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    सामाजिक यथार्थ के महान साधक चा‌र्ल्स डिकेंस और प्रेमचंद

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    Updated: Mon, 26 Mar 2012 04:55 PM (IST)

    विश्व-साहित्य में अपने समय के समाज और मुख्यरूप से उनसे जुडी समस्याओं को जैसा देखा वैसा ही रचनात्मकता के साथ प्रस्तुत करने वाले यथार्थवादी रचनाकारों की परम्परा में अंग्रेजी साहित्य में चा‌र्ल्स डिकेंस (1812-1870) और भारतीय साहित्य में प्रेमचंद (1880-1936) निर्विवाद रूप से उच्चकोटि के उपन्यासकार माने जाते हैं। अपने-अपने देश, काल व परिस्थितियों के अनुसार उन्होंने साहित्य के माध्यम से जो प्रस्तुत किया वो आज भी लगभग सभी वर्ग के पाठकों पर अमिट छाप छोडने में सक्षम है।

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    विश्व-साहित्य में अपने समय के समाज और मुख्यरूप से उनसे जुडी समस्याओं को जैसा देखा वैसा ही रचनात्मकता के साथ प्रस्तुत करने वाले यथार्थवादी रचनाकारों की परम्परा में अंग्रेजी साहित्य में चा‌र्ल्स डिकेंस (1812-1870) और भारतीय साहित्य में प्रेमचंद (1880-1936) निर्विवाद रूप से उच्चकोटि के उपन्यासकार माने जाते हैं। अपने-अपने देश, काल व परिस्थितियों के अनुसार उन्होंने साहित्य के माध्यम से जो प्रस्तुत किया वो आज भी लगभग सभी वर्ग के पाठकों पर अमिट छाप छोडने में सक्षम है। दूसरे शब्दों में कहें, तो कालजयी है। एक ही परम्परा के वाहक होने के बावजूद दोनों लेखक अपने-अपने स्थान पर बेजोड हैं इसलिए तुलनात्मक चर्चा करना शायद न्यायसंगत न हो। पर, वैश्वीकरण के युग में एक का नाम आते ही दूसरे के स्मरण से बच पाना भी सम्भव नहीं है। डिकेंस अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में 19 वीं शताब्दी में रानी विक्टोरिया के नाम से प्रसिद्ध विक्टोरियन युग के प्रतिनिधि रचनाकारों में से एक रहे, तो वहीं दूसरी ओर प्रेमचंद 20 वीं शताब्दी के शुरुआती दौर में आधुनिक हिंदी साहित्य में यथार्थवाद का सूत्रपात करने वाले पहले उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। जब इंग्लैंड लगभग हर क्षेत्र में समृद्धि और सम्पन्नता के शीर्ष पर माना जा रहा था, उस समय डिकेंस ने अपने औपन्यासिक चरित्रों के माध्यम से लंदन जैसे शहरों में व्याप्त सामाजिक समस्याओं और कुरीतियों का यथार्थवादी चित्रण अपने साहित्य के माध्यम से किया। प्रेमचंद ने भी रानी-राजा, परियों व देवी-देवताओं से जुडे विषयवस्तुओं से परे होकर भारतीय साहित्य को सीधे समाज से जोडा। अपनी रचनाओं में तत्कालीन समाज के ठेकेदारों की परवाह न करते हुए भारत की सामाजिक दशा और समस्याओं का बडा ही सटीक यथार्थ प्रस्तुत किया। उनकी रचनाओं में वरदान (1912), सेवासदन (1918), प्रेमाश्रम (1922), रंगभूमि (1925), कायाकल्प (1926), निर्मला (1927), प्रतिज्ञा (1929), गबन (1931), कर्मभूमि (1932), गोदान (1936) आदि उपन्यास प्रमुख हैं। उन्होंने कहानियां और नाटक भी लिखे। प्रेमचंद ने उर्दू और हिंदी साहित्य के साथ-साथ पश्चिमी साहित्य का भी गहन अध्ययन किया था। जिसमें रूसी, फ्रेंच और अंग्रेजी साहित्यकारों की कृतियां शामिल थीं। अंग्रेजी साहित्य में मुख्यरूप से उन्होंने यथार्थवादी साहित्यकारों को पढा। डिकेंस भी उनमें से एक रहे। इसकी चर्चा उन्होंने अपने लेखों में की है।

