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66 नामधारी सिखों ने दी थी कुर्बानी

By Edited By: Published: Wed, 16 Jan 2013 07:44 PM (IST)Updated: Wed, 16 Jan 2013 07:45 PM (IST)

भूपेश जैन, मालेरकोटला (संगरूर) : एतिहासिक शहर मालेरकोटला की धरती पर देश की स्वतंत्रता के लिए नामधारी सिखों द्वारा चलाए गए कूका आंदोलन के तहत 66 नामधारी सिख शहीद हो गए थे। नामधारी सिखों की कुर्बानियों को जंग-ए-आजादी के एतिहासिक पन्नों में कूका लहर के नाम से अंकित किया गया है।

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असहयोग आंदोलन के दौरान संत गुरु राम सिंह ने 12 अप्रैल 1857 को श्री भैणी साहिब जिला लुधियाना से जब अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध आवाज उठाई थी, तब भारतवासी गुलामी के साथ-साथ अधर्मी, कुकर्मी व सामाजिक कुरीतियों के शिकार थे। इन परिस्थितियों में गुरु जी ने लोगों में स्वाभिमानता जागृत की। साथ ही भक्ति व वीर रस पैदा करने, देशप्रेम, आपसी भाईचारा, सहनशीलता व मिल बांट कर खाने के लिए प्रेरित किया।

सतगुरु राम सिंह एक महान सुधारक व रहनुमा थे, जिन्होंने समाज में पुरुषों व स्त्रियों की संपूर्ण तौर पर एकता का प्रचार किया, जिसमें वे सफल भी रहे। 19वीं सदी में लड़कियों के जन्म लेते ही उन्हें मार देना, बेच देना व शिक्षा से वंचित रखने जैसी सामाजिक कुरीतियां प्रचलित थीं। सतगुरु राम सिंह ने ही इन कुरीतियों को दूर करने के लिए लड़के-लड़कियों दोनों को समान रूप से पढ़ाने के निर्देश जारी किए।

सिख पुरुषों की तरह स्त्रियों को भी अमृत छका कर सिखी प्रदान की गई। बिना ठाका शगुन, बरात, डोली, मिलनी व दहेज के सवा रुपए में विवाह करने की नई रीत का आरंभ हुआ, जिसे आनंद कारज कहा जाने लगा। पहली बार 3 जून 1863 को गांव खोटे जिला फिरोजपुर में 6 अंतर्जातीय विवाह करवा कर समाज में नई क्रांति लाई गई। सतगुरु नाम सिंह की प्रचार प्रणाली से थोड़े समय में ही लाखों लोग नामधारी सिख बन गए, जो निर्भय, निशंक होकर अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध कूके (हुंकार) मारने लगे, जो इतिहास में कूका नाम से प्रसिद्ध हुए।

जब अंग्रेजों ने धर्म के नाम पर लोगों को लड़ने व गुलामी का अहसास करवाने के लिए पंजाब में जगह-जगह गो वध के लिए बूचड़खाने खोले, तब नामधारी सिखों ने इसका बड़ा विरोध किया व सौ नामधारी सिखों ने 15 जून 1871 को अमृतसर व 15 जुलाई 1871 को रायकोट बूचड़खाने पर धावा बोल कर गायों को मुक्त करवाया। इस बगावत के जुर्म में 5 अगस्त 1871 को तीन नामधारी सिखों को रायकोट, 15 दिसंबर 1871 को चार नामधारी सिखों को अमृतसर व दो नाम धारी सिखों को 26 नवंबर 1871 को लुधियाना में बट के वृक्ष से बांधकर सरेआम फांसी देकर शहीद कर दिया गया।

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मालेरकोटला का खूनी कांड

मलौद में एक हलकी मुठभेड़ के पश्चात 15 जनवरी 1872 में हीरा सिंह व लहिणा सिंह के जत्थे ने मालेरकोटला में धावा बोल दिया, जिसमें 10 नामधारी सिख लड़ते हुए शहीद हो गए। अंग्रेज प्रत्येक उस चिंगारी को बुझा देना चाहते थे, जो उनकी सत्ता के लिए नुकसानदायक हो। नामधारी सिखों को समाप्त करने के लिए मालेरकोटला के परेड ग्राउंड में देसी रियासतों से नौ तोपें मंगवाकर लगाई गईं। सात तोपें सात बार चलीं, जिसमें 49 नामधारी सिखों को आजादी के लिए टुकड़े-टुकड़े कर शहीद कर दिया गया। इस जत्थे में एक 12 वर्षीय बच्चा बिशन सिंह भी शरीक था, जिसे सिपाहियों ने सिर धड़ से अलग कर शहीद कर दिया। 18 जनवरी 1872 को 16 अन्य सिखों को तोपों से उड़ाकर शहीद कर दिया गया। इस तरह मालेरकोटला कांड में 10 सिख लड़ते हुए, 4 काले पानी की सजा काटते हुए, 65 सिखों को तोपों तथा एक सिख को तलवार से शहीद कर इन नामधारी सिखों को शहीद कर दिया गया। अंग्रेजों ने सतगुरु राम सिंह को गिरफ्तार कर लिया। नामधारी सिखों की कुर्बानियां रंग लाई और 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हो गया।

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