Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    अदम एक किसान गजलगो

    अदम के पास जो है वह समकालीन हिंदी कविता में किसी के पास नहींहै। उन्होंने अधिक नहीं लिखा मगर जो लिखा महत्वपूर्ण लिखा।

    By Edited By: Updated: Sun, 29 Jan 2012 07:17 PM (IST)
    Hero Image

    अदम के पास जो है वह समकालीन हिंदी कविता में किसी के पास नहींहै। उन्होंने अधिक नहीं लिखा मगर जो लिखा महत्वपूर्ण लिखा।

    अदम ने 1975 में एक गजल लिखी थी- आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को। उनकी कलम का ताप धीरे-धीरे पूरे देश में महसूस किया गया। मां-बाप का दिया नाम रामनाथ सिंह पीछे छूटता गया, स्वयं का दिया नाम (तखल्लुस) अदम आगे बढता गया। गोण्डा के पिछडे इलाके परसपुर आटा गांव में पैदा किसान का बेटा अपनी शायरी की बदौलत पूरे देश में अदम गोण्डवी के रूप में पहचाना गया।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    हिंदी गजलों के इतिहास में (यदि उसका तथाकथित उर्दू गजलों से अलग वास्तव में कोई इतिहास है तो) दुष्यंत कुमार के बाद यकीनन सबसे चमकदार और रेखांकित किया जा सकने वाला नाम, अदम का ही ठहरता है। गजल को जो एक नया राजनैतिक मुहावरा आपातकाल के दौरान दुष्यंत ने दिया था, अदम ने उसे जनवाद की धार दी और रोज-रोज की जिंदगी में कुटते-पिसते-लुटते आमजन को गजल की मारक क्षमता का स्वाद चखाया और उसके संघर्ष में काव्यात्मक हिस्सेदारी की। कहां तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए/ कहीं चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए में फिर भी गजल की एक पारंपरिक पर्दादारी थी। अदम ने उसे काजू भूनी प्लेट में ”िस्की गिलास में/ आया है रामराज विधायक निवास में का नया राजनैतिक मुहावरा दिया। और वह भी साए में धूप के एक दशक के भीतर ही।

    जो काम कवि धूमिल ने कविता को सडक की जबान देकर किया था, अदम ने वही काम गजलों को पगडंडी और चौपाल की भाषा से नवाज कर किया। दुष्यंत गजल को किताब के बाहर सडक तक लाने में सफल रहे तो अदम उसे सफलतापूर्वक नुक्कडों तक ले गए। जाहिर है कि इसमें साहित्यिक भाषा को अपनी पर्ते खोलनी भी पडीं और खोनी भी। जो था, वह आग की तरह साफ था और पानी की तरह जरूरी भी। नजीर (अकबरावादी) और नागार्जुन की तरह।

    धूमिल, दुष्यंत और अदम, तीनों ने समकालीन हिंदी कविता (गजल भी कविता ही है) की संसदीय परंपरा, चिंता और भाषा से इसे मुक्त कराकर सडक, फुटपाथ, चौपाल की परंपरा और संघर्ष-धारा से जोडा। फर्क है तो बस यही कि दुष्यंत के पास एक अदद तुम किसी रेल सी गुजरती हो/ मैं किसी पुल सा थरथराता हूं/ तेरी आंखों में एक जंगल है/ मैं जहां राह भूल जाता हूं, भी है। नागार्जुन के पास यदि आओ रानी हम ढोएंगे पालकी तथा बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक है तो सिंदूर तिलकित भाल भी है। परंतु अदम के पास? सिर्फ भूख के एहसास को शेर-ओ-सुखन तक ले चलो/ या अदम को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो, है। मगर जो भी है, है बहुत करारा और बेजोड।

