यहां मौजूद हैं कबीर के बीजक
<p>संत कबीर का चंपारण से गहरा लगाव था। यहां आज भी उनसे जुडी कई यादें हैं। चंपारण के कबीर मठ और स्तूप इसके प्रमाण हैं। इनमें सबसे खास करीब 600 वर्ष से अधिक पुराना बीज ग्रंथ [बीजक] है। 300 पन्नों का यह बीजक अब जीर्णशीर्ण हो चुका है। मगर इसे बचाने की सरकारी कोशिश नहीं हुई है। मूल बीजक </p>
संत कबीर का चंपारण से गहरा लगाव था। यहां आज भी उनसे जुडी कई यादें हैं। चंपारण के कबीर मठ और स्तूप इसके प्रमाण हैं। इनमें सबसे खास करीब 600 वर्ष से अधिक पुराना बीज ग्रंथ [बीजक] है। 300 पन्नों का यह बीजक अब जीर्णशीर्ण हो चुका है। मगर इसे बचाने की सरकारी कोशिश नहीं हुई है। मूल बीजक पर देश-विदेश के कई लोग शोध कर चुके हैं। फिलहाल, यह बेतिया के सागर पोखरा में कबीर पंथ की भगतही शाखा के चटिया बडहरवा मठ के महंत आचार्य रामरूप गोस्वामी के पास सुरक्षित है। यह कैथी व अवधी भाषा में लिखी है। आचार्य रामरूप गोस्वामी के गुरु रामखेलावन गोस्वामी ने 1938 में इसका हिन्दी अनुवाद कराया। तब 472 पेज वाली इस पुस्तक की कीमत एक रुपये चार आना थी। दरअसल, अपनी उलटवाणी से सामाजिक कचरे को साफ करनेवाले संत कबीर का चंपारण आगमन कठिन दौर में हुआ था। तब उत्तर बिहार में बौद्ध धर्म का बिगडा रूप चरम पर था। ऐसे में कबीर ने शिष्य भगवान गोस्वामी के साथ चटिया पहुंचकर अपने ज्ञान गंगा को प्रवाहित किया। गांव की भाषा में इसे डीह जगाना कहते हैं। मसि कागद छुयो नहीं, कलम गहो नहीं हाथ. वाले कबीर ने यहां भगवान गोस्वामी को जो बीज मंत्र दिया वही बीजक कहलाया। गोस्वामी ने बीजक को गोपनीय रखा। वे कुछ दिनों के लिए लुप्त हो गए। सो, कुछ लोग उन्हें भग्गूदास भी कहने लगे। उन्हीं के प्रयास से यह बीजक बचा रहा। मूल बीजक को ही आगे- पीछे करके इसके विभिन्न रूपों का विकास हुआ। महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो.वासुदेव सिंह ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि -जब कबीर पिथौरागढ की यात्रा पर थे तो निम्बार्क संप्रदाय के विद्वान भगवान गोस्वामी से उनकी भेंट हुई। गोस्वामी ने कबीर को शास्त्रार्थ की चुनौती दी, लेकिन कबीर भारी पडे। तब उन्होंने कबीर का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया।
बेतिया। [अनिल तिवारी]।