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    आध्यात्मिकता के लक्षण

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    Updated: Sat, 01 Feb 2014 02:19 PM (IST)

    आध्यात्मिकता कोई पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि एक विलक्षण अनुभव है। इस अनुभव के लक्षण बता रहे हैं वैज्ञानिक चेतना संपन्न साधक श्री हनुत श्री।

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    हम में से हर कोई ईश्वर की बात करता है। आप ईश्वर के समर्थक हों या विरोधी उसकी चर्चा जरूर करेंगे। ईश्वर एक ऐसा नायक है, जो दिखता तो नहीं है, लेकिन सबसे ज्यादा महिमामंडित है- अनसीन बट ओवर संग हीरो। जो लोग ईश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें आस्तिक कहा जाता है और जो विश्वास नहीं करते, नास्तिक कहलाते हैं। आस्तिक और नास्तिक लोगों में बदलाव होता रहता है। जो कल तक आस्तिक थे, वे अचानक नास्तिक में बदल जाते हैं और जो कल तक नास्तिक थे वे अचानक ईश्वर की महिमा गाने लगते हैं। इस नौटंकी को देखकर ईश्वर जरूर हंसता होगा।

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    आस्तिकता और नास्तिकता पारस्परिक विनिमय का मामला है। इन्हीं अर्थो में मैं नास्तिकता को एक लेबल मानता हूं। आज कोई नास्तिकता के लेबल में अपना कॉलर ऊंचा करके घूम रहा होता है। कल वही शख्स अचानक इतना आस्थावान बन जाता है। यही लेबल है। लेबल बदल गया तो आस्था बदल गई।

    दुनिया भर के लोग ईश्वर को कैसे लेते होंगे? ईश्वर को आमतौर पर दो तरीके से स्वीकार किया जाता है- पहला ईश्वर को मानना और दूसरा ईश्वर को जानना। मानना का अर्थ है- हमने कभी ईश्वर को देखा तो नहीं है, लेकिन सुना है कि उसका अस्तित्व है और हम इसी से कन्विंस होकर ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर लेते हैं। चलो लोग कहते हैं कि ईश्वर है तो मान लेते हैं। हमारे धरती पर पैदा होने के कुछ समय बाद ही मानने की यह प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इस अर्थ में देखें तो मानना बिना अनुभव की स्वीकार्यता है- एक्सेप्टेंस। हम सारे लोग इतने सरल हैं कि किसी के मुंह से सुनते हैं तो मान ही लेते हैं कि ईश्वर होगा। अब उसकी तलाश करने के पचडे में कौन पडे। फिर हम अपनी प्रार्थनाएं, अपनी संवेदनाएं, अपने दुख, अपनी मुसीबतें ईश्वर के साथ साझा करने लगते हैं। दुनिया में ईश्वर को मानने वालों की संख्या भी लगभग सौ प्रतिशत है।

    ईश्वर को स्वीकार करने का दूसरा तरीका है उसको सचमुच जानना - रीअलिजेशन। हममें से कुछ ही लोग ईश्वर का बोध कर पाते हैं या शायद ईश्वर जैसी किसी शक्ति का बोध कर लेते हैं। या फिर कुछ ऐसे स्टेट्स का बोध करते हैं, जिनके लिए कैवल्य, निर्वाण या मोक्ष जैसे शब्द इस्तेमाल होते हैं। जब कोई ईश्वर की शक्ति का बोध करता है, तो वह बुद्ध कहलाता होगा। यह जानना जो है, मानने से अलग घटना है। जब दुनिया भर में ईश्वर को मानने वाले सौ प्रतिशत हैं तो स्वाभाविक है कि जानने वालों की संख्या न के बराबर होगी।

    जो ईश्वर को जान जाता है, वह प्रबुद्ध हो जाता है और जो जानने की कोशिश करता है वह आध्यात्मिक हो जाता है। जब हम धार्मिक होते हैं तो केवल ईश्वर को मानते हैं, लेकिन आध्यात्मिक होते ही हम ईश्वर को जानने की कोशिश करने लगते हैं। यही कारण है कि धर्म में अनुयायी होते हैं, लेकिन अध्यात्म में साधक होते हैं। धार्मिकता की शुरुआत पैदा होते ही हो जाती है, जबकि आध्यात्मिक हमें बनना पडता है।

