातार कीर्तन केवल उसके यहां कराना ही खतरनाक साबित हो गया। हमने इस बीच कोई नए ग्राहक नहीं तलाशे। बस करत-करत अभ्यास के जडमति होत सुजान वाली बात हो गई। जरा सी भूल ने हमारी जेब पर कहर ला दिया। लगता है, इस बार या तो खर्च अपनी जेब से होगा या फिर चंदा करना पडेगा।

    पत्नी बोली, वर्मा जी से दाल नहीं गली थी तो श्रीमती वर्मा से बात करते।

    श्रीमती वर्मा ही तो वर्मा को सुजान बनाने के लिए जिम्मेदार हैं। वर्मा बेचारा ऐसा नहीं था। ओह आइ सी, देखें मैं जाकर एक बार कोशिश करती हूं। मेरी पत्‍‌नी वर्मा जी के घर जा धमकीं और छूटते ही बोलीं, आपने हरि कीर्तन के लिए मना कर दिया वर्मा जी?

    वर्मा जी घुटे हुए खिलाडी की तरह बोले, जी हां, और मैं यह भी कह चुका हूं कि अब कभी नहीं करूंगा यह बेवकूफी।

    सात साल से आपके यहां हो रहा है। अब कैसे बदला जा सकता है? मेरी पत्‍‌नी ने भी चालाक गेंदबाज की तरह गेंद मारी।

    अजी क्या हुआ, आप करवा लीजिए न!

    आप समझते क्यों नहीं वर्मा जी? सबको पता है कि कीर्तन आपके यहां ही हुआ करता है। सबको 23 तारीख बताई जा चुकी है। आज 21 हो गई। एकाएक स्थान बदलना संभव नहीं है। इस साल आप करवा लीजिए। अगले वर्ष से बदल देंगे। पत्‍‌नी की बात सुन कर मैं भी अचंभित हुए बिना न रह सका। वह मुझसे कई सौ कदम आगे दिखीं।

    वर्मा तो लाल-पीले, आप तो ऐसे कह रही हैं जैसे मैंने ठेका लिया है आपके कीर्तन का? सात साल करवा दिया तो कहती हैं कि पहले शुरू ही क्यों किया था।

    आखिर श्रीमती वर्मा भी चुप नहीं रह सकीं, आप अपना आयोजन अपने घर ही करिए।

    मेरी पत्‍‌नी ने पैंतरा बदला, ऐसा था श्रीमती वर्मा, वह क्या था कि मंत्री जी को यहां का ही समय दे दिया है। स्थान बदलने में आपकी और हमारी दोनों की भद्द होगी। इसलिए कीर्तन तो आपको ही कराना होगा।

    देखिए, हम आपकी चिकनी-चुपडी बातों या धमकियों में नहीं आने वाले, श्रीमती वर्मा की प्रतिज्ञा सुनकर मेरा व पत्‍‌नी का दिल दहल गया। हम निराश लौट आए। एक-दो जगह टोपी पहनाने की और चेष्टा की, पर सफलता नहीं मिली। पूरी कॉलोनी सुजान हो गई थी। धार्मिक अनुष्ठान की आड में जो वोट बैंक सिक्योर था, वह मुझे डगमगाता सा दिखा।

    अगले दिन पूरी कॉलोनी में कीर्तन स्थगित कराने की घोषणा करनी पडी। कोई जडमति न मिलने से नई तारीख भी तय नहीं हो पा रही। ध्यान बार-बार वर्मा जी पर ही ध्यान जाता है, पर वह तो सुजान हो गए हैं।

    यकायक मेरा ध्यान दीपक जी की ओर गया। मैंने रसोई में कार्य निपटा रही पत्‍‌नी को बुलाया और कहा, एक लास्ट चांस और है।

    कोई बच गया है क्या? मान जाए तो नाक बच जाये। बताइए कौन है? पत्नी ने पूछा।

    मैंने कहा, दीपक जी के यहां चलते हैं, वे जरूर कोई रास्ता निकालेंगे। हम दोनों दीपक जी के निवास पर जा धमके।

    दोनों को एक साथ देखकर दीपक जी मंद-मंद हंसते हुए बोले, अरे भाई शर्मा, क्या बात है? कीर्तन की बात बनी नहीं क्या?

    मैंने स्वीकार किया, सच कहा आपने। वर्मा जी ने चारों हाथों से मना कर दिया है। मैंने सभी प्रकार से बहुतेरा समझाया, पर वो मान ही नहीं रहे हैं।

    मुझे सब पता है भाई। कोई बात नहीं बेचारा वर्मा भी क्या करे? सात साल से तुम्हारा बोझ ढो रहा है छोडो उसे, इस साल मैं करा दूंगा। मेरे मुंह से अनायास निकला, आप कराएंगे? लेकिन आप तो हमेशा दूसरों को प्रेरित करते हैं। फंड कहां से आएगा?

    उसकी चिंता मेरी है। देखो शर्मा, भ्रष्टाचार का युग है, भगवान के कीर्तन के लिए भी रास्ता निकालेंगे। पर अगले वर्ष की गारंटी मैं नहीं ले सकता। मेरे पास नागरिक विकास समिति का डेढ-दो लाख पडा है। उसमें से लगा देंगे। अभी तक मुझसे हिसाब मांगने की हिम्मत किसी ने की नहीं है। भगवान का काम है, मैं तुम्हें पचास हजार दे दूंगा। इससे ज्यादा मैं नहीं कर पाऊंगा।

    खर्च तो 70-80 हजार होगा। बाकी का क्या होगा?

    भाई कम बजट में काम चलाओ। मेरे भी बाल-बच्चे हैं, मैं तो जनसेवा से ही कमाता-खाता हूं। यह तो मेरी भलमनसाहत है कि मैं पचास हजार दे रहा हूं। ज्यादा करना है तो अपनी गांठ का खर्च करके देखो।

    ठीक है बन जाएगा काम, मैं कह कर लौट तो आया, पर कॉलोनी के सुजान हो जाने का रंज मुझे अब भी था।

    पूरन सरमा

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