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    कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया था मुंशी प्रेमचंद

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    Updated: Tue, 31 Jul 2012 06:42 PM (IST)

    बनारस के निकट लमही गांव में 31 जुलाई 1880 को मुंशी अजायब लाल के घर एक पुत्र रत्न का आविर्भाव हुआ जिनको धनपत राय के नाम से पुकारा जाता था। जिन्हें बाद में मुंशी प्रेमचंद के नाम से प्रसिद्धी मिली।

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    आरा। बनारस के निकट लमही गांव में 31 जुलाई 1880 को मुंशी अजायब लाल के घर एक पुत्र रत्न का आविर्भाव हुआ जिनको धनपत राय के नाम से पुकारा जाता था। जिन्हें बाद में मुंशी प्रेमचंद के नाम से प्रसिद्धी मिली। मध्यमवर्गीय परिवार में जन्में प्रेमचंद ताजिन्दगी आर्थिक समस्याओं से जूझते रहे। मां और दादी का दुलार अत्यधिक दिनों तक नहीं मिल सका। सात वर्ष की आयु में ही मां का साया उठ गया। पिता डाकखाने में कार्यरत थे। अत: उनकी व्यस्तता तो थी ही साथ-साथ उनका स्थानांतरण एक स्थान से दूसरे स्थान पर होता रहता था जिसके कारण बालक धनपत पर अधिक ध्यान नहीं दे पाते थे। छह वर्ष की आयु में ही इन्हें बगल के गांव लालगंज में एक मौलवी साहब के घर उर्दू-फारसी पढने भेज दिया गया। 14 वर्ष की उम्र में पिता का भी साया धनपत पर से उठ गया। आर्थिक समस्या और गंभीर हो गयी। इन्होंने बच्चों को पढाना प्रारंभ किया। किसी प्रकार इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा द्वितीय श्रेणी से पास की और आगे पढने की इच्छा आर्थिक तंगी के कारण दबानी पडी और चुनार के एक विद्यालय में 1899 से 1921 ई. तक शिक्षक के रूप में कार्यरत रहे। इसी काल खंड में उन्होंने इंटर एवं बी.ए. भी पास किया। शिक्षक के रूप में इन्होंने भी तबादले का दंश झेला जिससे इन्हें समाज की विसंगतियों, सुसंगतियों और जनजीवन को निकट से गहराई तक जानने और समझने का अवसर मिला जो इनकी प्रत्येक रचना में परिलक्षित होता है। कुछ समय के लिए इन्होंने कानपुर के मारवाडी स्कूल में पाठन कार्य किया किन्तु जल्दी ही उस स्कूल को छोडना पडा। नियति तो कही और ले जाना चाहती थी। कानपुर से बनारस आ गये और मर्यादा समाचार पत्र का संपादन किया। कुछ महीने काशी विद्यापीठ में भी पढाया। फिर माधुरी के संपादन में मशगूल हो गये जो लखनऊ से प्रकाशित होता था। लगभग छह वर्षो के बाद पुन: बनारस आकर मासिक हंस संपादन का दायित्व संभाला। कुछ समय के लिए उन्होंने जागरण भी निकाला किन्तु दोनों ही पत्रिकाओं के चलते ये कर्ज में डूबते चले गये जिसके कारण इन्हें बंबई अर्थ अर्जन के लिए जाना पडा परंतु सब बेकार। वापस उन्हें बनारस ही आना पडा।

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    मुंशी प्रेमचंद ने लगभग तीन सौ कहानियां और चौदह छोटे-बडे उपन्यास लिखे हैं। जिसमें समाज की कुरीतियों, रुढिवादिता और शोषण के विरुद्ध सार्थक और सशक्त कुठाराघात किया है। इतना ही नहीं लेखन शैली भी मनोरंजक और प्रवाहमयी है। भाषा अत्यन्त सरल व उर्दू और फारसी के शब्दों के साथ-साथ आंचालिक शब्दावली का भी प्रयोग कथनीय प्रसंग की स्पष्टता और अधिक खूबसूरती से उजागर करता है। कथानक का शिल्प इस प्रकार सजा होता है कि पाठक जब एक बार किसी कहानी या उपन्यास को पढना प्रारंभ करता है तो उसमें डूबता ही जाता है। उनकी कहानियों में नारी की विवशता मिलती है। कहीं स्वार्थ में उलझे लोग भी मिलते हैं। उस जमाने में ऊपरी आमदनी का जोर भी देखने को मिलता है अर्थात् ईमानदारी और बेईमानी जो समाज में व्याप्त थी वह भी दिखाई देता है। यूं कहा जाय कि समाज के हर पहलू को समेटा है अपनी कहानियों और उपन्यास में।

    प्रेमचंद ने भी गांधी जी के आह्वान पर गोरखपुर में 8 फरवरी 1921 को सार्वजनिक रूप से गांधीजी के समक्ष नौकरी छोडने की घोषणा की थी और स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित हो गये थे। 8 अक्टूबर 1936 को 56 वर्ष की आयु में बनारस में ही इनका देहांत हो गया।