आध्यात्मिक जीवन का आग्रह
सभी जानवरों में केवल इंसान को ही यह विशिष्टता प्राप्त है कि वह दो तरह के जीवन गुजार सकता है- पहला सांसारिक और दूसरा आध्यात्मिक जीवन। आध्यात्मिक जीवन के आग्रह बता रहे हैं वैज्ञानिक चेतना संपन्न ध्यानगुरु श्री हनुतश्री।

सांसारिक जीवन से हर कोई परिचित है। जब आप एक लग्जरी कार खरीदने की सोचते हैं, तो आप सांसारिक हो जाते हैं। पांचसितारा होटल में खाने जाना संसार का विस्तार है। बेहतरीन कपडे और साथ में परफ्यूम का प्रयोग संसार का मामला है। जब आप पारंपरिक किस्म की चीजें छोडकर डिजाइनर चीजों का प्रयोग करते हैं, तो यह सांसारिकता का विषय हो जाता है।
मजे की बात यह है कि सभी जंतुओं में केवल आदमी ही ऐसा प्राणी है, जो संसार को लगभग संपूर्णता में जीता है। यह स्थिति आदमी के लिए बडी अद्भुत होती है। शेष जानवर जंगलों में रहते हैं और कभी शहर की ओर देखते भी नहीं हैं। जबकि सांसारिकता का 99 प्रतिशत हिस्सा शहरों से प्रमाणित होता है। बेचारे जानवरों को यह बात पता है कि जब भी गीदड की मौत आती है तो वह शहर की तरफ भागता है। शहर के लोग शायद जंगलों से ज्यादा हिंसक होते हैं। यही कारण है कि कोई गीदड शहर में जिंदा नहीं रह पाता है। पकड कर लाए जाना, पैदाइशी तौर पर होना या गलती से चले आना अलग बात है, पर अपने-आप शहर की ओर आना कोई भी जानवर नहीं चाहता। सभी जानवरों में आदमी ही सबसे ज्यादा सांसारिक है।
आदमी को एक दूसरे तरह के जीवन गुजारने की भी सुविधा है- आध्यात्मिक जीवन। हर व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी किसी न किसी तरह के आध्यात्मिक अनुभव से जरूर गुजरता है। ये अनुभव बिलकुल वैसे ही होते हैं जैसा कि कभी ऋषियों ने या आज के जमाने में आध्यात्मिक अनुभव से गुजरे हुए किसी आध्यात्मिक गुरु ने प्राप्त किया होगा। कभी-कभी आम आदमी के आध्यात्मिक अनुभव बिलकुल उसी तरह के होते हैं, जैसा उपनिषदों में वर्णित है या अतीत के किसी गुरु ने अपने अनुभवों में बताया होगा। यह बात इतनी प्रभावोत्पादक है कि इसे पश्चिम के मनोवैज्ञानिक, समाज विज्ञानी तथा बायोलॉजिस्ट भी मानने लगे हैं। इन्हीं आध्यात्मिक अनुभवों के आधार पर पश्चिम में अध्यात्म संबंधी जो थोडे बहुत शोध चल रहे हैं, उनके लिए आवश्यक सामग्री उपलब्ध हो पाती है। लेकिन अफसोस की बात है कि आम आदमी इस तरह के आध्यात्मिक अनुभवों की कभी नोटिस नहीं लेता है। लोग संसार में इतने रमे हुए हैं कि उन्हें इस बात का कतई विश्वास नहीं होता है कि पूरी तरह संसार में डूबा दिखने वाला एक मामूली आदमी भी कभी रहस्यदर्शी आध्यात्मिक अनुभवों से गुजर सकता है। लगातार सांसारिकता का यही नुकसान है। सांसारिक जीवन की बहुलता की वजह से हम आध्यात्मिक अनुभवों को पकडने के लिए सक्षम नहीं होते हैं। अध्यात्म के लिए हमारी कोई ट्रेनिंग नहीं होती है। पैदा होने से लेकर मरने तक हम लगातार संसार के लिए प्रशिक्षित होते रहते हैं। कभी-कभी हम संसार में रहते हुए भी इतने भ्रमित हो जाते हैं कि कोई कवि हृदय कह उठता है- जीना यहां, मरना यहां..।
आग्रह और बोध
