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गुरु श्री नानकदेव जी ने 38 हजार मील की पैदल यात्राओं से दिया 'सरबत दा भला' का संदेश

गुरु श्री नानकदेव ने 38 हजार मील की पैदल यात्राएं कर अनमोल संदेश दिया। यह संदेश था सरबत दा भला। गुरु की यह वाणी मानव मात्र के कल्‍याण का अद्भूत संदेश है।

By Sunil Kumar JhaEdited By: Published: Thu, 07 Nov 2019 10:41 AM (IST)Updated: Fri, 08 Nov 2019 09:47 AM (IST)
गुरु श्री नानकदेव जी ने 38 हजार मील की पैदल यात्राओं से दिया 'सरबत दा भला' का संदेश
गुरु श्री नानकदेव जी ने 38 हजार मील की पैदल यात्राओं से दिया 'सरबत दा भला' का संदेश

कपूरथला, [हरनेक सिंह जैनपुरी]। तमाम समस्याओं से घिरे तत्कालीन समाज को जगाने के लिए श्री गुरु नानक देव जी ने 38 हजार मील की पैदल यात्र कर चार उदासियां (पवित्र यात्रएं) की और दुनिया को सद्भावना और 'सरबत दा भला' का संदेश दिया। उन्होंने कर्म-कांड और जात-पात के खिलाफ जोरदार आवाज उठाई।

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श्री गुरु नानक देव ने दर्जनभर देशों के 248 प्रमुख नगरों का भ्रमण कर समाज के उत्थान के लिए कई क्रांतिकारी कदम उठाए। भाई मर्दाना को साथ लेकर पहला प्रहार जाति बंधन पर किया। पहले चरण में 79, दूसरे में 75, तीसरे में 35 और चौथे में 59 स्थलों की यात्र कर 'परमात्मा एक' का उपदेश दिया।

पहली उदासी : (1500 ई. से 1505 ई.)

सफर की शुरुआत 1500 ई. में श्री गोइंदवाल साहिब (अमृतसर) के छांगा-मांगा के जंगलों से की। इसके बाद गुजरावालां होते हुए लाहौर पहुंचे। वहां से कुरुक्षेत्र, करनाल, हरिद्वार, दिल्ली आगरा, मथुरा, अलीगढ़, कानपुर, लखनऊ, अयोध्या, इलाहाबाद, प्रयाग, बनारस, छपरा, हाजीपुर, पटना से गया गए। वहां से भागलपुर, गुवाहाटी, इंफाल, अगरतला, ढाका, जबलपुर, चित्रकूट, सागर, भोपाल, धौलपुर, भरतपुर, जींद, कैथल होते हुए पांच साल बाद 1505 ई. में वापस सुल्तानपुर लोधी पहुंचे।   

दूसरी उदासी: (1506 ई. से 1509 ई.)

सुल्तानपुर लोधी की धरती से दूसरी उदासी 1506 ई. में शुरू की। सबसे पहले वह बठिंडा व सिरसा से होते हुए बीकानेर पहुंचे। वहा से जैसलमेर, जोधपुर, पुष्कर, अजमेर, चित्तौडग़ढ़, उज्जैन, अहमदाबाद, बांसवाड़ा, इंदौर, होशंगाबाद, अमरावती, अकोला, बीदर, गोलकुंडा, हैदराबाद, विजयवाड़ा, तिरुपति, मद्रास, पुडुचेरी, तंजोर, तिरुचिरापल्ली, रामेश्वर, टिकोमाली (श्रीलंका), त्रिवेंद्रम, कोचीन, कोयंबटूर, कालीकट, मैसूर, बेंगलुरु, गोवा, पुणो, मुंबई, सूरत, बड़ौदा, जूनागढ़, सोमनाथ, द्वारका, मुलतान, पाकपटन व तलवंडी होते हुए 1509 ई. को सुल्तानपुर लोधी वापस पहुंचे।

तीसरी उदासी: (1514 ई. से 1516 ई.)

1514 ई. को तीसरी उदासी श्री करतापुर से कलानौर, कांगड़ा से होते हुए पालमपुर पहुंचे और वहा से चंबा, कुल्लू, मंडी, रिवालसर, रोपड़, देहरादून, मसूरी, गंगोत्री, बद्रीनाथ, अल्मोड़ा, रानीखेत, नैनीताल, श्रीनगर, गोरखपुर, सीतामढ़ी, काठमांडू, मानसरोवर, लेह, ताशकंद, किश्तवाड़, भद्रवाह, वैष्णोदेवी, रियासी, जम्मू, होते हुए 1516 ई. को वापस करतारपुर पहुंचे।

चौथी उदासी: 1518 ई.

1518 ई. से अपनी चौथी उदासी करतारपुर से शुरू की और हैदराबाद, (सिंध), देवल (कराची), मक्का, जद्दा, मदीना, यरुशलम, दमिश्क, पाराचिनार (पेशावर) से होते हुए बगदाद पहंचे। वहां से तेहरान, समरकंद, काबुल, कंधार, पेशावर से होकर वापस करतारपुर लौटे थे।

उत्साह : अब बिना वीजा जाएंगे पाकिस्तान

यह पहला मौका है, जब किसी समारोह को लेकर दोनों देशों में एक जैसा उत्सव का माहौल है। गुरुद्वारों के दर्शन के लिए लोग पहले भी पाकिस्तान जाते थे। बैसाखी हो या गुरु अर्जन देव जी का शहीदी पर्व या फिर श्री गुरु नानक देव जी का प्रकाशोत्सव, हर साल शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी लगभग ढाई से तीन हजार श्रद्धालुओं का जत्था लेकर जाती है। लेकिन, यह पहला ऐसा रास्ता होगा, जिससे बगैर वीजा के लोग पाकिस्तान जा सकेंगे।

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जनेऊ पहनने से इन्कार

सिखों के पहले गुरु श्री गुरुनानक देव जी का जन्म कार्तिक पूर्णिमा पर 1469 ई. को लाहौर के पश्चिम तलवंडी गांव में हुआ। अब यह स्थान च्ननकाना साहबज् कहलाता है। पिता कालू और मां तृप्ता थीं। बचपन में ही उन्होंने जनेऊ पहनने से इन्कार कर महिलाओं को बराबरी का हक दिलाने के लिए आवाज उठाई।14 साल की आयु में बहन बेबे नानकी के पास सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला) पहुंचे और इसी धरती को अपनी कर्म स्थली बनाया। यहां गुरुद्वारा संत घाट में प्रकट होकर मूल मंत्र 'एक ओंकार' का उच्चारण किया। यहीं पर उन्होंने श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बुनियाद रखी।   

गुरुद्वारा श्री बेर साहिब में गुरु जी 14 साल 9 महीने 13 दिन तक प्रभु की भक्ति में लीन रहे। इसी धरती से उन्होंने विश्व कल्याण के लिए पवित्र यात्राओं (उदासियों) का आगाज किया। उनका विवाह बटाला की माता सुलखणी से हुआ। उनसे दो बेटे श्री चंद और लखमी दास हुए। यहीं पर नवाब दौलत खां के मोदीखाना में 'तेरा-तेरा' का संदेश दिया। जीवन के अंतिम 18 साल उन्होंने पाकिस्तान स्थित करतारपुर साहिब में बिताए। 1539 में श्री गुरु अंगद देव जी को गुरु की गद्दी सौंप कर ज्योति जोत समा गए।


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