    दरअसल अदम ने गांव की बैठकी-बतकही से शुरुआत की और घूम-फिर के वहीं तक बने रहे। गांव से जुडे दूसरे रचनाकार बसते शहर में हैं, गांव आते-जाते रहते हैं। अदम बसते गांव में थे और शहर आते-जाते रहते थे। यह फर्क बहुत बडा फर्क रहा। दूसरा फर्क शिक्षा और अध्ययन का था। अदम की सामाजिक, राजनैतिक, पाठशाला गांव-गुरबा की पीडा और संघर्ष थी। वे अंतत: एक गंवई नागरिक थे। उनका अर्थशास्त्र खेतों के अर्थशास्त्र तक सीमित था। वामपंथ से उनका जुडाव या तो नैसर्गिक था या गोण्डा जैसे कस्बाई जिले के पार्टीजनों के माध्यम से था, जहां उन्होंने इंकलाब जिंदाबाद भी सीखा और चिलम चढाना भी। वामपंथ को उन्होंने गोष्ठियों में सुनकर जाना था मगर जिंदगी को घोर गरीबी में पहचाना था- फटे कपडों में तन ढांके गुजरता है जहां कोई/ समझ लेना वो पगडंडी अदम के गांव जाती है। सुना है अब वो पगडंडी पिच रोड बनने वाली है। 67 वर्ष के उनके अनवरत संघर्ष का यह नतीजा रहा मरणोपरांत। अदम जब पैदा हुए (22 अक्टूबर 1948) तब उनके परिवार पर क्या कर्ज था, पता नहीं। परंतु जब वे गये तो उनके ऊपर देश के किसानों की तरह खासा कर्ज था। गालिब से लेकर अदम तक कर्ज छोडकर मरे थे। अदम बीमारी की स्थिति में लखनऊ के पी.जी.आई. अस्पताल में लगभग लावारिस की तरह धक्के खाते रहे, तब तक जब तक सपा सुप्रीमो की मदद उन तक न पहुंची। यही तो स्थिति पूरे देश के आमजन की है, जिसे अदम ने जबान दी थी- सौ में सत्तर आदमी जब देश में नाशाद है/ दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आजाद है?

    याद करिए फैज की वो लाइनें- ये दाग दाग उजाला ये शब गजीदा सहर/ वो इंतजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं। जरा महसूस करिए आजादी के तुरंत बाद लिखी फैज की नज्म और आजादी के लगभग 50 वर्ष बाद लिखी अदम की गजल के कथ्य की समानता और अभिव्यक्ति की बुनावट के फर्क को। एक फर्क यह भी है कि फैज के पास मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब ना मांग भी है जो अदम के पास नहीं है। मगर अदम के पास जो है वह समकालीन हिंदी कविता में किसी के पास नहीं है- सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे/मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।

    अदम के कुल तीन संग्रह आए- गर्म रोटी की महक (2002) और समय से मुठभेड (2010) के बीच उनका एक संग्रह और था- धरती की सतह पर। तीनों संग्रहों की आधे से अधिक सामग्री समान है। अदम ने अधिक नहीं लिखा और जो कुछ भी महत्वपूर्ण लिखा, वह आठवें दशक के अंत और नवें दशक के अंत के बीच ही लिखा। पिछले डेढ दो दशक से उनकी रचना-यात्रा लगभग स्थगित रही। 1998 में उन्हें मध्य प्रदेश सरकार का दुष्यंत कुमार पुरस्कार मिला।

    मंच और मीडिया ने अदम की कविताओं को लोकप्रिय बनाया, एक नया फलक दिया मगर उसकी भरपूर कीमत भी वसूली। अदम कविता की लोकप्रियता के फ्रेम में बंधकर रह गए। अदम का छोटा सा रचना संसार उत्तेजक और आकर्षक है, परंतु विविध नहीं। उनकी गजलों में असंतोष है, आत्मीयता नहीं। अदम की गजलें खदबदाते गुस्से का इजहार हैं, गम का नहीं। अदम की शायरी बहुरंगी नहीं है। यह बात उनके मुकम्मल और बडे शायर के रूप में मूल्यांकन के आडे आ सकती है मगर समकालीन हिंदी गजल की दुनिया में अदम जहां हैं, वहां वे एकमात्र हैं। जबान पर चढ जाने वाली और झकझोर देने वाली वह सच्चाई, वो ताप, तल्खी-तुर्शी और सपाट बयानी किसी के पास नहीं है। शायरी की दुनिया में अदम ताउम्र एक किसान रहे। अल्पमत देहाती आवश्यकताएं, न्यूनतम भाषा और बेलाग अभिव्यक्ति, कलात्मक अभिव्यक्ति यदि तलाशनी है तो इसी में तलाशिए। उनकी गजलें श्रम-सौंदर्य की गजलें हैं, जुल्फ, अंगडाई, तबस्सुम, चांद, आईना, गुलाब की नहीं। कविता में ललकारना यदि किसी रस-सिद्धांत में समादृत हो सकता है तो अदम उसी के कवि थे।