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    बंधनों से मुक्ति में है धार्मिकता

    By Edited By:
    Updated: Sat, 02 Aug 2014 11:35 AM (IST)

    धार्मिकता का अर्थ बंधनों में जकड़ना नहीं, बल्कि इनसे मुक्त होना है और मुक्ति का मार्ग देता है अंतश्चेतना का जागरण। ...और पढ़ें

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    आज पृथ्वी पर अनेक धर्म हैं - इतने धर्म कि गिनती करने बैठें तो वह सही नहीं होगी, कोई न कोई धर्म छूट ही जाएगा। इन धर्मो में आपस में बहुत विवाद है। उनमें विवाद का एक ही मुख्य कारण है कि हम श्रेष्ठ हैं, दूसरे गलत हैं, हीन हैं। यह विवाद बहुत ही स्थूल स्तर पर है, इसकी घिनौनी अभिव्यक्ति हम अकसर देखते हैं- सब तरह की हिंसा के रूप में। और यह उपद्रव हजारों वर्षो से होता रहा है।

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    कुछ और धर्म हैं जो सूक्ष्म तल पर अपने को श्रेष्ठ घोषित करते हैं, वे हिंसा और मारकाट में संलग्न दिखाई नहीं पडते, लेकिन वे भी भीतर से दूसरों को स्वीकार नहीं करते। वे अपने ही अहंकार के संसार में जीते हैं। उनका विवाद करने का ढंग शालीन, सभ्य और सुसंस्कृत होगा। धर्म के नाम पर तलवारें नहीं चलाते, लेकिन वे तर्क की तलवारें चलाते हैं।

    मोटे तौर पर देखें तो ये दो प्रकार के धर्म हैं दुनिया में- एक जिनकी अभिव्यक्ति स्थूल है और दूसरे जिनकी अभिव्यक्ति सूक्ष्म है। पहले प्रकार का धार्मिक व्यक्ति तलवार के माध्यम से अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करता है, शक्ति और हिंसा का उपयोग करता है। दूसरे प्रकार का व्यक्ति अपने तर्क और शास्त्रज्ञान का सहारा लेकर अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करता है। लेकिन अगर आप गहराई से इन दोनों धार्मिकों को देखें तो पाएंगे कि इन दोनों में कोई धार्मिकता नहीं हैं। ये दोनों अपने प्राचीन जडतापूर्ण विश्वासों और विचारों से बंधे हैं- इतने बंधे हैं कि इनसे कोई सीधा संवाद नहीं हो सकता।

    मनुष्यों से अगर कोई सीधा संवाद संभव है तो उसका एक ही माध्यम है मनुष्य का हृदय, हृदय का हृदय से संवाद। यही संवाद मनुष्य को मनुष्य से जोडता है। इस संवाद में पूर्ण स्वतंत्रता है। इसमें किसी को भी यह सिद्ध नहीं करना है कि मैं तुमसे श्रेष्ठ हूं, तुम मुझसे हीन हो। इस संवाद में कोई अहंकार नहीं है- सिर्फ प्रेम है, सद्भाव है, समभाव है।

    इस अस्तित्व ने हम सबको जन्म दिया है, हम इसकी संतान हैं। हम सबका मूल स्रोत एक है, फिर कोई बडा या छोटा कैसे हो सकता है? कोई श्रेष्ठ और हीन कैसे हो सकता है? ऐसी समझ ही धार्मिकता का मूल आधार है। अगर हम इस समझ से इस क्षण में जीएं तो फिर हमारे सभी विवाद, सभी कलह, सभी झगडे, सभी उपद्रव अपने आप तिरोहित हो जाते हैं। अतीत का सारा बोझ गिर जाता है।

    इस समझ के लिए क्या करना जरूरी है, यह ध्यान देने योग्य है।

    हमें हमारे जन्म के साथ कुछ विश्वास पकडा दिए जाते हैं। इनमें से कई विश्वास जीवन-विरोधी होते हैं। वे मनुष्य को मनुष्य से जोडते नहीं, तोडते हैं। इन विश्वासों को सिर्फ पकडाया ही नहीं जाता, बल्कि इतना अधिक पोषित किया जाता है कि हम अपने आसपास के जीवन को, वर्तमान के क्षण में, स्वयं अपनी आंखों से देखना भूल जाते हैं। इन विश्वासों के कारण ही हमारी आंखों की नैसर्गिक निर्मलता और शुद्धि नष्ट हो जाती है। हम प्रेम के रास्ते से हटकर घृणा के रास्ते पर चल पडते हैं।

