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    21 वीं सदी में हिंदी कविता और 10 कवि

    By Edited By:
    Updated: Mon, 21 May 2012 04:00 PM (IST)

    कवि ने कहा सीरीज चर्चित रही है। इसमें अब 10 और कवियों का चयन किया गया है। इस बार इस चयन-श्रृंखला में जुडी हैं चंद्रकांत देवताले, विनोद कुमार शुक्ल, भगवत रावत, विश्वनाथप्रसाद तिवारी, इब्बार रब्बी, राजेश जोशी, वीरेन डंगवाल, अरुण कमल, कुमार अम्बुज और कात्यायनी की चुनी हुई कविताएं।

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    ओम निश्चल

    कवि ने कहा सीरीज चर्चित रही है। इसमें अब 10 और कवियों का चयन किया गया है। इस बार इस चयन-श्रृंखला में जुडी हैं चंद्रकांत देवताले, विनोद कुमार शुक्ल, भगवत रावत, विश्वनाथप्रसाद तिवारी, इब्बार रब्बी, राजेश जोशी, वीरेन डंगवाल, अरुण कमल, कुमार अम्बुज और कात्यायनी की चुनी हुई कविताएं।

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    यों इस सीरीज की परिकल्पना में बेशक कवियों की वरिष्ठता सूची को तनिक नजरंदाज किया गया हो, किन्तु अब इससे समकालीन कविता के लगभग सभी जाने माने कवि जुड चुके हैं। वय:श्रेष्ठता के अनुसार इस सीरीज के प्रथम कवि हैं चंद्रकांत देवताले। दशाधिक संग्रहों के इस वयस्श्रेष्ठ कवि की कमान आज भी ढीली नहीं हुई है। साठोत्तर कविता के दौर में हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से और लकडबग्घा हंस रहा है जैसे संग्रहों ने उन्होंने तब के हिंसक समय को काव्यात्मक प्रतीकों से रचने बुनने की एक अप्रतिहत कोशिश की थी। हाल में आए संग्रहों- उजाड में संग्रहालय और जहां थोडा सा सूर्योदय होगा से उन्होंने देश-काल की परिस्थितियों को अपने अनुभवों की नई रोशनी में उजागर किया है। विनोद कुमार शुक्ल अपनी कविता की विरल अंत‌र्ध्वनियों में कवि-समाज में अलग से ही पहचाने जाते हैं। उन्होंने उपन्यासों- नौकर की कमीज और खिलेगा तो देखेंगे को भी एक खास तरह की काव्यभाषा में रचा है। तब फिर उनकी कविताएं क्यों न कथ्य और शिल्प की बारीकी के लिए जानी जाएं। अपने पिछले संग्रह अतिरिक्त नहीं में उन्होंने लिखा था, एक पेड में कितनी सारी पत्तियां हैं, अतिरिक्त एक पत्ती नहीं। जीवन के तमाम आधिभौतिक प्रश्नों को उन्होंने अपने परीक्षित मितकथन से आकलित किया है। जाते जाते ही मिलेंगे लोग उधर के कविता बताती है कि केवल वाक्य को सलीके से बरत कर वे उसे कितनी असाधारण कविता में बदल सकते हैं: जाते जाते छूटता रहेगा पीछे/ जाते जाते बचा रहेगा आगे/ जाते जाते कुछ भी नहीं बचेगा जब/ तब सब कुछ पीछे बचा रहेगा/ और कुछ भी नहीं में सब कुछ होना बचा रहेगा। हम न भूलें कि वे मुक्तिबोध के संगी साथियों में रहे हैं किन्तु उन्होंने कविता की जो अपनी कलम तैयार की है वह हिंदी के कवि-समाज में सबसे विरल है।

