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    शोध से निकलती हैं कहानियां

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    Updated: Wed, 21 May 2014 03:43 PM (IST)

    हर आगंतुक का स्नेहमयी मुस्कान के साथ स्वागत करती हैं शरद सिंह लेकिन लेखन वे बेहद संजीदगी से करती हैं। अपनी कहानियों के पात्रों को वे यथार्थ से चुनती ह ...और पढ़ें

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    हर आगंतुक का स्नेहमयी मुस्कान के साथ स्वागत करती हैं शरद सिंह लेकिन लेखन वे बेहद संजीदगी से करती हैं। अपनी कहानियों के पात्रों को वे यथार्थ से चुनती हैं। कथ्य, पात्र, घटनाक्रम को गढ़ने से पहले वे उनकी पूरी तहकीकात करती हैं। उनके अब तक तीन उपन्यास 'पिछले पन्ने की औरतें', 'पचकौड़ी' और'कस्बाई सिमोन' प्रकाशित हो चुके हैं। उनके कहानी संग्रहों में 'बाबा फरीद अब नहीं आते', 'तीली-तीली आग', 'गील्ला हनेरा' (पंजाबी में अनूदित), 'राख तरे के अंगरा' (बुंदेली में) आ चुके हैं। खजुराहो और प्राचीन भारतीय इतिहास पर दो पुस्तकें, भारत तथा मध्यप्रदेश के आदिवसी जीवा पर ग्यारह पुस्तकें, न्यायालयिक विज्ञान, पर्यावरण, साक्षरता नाटक, काव्य की तीस से अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।

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    उनकी कहानियों का पंजाबी, उर्दू, गुजराती, उडि़या और मलयाली भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। शरद सिंह को भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार, श्रीमंत सेठ भगवानदास जैन स्मृति पुरस्कार, लीडिंग लेडी ऑफ मध्यप्रदेश सम्मान आदि मिल चुका है।

    कविता, कहानियां, रेडियो धारावाहिक, डॉक्यूमेंट्रीज, ब्लॉग लेखन आदि। इतना सब कुछ आप किस तरह मैनेज कर लेती हैं?

    ये सभी साहित्य की विधाएं हैं। जब मैं इनमें से किसी भी विधा के लिए लिखती हूं, तो मुझे लगता है कि मैं अपना सबसे प्रिय कार्य कर रही हूं। जाहिर है कि जब आप अपनी पसंद का काम कर रहे होते हैं, तो सब कुछ आसानी से मैनेज हो जाता है। संयोगवश, मुझे लेखन और नौकरी में से किसी एक को चुनना था, तो मैंने लेखन को ही चुना। सच बताऊं तो लेखनकार्य मेरे लिए उस समय जुनून बन जाता है जब कोई विषय चुनौती के रूप में मेरे सामने आता है। जैसे, जिस समय मुझे 'न्यायालयिक विज्ञान की नई चुनौतियां' पुस्तक लिखनी थी, तो उस समय मुझे फोरेंसिक साइंस के बारे में गहन जानकारी नहीं थी। जब मैंने तय किया कि यह किताब मुझे लिखनी ही है, तब मैंने इस विषय पर आधारित ढेर सारी किताबें पढ़ीं, क्रिमिनॉलॉजी और फोरेंसिक साइंस के विद्वानों से डिस्कस किया और फिर किताब लिखी।

    कई सारे दायित्वों का निर्वहन करते हुए आप लेखन के लिए समय किस तरह निकालती हैं?

    जहां तक लिखने का सवाल है, तो तयशुदा समय नहीं रहता है। जब समय मिलता है और मूड बनता है, तो जुट जाती हूं लिखने में। चूंकि मैं कल्पना से अधिक यथार्थ को आधार के रूप में चुनती हूं, इसलिए मुझे विषय से संबंधित तथ्य जुटाने के लिए जमीनी स्तर पर भाग-दौड़ भी करनी पड़ती है.. और यह भाग-दौड़ मुझे कभी थकाती नहीं है।

    आप अभी किस विषय पर काम कर रही हैं?