भारत की परंपरा आध्यात्मिक जीवन के लिए भी स्पेस बनाती है। अपनी परंपरा पर गौर करें तो जीवन की दो अंतिम अवस्थाएं प्राय: वानप्रस्थ और संन्यास के नाम से जानी जाती हैं। लेकिन हम कभी वानप्रस्थ की परवाह ही नहीं करते हैं। शायद ऋषियों ने जीवन की संरचना में इसे सोच-समझ कर शामिल किया होगा। आपने अपने आसपास ऐसे अनेक लोगों को देखा होगा जो थोडे समय के लिए आध्यात्मिक हो जाते हैं। आध्यात्मिकता का दुख से परोक्ष किस्म का संबंध है। जब हम गहरे दुख में डूब जाते हैं तो शायद आध्यात्मिकता की तरफ मुड जाते हैं। किसी का कोई अत्यंत प्रिय व्यक्ति अचानक बिछड जाए तो उसका संसार से मोह भंग होने लगता है। मोह भंग की इस स्थिति में ही हम प्राय: आध्यात्मिक होने की कोशिश करते हैं।
भारतीय परंपरा में संसार और अध्यात्म सहगामी होते हैं। आध्यात्मिक जीवन के दो अंश होते हैं- पहला आध्यात्मिकता का आग्रह और दूसरा आध्यात्मिकता का बोध। आध्यात्मिकता के बोध से संबंधित कहानियां तो हमने बहुत सुनी हैं। बोध का आशय है कि हम आध्यात्मिक अनुभव से गुजरे हैं और हमने उसे याद भी रखा है। यह आध्यात्मिक अनुभव इतना प्रभावी होता है कि हमारे जीवन को रूपांतरित भी कर सकता है। यह महज फीलिंग नहीं है, बल्कि रिअलाइजेशन के दायरे की चीज है। पश्चिम में एक विख्यात मनोवैज्ञानिक हुए हैं- अब्राहम मैश्लोव। उन्होंने मनोविज्ञान का ह्यूमनिस्टिक मॉडल दिया है, जो व्यक्ति की आध्यात्मिकता को निरूपित करता है। उन्होंने ही भारतीय आध्यात्मिकता में प्रयुक्त होने वाले बोध के लिण् रिअलाइजेशन और ऐक्चुअलाइजेशन जैसे शब्दों का प्रयोग किया है। जिसे आध्यात्मिक जीवन का बोध होता है वही बुद्ध हो जाता है।
बोध की अनिवार्यता
एक आदमी के लिए बोध की अनिवार्यता नहीं है। उसके लिए केवल आध्यात्मिक जीवन के आग्रह की अनिवार्यता है।
आध्यात्मिक जीवन के आग्रह की शुरुआत वहीं से हो जाती है, जहां से हम सोचते हैं कि आओ थोडा सा आध्यात्मिक बन जाएं। जब हम ईश्वर के निकट जाने की सोचते हैं तो शायद आध्यात्मिकता का आग्रह शुरू हो जाता है। अब संसार में दो तरह के लोग होते हैं- एक जो ईश्वर में विश्वास करते हैं और दूसरे वे जो ईश्वर को महज कल्पना मानते हैं- एग्नॉस्टिक। हालांकि पश्चिम के लोगों ने नास्तिक के लिए दो तरह की धारणाएं दी हैं। पहले वे लोग हैं जो न तो ईश्वर पर विश्वास करते हैं और न ही अविश्वास करते हैं और दूसरे वे लोग जो ईश्वर को कतई नहीं मानते हैं। आध्यात्मिकता की शुरुआत वहीं से होती है जहां से हम ईश्वर को मानना शुरू कर देते हैं।
हर व्यक्ति के आध्यात्मिक जीवन का आग्रह अलग-अलग होता है। एक श्रेणी ऐसे लोगों की है, जो ईश्वर को अदृश्य मानते हैं। स्वाभाविक है, ऐसे ईश्वर का कोई आकार नहीं होगा और इसी तरह के ईश्वर को हम निराकार या निर्गुण भी कहते हैं। अगर किसी की दिलचस्पी इसी निराकार या अदृश्य ईश्वर में है तो उसे ध्यान या मेडिटेशन में जाना चाहिए।
लेकिन दुनिया में बहुमत ऐसे लोगों का है जो ईश्वर को अदृश्य नहीं मानते हैं। ऐसे लोगों के लिए ईश्वर निराकार के बजाय आकार में और निर्गुण के बजाय सगुण में हो जाता है। ये ऐसे लोग हैं जो ईश्वर को आदमी की तरह रूप में देखते हैं- ऐंथ्रोपोमॉर्फिक। हालांकि यह धारा ईश्वर को सीमाओं में बांधती है और इस सीमाबद्धता के साथ ही कई दूसरी तरह की विडंबनाएं भी शुरू हो जाती हैं। लेकिन, इस दुनिया में ऐसा है ही क्या जिसके साथ कुछ न कुछ विडंबनाएं न जुडी हों। यह तो सिर्फ एक धारणा की बात है।
धारा भक्ति की