    हमें सिखाया जाता है कि हम हिंदू है, मुसलमान हैं, बौद्ध हैं, जैन हैं, ईसाई हैं, यहूदी हैं, भारतीय हैं, पाकिस्तानी हैं, चीनी हैं। ये सभी लेबल हैं, जिनका मनुष्य की आत्मा से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन यही लेबल हमारी वास्तविकता बन जाते हैं और इनकी रक्षा के लिए हम लडते-झगडते हैं। ये मात्र एक आच्छादन हैं, ऊपरी आवरण हैं, जो किसी विशेष स्थान पर पैदा होने के कारण हमें मिल गए थे। ये हमारे यथार्थ नहीं हैं, यह हमारी निजता अथवा शुद्ध सत्ता नहीं हैं। ये व्यवस्थागत हैं, कामचलाऊ हैं। इन्हें हमें बहुत जोर से नहीं पकड लेना चाहिए। इनके साथ हमारा गहरा तादात्म्य घातक सिद्ध हुआ है। इनके नाम पर बडी हिंसा हुई।

    धर्म के नाम पर हुई ये हिंसाएं किसी भी कसौटी पर धार्मिक नहीं कही जा सकतीं। यह जीवन, यह अस्तित्व, यह दुनिया एक है, लेकिन हमारा मन इसे खंडों में बांट देता है और फिर ये खंड आपस में लडते हैं। जहां भी टूट-फूट है, वहां कलह है, लडाई है। एक खंड दूसरे खंड से उलझता है, टकराता है और पूरे जीवन को नारकीय बना देता है। मनुष्य के मन में खंड पैदा हो गए हैं, लेकिन मनुष्य की चेतना अखंड है। वह ऐसे ही है जैसे एक घडे के भीतर का आकाश और घडे के बाहर का आकाश। घडे के भीतर का पानी और नदी में बाहर का पानी। वे दोनों एक हैं, लेकिन घडे की दीवारों के कारण भीतर-बाहर की एकता हमें दिखना बंद हो जाती है। वे दीवारें मात्र कामचलाऊ थीं, उनका अपने-आप में कोई परम मूल्य नहीं है। उनको बहुत ज्यादा मूल्य देना, महत्व देना ही उपद्रव को मोल लेना है। अपने आवरणों के साथ इतना लगाव और अपनी आत्मा के प्रति इतना अलगाव ही धर्म के जगत में घटित हुई एक बुनियादी भूल है, जिसका भारी दुष्परिणाम दुनिया को झेलना पडा है।

    अब समय आ गया है कि हम अपनी अखंड चेतना की अनुभूति में उतरें और मन की दीवारों से व परतंत्रताओं से मुक्त हों। हम चेतना के मुक्त आकाश में अपनी निजता और अखंडता के साथ उड सकते हैं, अगर हम अपने मन की बोझिलता को गिरा दें, निर्भार हो जाएं। यह पूरा जगत, यह पूरा अस्तित्व हमारा घर है, परिवार है। वसुधैव कुटुंबकम्!

    ओशो कहते हैं : यह अस्तित्व सभी के साथ समान व्यवहार करता है। यह सभी को समान सम्मान देता है, समान प्रेम देता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है और उसमें सत्य का जो प्रतिफलन होगा, वह भी अनूठा होगा। इसलिए तुम बुद्ध के सत्य को मत खोजना। वह तुम्हें कभी नहीं मिलेगा। तुम्हें तो अपना ही सत्य खोजना पडेगा। कुछ लोग यह सोचकर कि सत्य सनातन है, वेदों की पूजा में लगे हैं और उनके भीतर का वेद सोया ही पडा रह जाता है।

    वे कहते हैं : जिस दिन कोई जगता है अपने सत्य के प्रति उस दिन उसे एक अनूठा अनुभव होता- कि मेरा सत्य मेरा ही नहीं है, जिनने भी जाना है, सबका है और जो भी आगे जानेंगे, उनका भी है। यही तो सत्य की रहस्यमयता है- अति प्राचीन, नित नूतन। लेकिन यह दुर्भाग्य है कि हमारा मन केवल अतीत से बंधा रहता है और भविष्य की कल्पनाओं में खोया रहता है। वर्तमान के क्षण की ताजगी से वंचित रह जाता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति की चेतना उन दो कालों में बंधी रहती है जो हैं ही नहीं : अतीत नहीं है, वह जा चुका और भविष्य नहीं है, क्योंकि वह अभी आया ही नहीं। इन दो कालों के बीच जो वर्तमान का क्षण है, जिसमें व्यक्ति अपने होने की, अपनी निजता की अनुभूति कर सकता है, पूरी समग्रता में, वह स्थिति, वह भावदशा विलुप्त हो जाती है।

    सम्यक ध्यान की विधियां हमें वर्तमान में होने की कला सिखाती हैं और जो विधियां हमें हमारे वर्तमान से कहीं और ले जाएं - अतीत में अथवा भविष्य में - वे गलत विधियां हैं। वे एक नया बंधन निर्मित करती हैं।