    इन दिनों अपने एक नए उपन्यास का ताना-बाना बुन रही हूं, जो पाठकों को स्त्री के एक बिलकुल ही अलग सरोकार, समाजोन्मुख आकांक्षा से साक्षात्कार कराएगा। इसके साथ ही परित्यक्ता वृद्ध महिलाओं की जीवन-त्रासदियों को खंगाल रही हूं। अभी तक मैंने जितना जाना है, उसने मुझे भीतर तक हिला दिया है। वाकई उनका जीवन बेहद त्रासद है।

    इन दिनों हिंदी में युवा खूब लेखन कर रहे हैं। यह बदलाव सकारात्मक है या नकारात्मक?

    यह समय ग्लोबलाइजेशन का है। सामाजिक एवं आर्थिक मूल्य तेजी से बदल रहे हैं। पहले एक युवती को शिक्षिका बनते देख कर समाज प्रसन्न होता था, लेकिन आज एक युवती किसी कॉलसेंटर में काम करती है, तो लोगों को आश्चर्य नहीं होता है। ये सारे बदलाव साहित्य में भी अपनी जगह बनाते जा रहे हैं। समय के साथ चलने वाला साहित्य ही समाज को आईना दिखा सकता है और वर्तमान साहित्य यह काम बखूबी कर रहा है।

    आपकी नजर में कौन-कौन से युवा बढि़या हिंदी लेखन कर रहे हैं?

    सूर्यनाथ सिंह, अजय नावरिया, पंकज सुबीर, कुणाल सिंह आदि उल्लेखनीय नाम हैं। पिछले दिनों सुशील सिद्धार्थ की तीन खंडों में पुस्तक आई है- 'हिंदी कहानी का युवा परिदृश्य'। इस संग्रह में हिंदी के युवा कहानीकारों का मिजाज उभर कर सामने आया है।

    आप अपने लेखन के लिए किन प्रिय रचनाकारों से प्रेरणा लेती हैं?

    जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, विलियम शेक्सपियर, लियो टॉल्सटॉय, एंटोन चेखव, गोर्की, दोस्तोवस्की आदि मेरे प्रिय रचनाकार हैं। शिवाजी सावंत की 'मृत्युंजय' अनेक बार पढ़ी है। डॉन ब्राउन, खुशवंत सिंह, अमिताभ घोष, हुसैन जैदी, काशीनाथ सिंह, शिवमूर्ति आदि का लेखन मुझे अच्छा लगता है। जहां तक प्रेरणा लेने का प्रश्न है, तो मुझे अनुकरण की बजाय अपना रास्ता अलग बनाना पसंद रहा है, यह डगर भले ही कठिन है, लेकिन इसमें मौलिकता के खोने का भय नहीं होता।

    साहित्यकार नहीं होतीं, तो क्या होतीं?

    मैं साहित्यकार नहीं होती, तो शायद पुरातत्ववेत्ता या इतिहासकार होती, पर तब भी किसी न किसी रूप में साहित्य से जुड़ी रहती। साहित्य के बिना अपने जीवन की कल्पना मेरे लिए कठिन है। साहित्य मेरे जीवन परिवेश में गुंथा हुआ है। मेरी मां डॉ. विद्यावती 'मालविका' हिंदी की विशिष्ट लेखिका रहीं तथा मेरी बहन डॉ. वर्षा सिंह हिंदी गजल की प्रतिष्ठित नाम हैं। मैं साहित्य से अलग हो कर नहीं रह सकती हूं।

    चारों पहर में किस समय लिखना आपको अधिक सुविधाजनक लगता है?

    मेरा एक शेर है-

    जहां ठहरे, वहीं बिस्तर बिछा के सो लिए हम तो।

    सुलगती धूप हो या छांह, वहीं खुश हो लिए हम तो।

    बस, इसी तरह जब मन में विचार घुमड़ते हैं और दो पल थमने के लिए मिल जाता है, तो हाथों में कागज-कलम या लैपटॉप जो भी मिले, मेरा लेखनकार्य उसी समय हो जाता है!

    (स्मिता)