ईश्वर को एक निश्चित रूप में देखने की धारणा के साथ ही भक्ति की धारा शुरू होती है। जब आध्यात्मिक जीवन का आग्रह इस भक्ति की धारा के रूप में होता है तो हम पत्थर का एक लड्डू गोपाल तैयार करते हैं। इस लड्डू गोपाल को सुबह भजन गाकर जगाते हैं। उसे नहलाते हैं, उसका श्रृंगार करते हैं, उन्हें कपडे पहनाते हैं। समय-समय पर लड्डू गोपाल विश्राम के लिए शयन में भी जाते हैं और जब हम खाना बनाते हैं तो उन्हें सबसे पहले भोग लगाकर खाना खिलाते हैं। यहीं से आध्यात्मिक जीवन के आग्रह में भारतीय धर्मो की विख्यात नवधाभक्ति की शुरुआत हो जाती है। नौ तरह से हम सगुण ईश्वर के प्रति अपने आग्रह को व्यक्त करते हैं। इसमें अर्चन, वंदन, समर्पण, सखा भाव, दास्य भाव, मैत्री भाव इत्यादि शामिल हैं। कई बार हम लोग नवधा भक्ति में कुछ आधुनिक बातें भी शामिल कर लेते हैं। पुरी के विख्यात जगन्नाथ मंदिर में प्रभु वार्षिक रथ यात्रा के पहले बीमार पड जाते हैं। उनके शरीर के तापमान को थर्मामीटर से नापा जाता है और एक एलोपैथिक चिकित्सक उनका विधिवत परीक्षण करता है। उनकी मेडिकल बुलेटिन भी जारी की जाती है। भक्त लोग प्रभु को बीमार देखकर प्राय: अश्रुपूरित हो उठते हैं। यही भारतीय धर्मो की इमोशनल स्पिरिचुएलिटी है- नवधा भक्ति। जो लोग ईश्वर को निर्गुण मानते होंगे, वो इस पर हंस सकते हैं, लेकिन यह महज हंसने का सबब नहीं है। यह आध्यात्मिक अनुभव को तर्क और ज्ञान की कसौटियों पर कसने के बजाय भावनात्मक स्तर पर महसूस करने की बात है। यह भारतीय आध्यात्मिकता का बिलकुल अलग तरह का आग्रह है। इसके लिए आवश्यक है कि आपके भीतर बहुत ही गहन संवेदना हो। अगर निर्गुण वालों को ज्ञान समूह कहा गया है तो सगुण वालों को भक्ति समूह कहा गया है।
पिछले दिनों मैंने एक बच्चे की चिट्ठी इंटरनेट पर पढी। बच्चे ने पत्र भगवान को लिखा था, हे ईश्वर आपकी उम्र कितनी है। आप मेरे दादा के दादा के जमाने में भी थे और आज भी हैं। ईश्वर आप मेरी रक्षा करिएगा। मेरे साथ मेरी छोटी बहन और मेरे माता-पिता की भी रक्षा करिएगा। अगर मेरे माता-पिता नही होंगे तो मेरा क्या होगा? और हां आप अपना खयाल जरूर रखिएगा। अगर आपको कुछ हो गया तो हम सभी लोगों का क्या होगा!
हममें से बहुतेरे लोग इस बचकानी चिट्ठी को पढकर हंस सकते हैं। लेकिन अगर आप इसे गहराई से देखें तो आपकी आंख से आंसू भी आ सकते हैं। यही इमोशनल स्पिरिचुएलिटी का आग्रह है!
बात एक बार की
हो गया सो हो गया
एक भिक्षु किसी गांव से होकर गुजर रहे थे। अचानक कोई आया और उन्हें छडी से मार दिया। भिक्षु गिर गए, उस आदमी की छडी भी उसके हाथ से छूट गई और वह भाग चला। भिक्षु संभले और गिरी हुई छडी उठाकर उसके पीछे यह कहते हुए भागे, रुको, अपनी छडी तो लेते जाओ! भिक्षु दौड कर उस आदमी तक पहुंच गए और उसे छडी सौंप दी। इस बीच वहां भीड लग गई और किसी ने भिक्षु से पूछा, इसने आपको इतनी जोर से मारा, पर आपने उसे कुछ नहीं कहा? भिक्षु ने कहा, हां, यह सही है कि उसने मुझे मारा, लेकिन यह एक तथ्य ही है। उसने मुझे मारा, वह बात वहीं समाप्त हो गई। यह ऐसा ही है जैसे मैं किसी पेड के नीचे बैठा होऊं और एक शाखा मुझ पर गिर जाए! तो मैं क्या कर सकता हूं?
भीड ने कहा, पेड की शाखा तो निर्जीव है, लेकिन यह तो एक आदमी है! पेड को भला-बुरा नहीं कह सकते क्योंकि वह पेड है, वह सोच-विचार नहीं सकता।
भिक्षु ने कहा, मेरे लिए यह आदमी पेड की शाखा की भांति ही है। यदि मैं किसी पेड से कुछ नहीं कह सकता तो इस आदमी से क्यों कहूं? जो हो गया, वो तो हो ही गया। अब मैं उसकी व्याख्या क्यों करूं।
सखी प्रतिनिधि
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।