राजस्थान के उदयपुर में है जावर शक्तिपीठ, अलाउद्दीन खिलजी भी कभी दे चुका है यहां दस्तक
हमारे देश में कई सारे शक्तिपीठ हैं जिनका काफी पुराना इतिहास है। इसी क्रम में जावर शक्तिपीठ भी काफी प्रसिद्ध है जहां विदेशी भी माता के दर्शन के लिए पहुंचते हैं। बताया जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 11वीं सदी में किया गया है।
उदयपुर, (सुभाष शर्मा)। देश में ऐसे कई शक्तिपीठ हैं जिन्हें ज्यादातर देशवासी जानते हैं, किन्तु बहुत कम लोग ऐसे होंगे, जिन्हें किसी ऐसे शक्तिपीठ के बारे में पता है, जिसे कभी दुनिया की आधी आबादी जानती थी।
हम बात कर रहे हैं उदयपुर जिले के जावर स्थित शक्तिपीठ जावर माता की।
जिंक नगरी के रूप में पहचान रखने वाला कस्बा जावर की पहचान सातवीं सदी में अर्थसिटी के रूप में थी और यहां की माइंस दुनिया में सबसे ज्यादा चांदी उगला करती थी। आज भी यहां की खदानें जिंक और चांदी उगलती हैं, जो हिन्दुस्तान जिंक की इकाई है।
जावर माता मेवाड़ की सबसे प्राचीन शक्तिपीठ है। यह कथा प्रचलित है कि प्राचीन काल में देवी मां के समक्ष तब जेवर चढ़ाने की परम्परा थी और इसीलिए इसका नाम जावर माता पड़ गया।
11 वीं सदी का है मंदिर
उदयपुर से लगभग चालीस किलोमीटर दूर जावर माइंस से पहले रास्ते में ही जावर माता का मंदिर पड़ता है। मंदिर से जुड़े शिलालेखों के मुताबिक, यह शक्तिपीठ ग्यारह सौ साल पहले की है। हालांकि, मंदिर का निर्माण कब हुआ, स्पष्ट नहीं कहा जा सकता।
पुरातत्व विभाग में शोध कर रही छात्रा आस्था शर्मा बताती है कि जावर माता मंदिर के गर्भ गृह के बाहर सैकड़ों प्रतिमाएं लगी हुई हैं। इस तरह के मंदिर नौवीं तथा दसवीं शताब्दी के बीच ही मनाए जाते थे। ये प्रतिमाएं विशेष प्रयोजन तथा पौराणिक कथाओं को समेटे हुआ करती हैं।
महाराणा लाखा काल के ताम्रपत्र में जावरमाता मंदिर का उल्लेख
महाराणा लाखा काल के एक ताम्रपत्र में इस मंदिर के बारे में उल्लेख है कि मेवाड़ राजघराने ने पुजारी परिवार को मंदिर के लिए भूमि दान दी थी। यह शक्तिपीठ इसलिए भी अनोखा है कि देशभर में महिषासुरमर्दिनी के रौद्र रूप की प्रतिमाएं मिलती है लेकिन यहां महिषासुरमर्दिनी का रूप शांत है। पूर्वमुखी मंदिर के पश्चिम दिशा के चोकोर गर्भगृह में सैकड़ों साल पुरानी प्रतिमा आज भी स्थापित है।
मां भक्तों की मनोकामनाएं करती हैं पूरी
मान्यता, यहां आने वाले भक्त की हर मनोकामना पूरी होती है इसीलिए यहां विदेशियों का भी आना लगा रहता है। यहां लोग माता के दर्शन एवं मंदिर की प्राचीनता एवं पत्थर पर उत्कीर्ण काम को देखने आते हैं। इस मंदिर के गर्भगृह के बाहर चौसठ स्तम्भ तथा ऊपर की ताल पर 32 स्तम्भ हैं, जिन पर अप्सराओं की प्रतिमाएं लगी हुई हैं।
तुर्क और मुगलों ने किया था मंदिर पर आक्रमण, भामाशाह ने कराया जीर्णोंद्धार
इतिहास में इस मंदिर पर तुर्क और मुगल आक्रमणों की जानकारी लिखी है। अलाउद्दीन खिलजी के साल 1303 में जावर को लूटने का इतिहास है। इतिहास में उल्लेख है कि इस मंदिर में पहले भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित थी। अलाउद्दीन खिलजी ने जब चित्तौड़ पर हमला किया तब उसने जावर को भी लूटा और इस मंदिर में स्थापित प्रतिमा को खंडित कर दिया। उसके बाद मेवाड़ के महाराणाओं ने यहां देवी की प्रतिमा स्थापित कराई थी। साल 1313 के बाद इस मंदिर का जीर्णोंद्धार भामाशाह ने कराया था।
ढाई हजार साल पहले समृद्ध नगर था जावर
जावर गांव ढाई हजार साल पहले समृद्ध नगर हुआ करता है। जिसकी पहचान आधी दुनिया तक औद्योगिक ही नहीं, बल्कि धार्मिक नगरी के रूप में हुआ करती थी। म्यूजियम ऑफ लंदन की खोज में इस बात का उल्लेख है कि ढाई हजार साल पहले यहां के लोग धातु विज्ञान में विशेषज्ञता प्रात कर चुके थे। इसी तरह अमेरिका एसोसिएशन ऑफ मेटल्स भी स्वीकार कर चुकी है कि सातवीं सदी में ही जावर भारत की प्रमुख अर्थ नगरी थी, जिसमें यहां के मंदिरों एवं धार्मिक महत्व का भी उल्लेख किया।