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    दोनों ही लेखकों ने अपने-अपने समाज के निचले वर्ग से जुडी समस्याओं को बहुत करीब से देखा और अनुभव किया था। एक दर्जन से भी अधिक उपन्यासों के लेखक रहे डिकेंस द्वारा यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ लिखी गयी प्रमुख कृतियों में पिकविक पेपर्स (1836-37), ऑलिवर ट्विस्ट (1837-39), निकॅलस निकिलबाई (1838-39), दि ओल्ड क्यूरिआसिटी शॉप (1840-41), मार्टिन च्वॅजिलेविट (1843-44), द क्रिसमस बुक्स (1843-48), डॉम्बे एंड सॅन् (1846-48), डेविड कॉपरफील्ड (1849-50), ब्लीक हाउस (1852-53), हार्ड टाइम्स (1854), लिटिल डॅरिट (1855-57), ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स (1860-61), अवर म्यूचुअल फ्रेंड (1864-65), आदि उल्लेखनीय हैं। अधिकांश रचनाओं में अपने बचपन से जुडी स्मृतियों के माध्यम से डिकेंस इंग्लैण्ड की सामाजिक व आर्थिक दशा के साथ-साथ उस समय के बच्चों की दयनीय दशा को भी दर्शाते हैं। ब्लीक हाउस, लिटिल डॅरिट, डेविड कॉपरफील्ड, डॉम्बे एंड सॅन् आदि उपन्यासों में उनके खुद के बचपन की झलक आत्मकथात्मक शैली में मिलती है। अन्य कृतियों जैसे ऑलिवर ट्विस्ट, ग्रेट एॅक्सपेक्टेशन्स आदि में भी उनके जीवन की कुछ घटनाएं अप्रत्यक्ष रूप से देखी जा सकती हैं। ज्ञात हो कि डिकेंस का बचपन अभावों में बीता था। अपने परिवार की खराब आर्थिक स्थिति के कारण उन्हें स्कूल छोडना पडा और कारखानों आदि में मजदूरी जैसे कार्य करने पडे। इसीप्रकार प्रेमचंद ने भी अपनी शिक्षा-दीक्षा प्रतिकूल परिस्थितियों में पूरी की थी। बचपन में ही माता और युवा होते-होते पिता की मृत्यु के साथ-साथ उन्हें अनेक तरह की पारिवारिक समस्याओं से भी दो-चार होना पडा। उस समय के उच्च व निम्न वर्ग के बीच के सामाजिक संघर्षो का उन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया था। इसका उदाहरण उनके गोदान में मजदूर-किसान और महाजनों के मध्य के अति कटु संबंधों के मार्मिक वर्णन में मिलता है।

    डिकेंस के सफल यथार्थवादी उपन्यासों के पीछे उनकी वर्णनात्मक शैली का बहुत बडा योगदान माना जाता है। इसकी वजह से आलोचकों ने उनके कुछ उपन्यासों के कथानकों में जटिलताएं भी पायीं। पर, घटनाओं व चरित्रों का विस्तृत रूप से किया गया वर्णन तत्कालीन अंग्रेजी समाज से जुडी घिनौनी वास्तविकताओं को साहित्यिक पृष्ठों पर आज भी जीवन्त कर देते हैं। इस संदर्भ में उनका उपन्यास ब्लीक हाउस उल्लेखनीय है, जो उपकथानकों व चरित्रों की अधिकता के बावजूद सामाजिक समस्याओं का यथार्थवादी चित्रण पाठकों के समक्ष रचनात्मकता के साथ प्रस्तुत करता है। उपन्यास में व्यंग्य के पुट उनके शैलीगत विशेषताओं में से एक है। जैसे किसी यंत्र के ठीक ढंग से कार्य करने में चिकनाई हेतु तेल आदि का उपयोग है, उसीप्रकार उसकी व्यंग्यात्मक शैली रचनाओं को लोकप्रिय बनाने के साथ-साथ उसके सुधारवादी दृष्टि का भी द्योतक है। डिकेंस के समान प्रेमचंद ने भी यथार्थवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए अपनी रचनाओं में आम जनमानस की विवशताओं को व्यंग्यात्मक शैली में उकेरने का सफल प्रयास किया है। इस संदर्भ में गोदान के होरी का यह प्रसिद्ध कथन उल्लेखनीय है, यह इसी मिलते-जुलते रहने का परसाद है कि जान बची हुई है। नहीं, कहीं पता न लगता कि किधर गये। गांव में इतने आदमी तो हैं किस पर बेदखली नहीं आयी, किस पर कुडकी नहीं आयी। जब दूसरों के पांवों तले अपनी गर्दन दबी हुई है, तो उन पावों को सहलाने में ही कुशलता है। शोषितों के प्रति संवेदना के स्तर पर कहीं भी समझौता न करते हुए उस समय के शोषक समाज पर व्यंग्यात्मक शैली में धारदार भाषा का प्रयोग उनकी कहानियों दो बैलों की कथा, पूस की रात, कफन आदि में भी देखा जा सकता है।

    अधिकांश आलोचक भारतीयता से ओत-प्रोत आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद के लेखक प्रेमचंद पर डिकेंस का प्रत्यक्ष प्रभाव तो नहीं मानते हैं, पर, दोनों के विषय और दृष्टिकोण में समानताओं की चर्चा जरूर करते हैं। जर्मन विद्वान सीग्फ्रीड ए. शुल्स ने प्रेमचंद को अन्य पश्चिमी साहित्यकारों की अपेक्षा डिकेंस से अत्यधिक प्रभावित माना है। एक अन्य आलोचक डा. कृष्णचंद्र पाण्डेय ने इस विषय पर प्रकाश डालते हुए अपने शोधग्रन्थ प्रेमचंद के जीवन-दर्शन के विधायक-तत्व में लिखा है कि समानताएं भी दोनों की अपने युग की समान परिस्थितियों और समान रुचि के कारण हो सकती हैं जिसे एक संयोग मानना चाहिए न कि प्रभाव। डिकेंस और प्रेमचंद के साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर विचारोपरान्त लगभग सभी आलोचक व विद्वान एकमत से विश्व-साहित्य में सामाजिक यथार्थवाद के महान साधकों की अग्रिम पंक्ति में दोनों को पाते हैं।

    वेदमित्र शुक्ल मयंक, असिस्टेंट प्रोफेसर (अंग्रेजी विभाग) राजधानी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-110015