    कई कविता संग्रहों के बावजूद जैसे आज भी कविता की पाठशाला के होनहार विद्यार्थी लगते हैं। उनकी कविता में समय की खरोंचों के बारीक निशाने देखे जा सकते हैं। यही वजह है कि उनकी भेदिया आंखों से यह अलक्षित न रह सका: हमने उनके घर देखे/ घर के भीतर घर देखे/ घर के भी तलघर देखे। ऐसी कैसी नींद से उनकी कविता की दुनिया एक नया करवट लेती है। एक आधुनिक कबीर उनके भीतर गाता हुआ मिलता है। कबीर ने कहा है: मैं केहिं समझावऊं ये सब जग अंधा। भगवत जी कहते हैं.. बस उसी को समझा नहीं पाया जिसे समझाने में बिता दी उम्र/.. बस एक वही नहीं था जिसे होना था जीवन में/ कम से कम एक बार। इस सीरीज में यदि कोई कवि विचारधारा से छिटका हुआ दिखता है तो वे हैं विश्वनाथप्रसाद तिवारी। निर्बध मति और प्रज्ञा के कवि तिवारी किसी वैचारिकी से शासित होने वाले कवि नहीं है, हां, लोक का अनुशासन उन्हें मान्य है। इसीलिए वे अपनी कविताओं में मनुष्यता का दुख बांचते हैं, अम्बपाली के संशय का हल खोजते हैं, मिट्टी की काया में ब्रšांड की वेदना महसूस करते हैं। मां पर कविताएं लिखकर एक दौर में उन्होंने चर्चा पाई थी, उन्होंने माना था कि कविता आदमी का सबसे सुंदर सपना है। जीवन की हलचल को निकट से महसूस करते हुए वे यह कहना नहीं भूलते कि.. सच् हो जाती है कैसी भी पीडा/ कट जाता है कितना एकांत। किंतु अनुभूति के इतने मार्मिक रसायन से कविता बुनने वाले तिवारी को आलोचना ने जैसे किसी ठंडे बस्ते में डाल रखा है।

    इब्बार रब्बी अपने अनेक समकालीनों रघुवीर सहाय, मंगलेश डबराल, विष्णु नागर आदि की तरह पत्रकारिता से सम्बद्ध रहे हैं किंतु ऐसे कवियों को इस दृष्टि से देखा जाता रहा है कहीं अखबारी यथार्थ इन कवियों की कविता पर हावी तो नहीं है। रब्बी अच्छे कवि हैं पर उनकी कविता पर हिंदी में ज्यादा चर्चा नहीं हुई है। उनकी यह ख्वाहिश उनकी एक कविता में दर्ज है जहां कवि उस एकांत की तलाश में है जहां वह सुखा सके गीली कविताएं और पोंछ सके रोती हुई औरत के आंसू। क्या यह जगूडी के उस कथन की याद नहीं दिलाती जिसमें वे कहते हैं- मेरी हर कविता उस आंख की दरख्वास्त है जिसमें आंसू हैं।

    राजेश जोशी हमारे समय के लोकप्रिय कवियों में हैं। उनकी कविता में वह सब कुछ है जो एक पापुलिस्ट कविता में होना चाहिए। बच्चे काम पर जा रहे हैं से चर्चित राजेश का यह कहना मानी रखता है कि कविता हमारे समय की वह आखिरी आवाज है जिसे बाजार और हिंसा अभी तक मलिन नहीं कर सकी है। इस संचयन में उनकी वे सभी लोकप्रिय कविताएं हैं मसलन: मारे जाएंगे, जब तक मैं एक अपील लिखता हूं, यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है आदि-आदि जिन्हें सुनाकर कविता-विमुख समाज में कविता के प्रति ललक पैदा की जा सकती है। वीरेन डंगवाल कविता लिखते हुए कब पैंसठ के हो गए, पता ही नहीं चला। कल तक युवा कवियों में शुमार किये जाने वाले वीरेन की कविताओं में तरह-तरह की आवाजें, कोलाहल और कलरव है जो जीवन की धमनियों में बजता हुआ सुनाई देता है। हालांकि उनका अब तक सर्वोत्तम कविता संग्रह दुष्चक्र में स्नष्टा ही है जहां जीवन अपनी सम्पूर्ण ध्वनियों के साथ प्रतिबिम्बित है। कभी उनकी कविता राम सिंह को बलदेव खटिक (जगूडी) या रामदास (रघुवीर सहाय) से तुलनीय माना जाता रहा है किन्तु बाद में उनकी अनेक वे कविताएं जिनमें छंद का बेहतरीन इस्तेमाल है और तमाम ऊबड खाबड बिम्बों की दुनिया है ज्यादा सराही गयीं। इतने भले नहीं बना जाना साथी जैसे सर्कस का हाथी जैसे कविताओं के लिए तो वे चर्चित हैं ही पर उजले दिन जरूर शीर्षक से उन्होंने जो उम्मीद का गीत लिखा है वह निराशा पर आशा की मजबूत दस्तक की तरह है।