    पिछले दिनों मैं एक भद्र महिला से मिला, जिन्होंने बताया कि वे बहुत आध्यात्मिक हैं। उन्होंने अपने आध्यात्मिक होने का कुछ विवरण भी दिया और अपनी कुछ ऐसी दिनचर्या के बारे में बताया जिसे सुनकर कोई भी व्यक्ति यह कह सकता है कि एक ख्ास संदर्भ में वे आध्यात्मिक हो सकती हैं। लेकिन अगर कोई आध्यात्मिकता से गहरे से परिचित हो तो इस तरह के विचारों को केवल फैशन स्टेटमेंट माना जाएगा। यह आध्यात्मिकता को फैशनेबल ढंग से पेश करने की एक कोशिश होती है। ठीक वैसे ही जैसे किसी महिला ने अपने परिधानों की बात की, या किसी पुरुष ने अपनी बडी-बडी मूछों की प्रशंसा की हो। ये मामले फैशन स्टेटमेंट के ऊपर नहीं जा पाते। इसलिए हमारे लिए यह समझना बहुत आवश्यक होगा कि संतजन और वैज्ञानिक बिरादरी आध्यात्मिकता को किस नजरिये से देखती है। पूरी दुनिया में इस बात को लेकर वाद, विवाद और संवाद होते रहते हैं। आध्यात्मिकता की शुरुआत हम किसे मानेंगे। आखिर वे कौन से लक्षण हैं, जिनके आधार पर हम कह सकते हैं कि कोई व्यक्ति आध्यात्मिकता की राह पर चलना शुरू कर चुका है। साधु-संत भी इस लक्षण की तलाश में रहते हैं और शोध करने वाले वैज्ञानिक भी। आध्यात्मिकता के लक्षण के रूप में संत समाज और वैज्ञानिक कुछ बातों को लेकर मोटे तौर पर सहमत हैं। पहला हम आध्यात्मिक तभी माने जाएंगे, तब हम ईश्वर के प्रति गहरे जुडाव का बोध करेंगे- सेंस ऑफ कनेक्टिविटी। दूसरा ईश्वर की उपस्थिति को लेकर प्रच्छन्न बोध- सेंस ऑफ प्रजेंस। और तीसरा लक्षण ईश्वर की उपस्थिति को लेकर हैरान होने का भाव- फीलिंग ऑफ ओवर ऑनेस।

    ये तीन बातें जो आमतौर पर संत समाज ही मानता आया है, इसको लेकर पिछले दिनों पश्चिम में एक अकादमी शोध हुआ। आमतौर पर वैज्ञानिक, साधु-संतों की इस तरह की बातों पर काम नहीं करते। लेकिन इस शोध में साधु-संतों की कुछ दुर्लभ बातों का समर्थन हुआ है और आध्यात्मिकता की कुछ दुर्लभ बातों का समर्थन हुआ है। आमतौर पर माना जाता है कि जब हम परेशान होते हैं तब ईश्वर को ज्यादा याद करते हैं। लेकिन शोध की वास्तविकता में ऐसा नहीं कहा गया है। इस शोध में बताया गया कि जब हम किसी भी चीज को लेकर विस्मयकारी और हैरानी भरे भाव से गुजरते हैं, तो अचानक आध्यात्मिक हो जाते हैं। उस समय हम ईश्वर से जुडाव महसूस करते हैं उसकी उपस्थिति का प्रच्छन्न बोध करते हैं तथा ईश्वर की विराटता को भी अनुभव करने लगते हैं। यही वह स्थिति होती है जब हम अचानक आध्यात्मिक होने लगते हैं। इस शोध में यह बताया गया कि ईश्वर की विराटता का बोध हम तब बहुत ज्यादा करते हैं, तब हमें कुछ प्राकृतिक दृश्य दिखाई देते हैं। जैसे फैले हुए पहाड, विराट नदियां, दुर्लभ घाटियां और प्रकृति की वन पंक्तियां। जब भी हम पहली बार इनको देखते हैं हम एक खास तरह के विस्मयकारी बोध से भर जाते हैं और यहीं से आध्यात्मिकता की शुरुआत होती है। कभी-कभी अति यथार्थवादी दृश्य भी हमें हैरान कर देते हैं। ख्ासतौर पर अगर किसी बहुमंजिली इमारत की खिडकियों से शेर और जिराफ उडते हुए दिखाई देने लगें तो यह अनोखा विस्मयकारी दृश्य होगा। मुझे याद है कि अपने आध्यात्मिक अनुभव से गुजरने के बाद मैंने सल्वाडोर डाली की एक पेंटिंग देखी थी, जिसमें एक दीवार घडी अचानक मोम की तरह पिघलती हुई दिखाई देती है। उस चित्र को देखकर मैं गहरे विस्मयबोध से भर गया। यह एक आध्यात्मिक अनुभव है।