    ध्यान है प्रथम और अंतिम मुक्ति। ध्यान की स्थिति में जीवन जैसा है वैसा ही दिखाई पडता है, हमें अस्तित्व का शुद्ध बोध होता है। इस बोध की अवस्था में हम मनुष्यता की अखंडता की अनुभूति करते हैं और मनुष्य को हम उसके लेबलों के पार देख पाते हैं और उसके साथ मनुष्यों जैसा व्यवहार करते हैं। तब हम धर्म के लेबलों या आवरणों को महत्व नहीं देते, इनके पार जो उसका अपना होना है, उसकी आत्मा, उसकी चेतना को महत्व देते हैं। तब हम धर्मो में नहीं, बल्कि धार्मिकता में रस लेते हैं।

    धर्म फूल की भांति है और धार्मिकता सुवास की तरह है। फूल केवल वही फूल है जो अपने सुवास को मुक्त आकाश में विचरण करने में रुकावट न डाले। सच्चा सुवास तो मुक्ति का पर्यायवाची है। सच्ची धार्मिकता धर्म के फूलों का मुक्त सुवास है। वह तेरी-मेरी नहीं होती है, वह तो समग्र अस् ितत्व की है, समूची मनुष्यता की है।

    ध्यान की आधारशिला पर विकसित ऐसी धार्मिकता ही वरण करने योग्य है, क्योंकि वह परम स्वतंत्रता है। ऐसी स्व अनुभूति ही समग्र अनुभूति है, स्व ही स्रोत है स्वतंत्रता का। इसकी गहराइयों में अपने भीतर उतरना है और इसकी अनुभूति करनी है। ध्यान ही इसका एकमात्र उपाय है।

    सच सदा के लिए

    देह से भिन्न

    तस्याभिध्यानात् तृतीयं देहभेदे। विश्वैश्वर्य केवल आप्तकाम:

    श्वेताश्वरतरोपनिषद का वचन है। यह वचन लगभग एक परिपूर्ण वाक्य है। मुक्त-पुरुष का वर्णन है, जिसके लिए केवल शब्द इस्तेमाल किया है। कैवल्य प्राप्त पुरुष- केवल पुरुष, जो दुनिया में अपने को ही देखता है। केवल एक मैं ही हूं, इसका अर्थ है- कैवल्य। दुनिया में भगवान के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं, यह लक्षण भक्त का है। वह समझता है कि दुनिया में केवल भगवान ही है। परंतु मुक्त-पुरुष का लक्षण यह है कि वह मानता है कि दुनिया भर में मैं ही व्याप्त हूं। मुक्त पुरुष के इस लक्षण को केवल: कहा। फिर कहा, आप्तकाम:। जिसकी सब कामनाएं समाप्त हो चुकीं। अब सवाल है, आत्मज्ञान कब होता है और कैसे होता है।

    तो क्या एक-एक कामना को समाप्त करते जाएंगे? जितनी सृष्टि अनंत है, उतना मन भी अनंत है, उतनी कामनाएं भी अनंत हैं। तो एक-एक की तृप्ति करते जाएं और उसको छोडते जाएं? या विवेक से एक-एक को छोडते जाएं तृप्ति किए बिना ही? ये दोनों प्रक्रियाएं बेकार हैं। क्योंकि कामनाओं का इस तरह अंत होने वाला नहीं है। वे अनंत ही हैं। दस हजार कामनाएं तृप्त कीं या मिटाई, तो दस लाख बाकी रहने वाली हैं, और दस लाख तृप्त कीं या मिटाई तो दस करोड बाकी रहेंगी। वे अनंत ही है।

    कब होता है उसका उत्तर दिया, तृतीयं देहभेदे।

    सब वासनाओं को त्रिराशि में विभाजित कर दिया, तो काम थोडा आसान हो जाता है। हमारी तीन प्रकार की जो उत्तरोत्तर सूक्ष्म देह हैं, उनकी तरफ ध्यान खींचा और कहा कि इन तीन देहों का भेद यानी छेद होना चाहिए। एक के बाद एक, तीन देहों का छेद यानी तीन आवरणों का भेद। देह की उपाधि से हम सर्वथा भिन्न हैं, ऐसा मनुष्य के मन में दृढ विश्वास होता है, तब उसकी देह प्रथम बार काटी जाती है। उसका शास्त्रीय भाषा में विवेक नाम है। विशेष अर्थ है, देह से अपने को सर्वथा भिन्न पहचानना। उसके बाद मनुष्य के अंदर का सूक्ष्म अहंकार का भेद। यह दूसरी मर्तबा देहभेद हुआ है। स्थूल देह के पीछे चलने वाली वह देह है। उसके बाद तीसरा भेद है, अविद्या का छेद। इस प्रकार तीन बार देहभेद होगा, उसके बाद आप्तकाम-पुरुष को विश्वैश्वर्य प्राप्त होगा।