    अरुण कमल को जब भारत भूषण पुरस्कार मिला था तो उन्हें अशोक वाजपेयी ने अपरिपक्व कवि कह कर लांछित किया था। आज वही अरुण कमल जब नए इलाके में, पुतली में संसार तथा मैं वो शंख महाशंख में दिखते हैं तो कविता की कसौटियां छोटी पड जाती हैं। इस चयन में हम अरुण के काव्य स्तबक की वे समस्त पंखुडियां देख सकते हैं जिनमें हिंदी कविता में जीवन-समाज को देखने के अनेक नए बिंब और शैलियां समाहित हुई हैं। कुमार अम्बुज ने किंवाड, क्रूरता, अनंतिम, अतिक्रमण से लेकर अमीरी रेखा तक अपने काव्य सौष्ठव का लोहा मनवाया है। वे कविता को अचीन्ही कोमलता और इस आदर्शविहीन समय की निर्मनुष्यता के सबसे निचले पायदान तक ले गए हैं जहां यह दुनिया मेज पर किसी अमीर बिल्डर के अधखाये हुए फल की तरह है। पूंजी के जबडे में कराहती इस सभ्यता को कुमार ने अपनी संवेदना के बारीक स्कैनर से चित्रित किया है। कात्यायनी स्त्री जीवन के अनेक प्रश्नों को उठाने वाली एकमात्र ऐसी कवयित्री हैं जिन्हें केवल नारीवादी होने के नाते नहीं, कविता में स्त्री-स्वर की तीखी मुखरता और विचारधारा की पक्षधरता के लिए जाना जाता है। एक कविता-कार्यकर्ता का जीवन जीने वाली कात्यायनी ने इस पौरुषपूर्ण समय में पहली बार कविता में स्त्री की उपस्थिति का सघन अहसास कराया था। बाद में फुटपाथ पर कुर्सी और जादू नहीं कविता जैसे संग्रहों ने उनकी कविता पर लगातार उत्कृष्टता की मुहर दर्ज की। आखिर बात-बात पर पुरुषों को कटघरे में खडा करने वाली कवयित्रियों में वे ही हैं जिन्होंने यह लिखा है: सभी वासनाएं दुष्ट नहीं होतीं। इस श्रृंखला में 21 वीं सदी के लगभग सभी श्रेष्ठ कवियों से साक्षात्कार हो जाता है।

    कवि ने कहा सीरीज: चंद्रकांत देवताले, विनोद कुमार शुक्ल, भगवत रावत, विश्वनाथप्रसाद तिवारी, इब्बार रब्बी, राजेश जोशी, वीरेन डंगवाल, अरुण कमल, कुमार अम्बुज, कात्यायनी की चुनी हुई कविताएं। प्रकाशक: किताबघर प्रकाशन, 24, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली, मूल्य: प्रत्येक: 190 रुपये।

    जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली- 59