    भारतीय धर्मो में आध्यात्मिकता की शुरुआत इसी विस्मयकारी बोध से होती है। लेकिन उसका प्रस्तुतीकरण थोडा अलग ढंग से है। कबीरदास जी ने लिखा है- दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय। जब हम संकट से गुजरते हैं और दुख झेल रहे होते हैं तो ईश्वर के प्रति हमारी निकटता का बोध बढ जाता है। यह हमारी स्थितियों का विस्मयकारी बोध होता है, लेकिन हैरान होने की जगह हम परेशान हो जाते हैं। आमतौर पर देखा गया है कि दुखी आदमी ईश्वर की ज्यादा वंदना करता है। इसलिए कहा गया है कि अगर कोई नास्तिक है तो वह निस्संदेह किसी दुख से नहीं गुजरा होगा।

    आमतौर पर जो लोग ऐसे काम करते हैं, जिसमें जोखिम की आशंका या अनिश्चितता बहुत ज्यादा हो, ऐसे लोग आमतौर पर ईश्वर के प्रति ज्यादा अनुराग व्यक्त करते हैं। अगर कोई बिजनेस कर रहा है और वह नास्तिक दिखे, तो ये किसी दुर्लभ खोज की तरह होगा। फौज में लडने वाले, पायलट, फायरफाइटर और सर्जन अनेक अवसरों पर आध्यात्मिक अनुभव से गुजरते हैं, क्योंकि उनका काम ही ऐसा है कि वे कभी न कभी विस्मयकारी बोध से जरूर गुजरेंगे। यही बात उन्हें आस्तिक बनाती है। आमतौर पर पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों को ज्यादा आध्यात्मिक माना गया है, क्योंकि स्त्रियों का विस्मयकारी बोध पुरुषों से बेहतर माना गया है। इसलिए स्त्रियों में कुछ ऐसे आध्यात्मिक गुण होते हैं जिन्हें हम प्रेम, दया, करुणा, सदाशयता, क्षमा और मैत्री का नाम दे सकते हैं। तुमने कभी अपने बच्चे की बाल लीलाओं को देखते हुए किसी मां को विस्मयकारी बोध से भरते हुए देखा है। सूरदास ने यशोदा द्वारा कृष्ण की बाल लीलाओं पर लिखे गए अनेक पदों में इसी अनुभव का वर्णन किया है। जो व्यक्ति जितना आध्यात्मिक होगा उसमें जीवन के प्रति सम्मान उतना ही अधिक होगा ऐसे लोग हिंसक नहीं हो सकते। न तो वे दूसरों को मारना चाहेंगे न आत्महत्या करने की सोचेंगे। पुरुषों के मुकाबले स्त्रियां कम आत्महत्या करती हैं।

    आध्यात्मिकता के मामले में लेडीज फ‌र्स्ट का मामला वाकई सच है!

    बात एक बार की

    यहां और वहां

    एक बार एक राजा ने अपने मंत्री से कहा, मुझे इन चार प्रश्नों के जवाब दो। जो यहां हो वहां नहीं, दूसरा- जो वहां हो, पर यहां नहीं, तीसरा- जो यहां भी न हो और वहां भी नहीं, चौथा- जो यहां भी हो और वहां भी।

    मंत्री ने उत्तर देने के लिए दो दिन का समय मांगा। दो दिन बाद वह चार व्यक्तियों को लेकर राज दरबार में उपस्थित हुआ और बोला, राजन! हमारे धर्मग्रंथों में अच्छे-बुरे कमरें और उनके फलों के अनुसार स्वर्ग और नरक की अवधारणा दी गई है। यह पहला व्यक्ति भ्रष्ट अधिकारी है। यह गलत कार्य करके यहां तो सुखी-संपन्न दिखाई देता है, पर इसकी जगह वहां यानी स्वर्ग में नहीं होगी। दूसरा व्यक्ति एक सज्जन गृहस्थ है। यह यहां ईमानदारी से रहते हुए कष्ट जरूर भोग रहा है, पर इसकी जगह वहां अवश्य होगी। तीसरा व्यक्ति भिखारी है। यह दूसरों पर ही आश्रित है। यह न तो यहां सुखी है और न वहां सुखी रहेगा। यह चौथा व्यक्ति दानवीर सेठ है, जो अपने धन का सदुपयोग करते हुए दूसरों की भलाई भी कर रहा है और सुखी-संपन्न भी है। अपने उदार व्यवहार के कारण यह यहां भी सुखी है और अच्छे कर्मो के कारण इसका स्थान वहां भी सुरक्षित है।