ये हैं कारगिल के रियल हीरो... जिन्होंने शुरू की जीवन के लिए एक नई जंग
कारगिल युद्ध के दौरान गंभीर रूप से घायल हुए अनेक जांबाजों के लिए जीवन में संघर्ष की एक नई जंग शुरू हुई।
जालंधर [वंदना वालिया बाली]। कहते हैं 'वंस अ सोलजर इज़ आलवेज़ अ सोलजर।' इसी कथन की मिसाल हमारे बीच है कुछ ऐसे जांबाजों के रूप में जो 19 साल पहले कारगिल युद्ध में अपनी जान पर खेले। उस जंग में देश की जीत हुई और 26 जुलाई को हम विजय दिवस मनाने लगे। लेकिन, गंभीर रूप से घायल हुए अनेक जांबाजों के लिए जीवन में संघर्ष की एक नई जंग शुरू हुई। शारीरिक चुनौतियों से लड़ते हुए भी उन्होंने जीवन की जंग में कभी हार नहीं मानी और एक जांबाज की तरह सफलता के शिखर चूमते रहे। दूसरों को जीने की राह दिखाते रहे। ये प्रेरणा पुंज ही हैं रियल सूरमा...
द चैलेंजिंग वन
फिल्म 'सूरमा' के नायक दिलजीत दोसांझ ने ट्वीट कर मेजर डीपी सिंह को 'रियल सूरमा' कहते हुए उन्हें सलाम किया। करें भी क्यों न, उनकी कहानी ही ऐसी है। भारत के पहले ब्लेड रनर के रूप में ख्याति प्राप्त मेजर (सेवानिवृत) दविंदर पाल सिंह कारगिल युद्ध के दौरान 15 जुलाई 1999 को पाकिस्तानी पोस्ट से मात्र 80 मीटर की दूरी पर थे जब एक मोर्टार उनसे करीब डेढ़ मीटर पर आ कर फटा। इस धमाके में बुरी तरह घायल हुए डीपी सिंह को पहले पहल तो मृत घोषित कर दिया गया लेकिन ईश्वर को शायद कुछ और मंजूर था।
वह फीनिक्स की तरह पुन: उठे, लोगों को प्रेरित करने के लिए, जीवन को एक नई पहचान देने के लिए, देश-विदेश में भारत के पहले ब्लेड रनर के रूप में नाम कमाने के लिए। एक पैर गंवाने, शरीर में 40 जगह बम के शार्पनेल धंसे होने, सुनने की क्षमता आंशिक रूप से बाधित होने, पसलियां टूटने और लिवर डैमेज होने जैसी अनेक समस्याओं के बावजूद वह एक मैराथन रनर हैं। वह 18 हाफ मैराथन्स दौड़कर लिम्का बुक अॉफ रिकार्ड में अपना नाम दर्ज करवा चुके हैं। विभिन्न आयोजनों पर इंसपिरेशनल स्पीकर के रूप में शामिल हो लोगों को जीने की राह दिखाते हैं।
वह कहते हैं, 'ईश्वर ने मुझे दूसरा जीवन दिया है और मैं इसे पूरी तरह जीना चाहता हूं। जीवन से हार मान चुके लोगों को बताता चाहता हूं कि 'मुश्किल कुछ भी नहीं गर ठान लीजिए'। किसी भी तरह की शारीरिक अक्षमता को हीन नजर से देखने वालों का नजरिया बदलना चाहता हूं। इसके लिए एक एनजीओ शुरू की है 'द चैलेंजिंग वन्स' जिसके साथ भारत के करीब 2000 दिव्यांग जुड़ चुके हैं और इनमें से करीब 500 ऐसे भी हैं, जो विभिन्न प्रतिस्पर्धाओं में भाग ले कर अपने आपको सक्षम सिद्ध कर चुके हैं।
इसके अलावा हर साल हम 'स्वच्छाबिलिटी रन' का आयोजन भी एक सिमेंट कंपनी के साथ मिल कर विभिन्न शहरों में करते हैं। इसका मकसद स्वच्छ भारत अभियान में योगदान के साथ-साथ दिव्यांग लोगों को सामान्य लोगों की तरह अधिकार दिलाना और उनके प्रति समाज की सोच को बदलना है। ताकि लोग उन्हें कमतर न आंके और उनकी क्षमताओं को पहचान कर प्रोत्साहित करें।'
एक पांव से शिखर फतह
'अब मैैं बास्केटबाल कैसे खेलूंगा?' यही थे कैप्टन सत्येंद्र सांगवान के शब्द, जब अस्पताल में उन्हें पता चला कि उनकी दायीं टांग काट दी गई है। उस वक्त शायद उन्होंने अपनी ताकत को कम आंका था, नहीं जानते थे कि वह न केवल विभिन्न गेम्स खेलेंगे बल्कि दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर भी चढ़ जाएंगे। कारगिल में एक लैंड माइन पर पैर पडऩे से द ग्रेनेडियर्स रेजिमेंट के इस जांबाज सैनिक ने अपनी एक टांग तो गंवा दी, लेकिन खेलों के प्रति जुनून नहीं। भिवानी के मूल निवासी कैप्टन सांगवान कहते हैैं कि जंग के मैदान में इतना खून खराबा देखा है कि अपना दर्द उसके आगे कम लगता है।
शुरू से खेलों में रुचि रखने वाले कैप्टन सांगवान को कारगिल के बाद अनेक रीहैबिलीटेशन स्कीम्स चलीं। उन्हें कृत्रिम पांव के अलावा ओएनजीसी कंपनी ने एचआर विभाग में जॉब भी मिली। यहां गुजरात में पोस्टिंग के दौरान उन्होंने अपने पुराने प्यार स्पोट्र्स की तरफ ध्यान देना शुरू किया। यहां पहले जैवलिन थ्रो फिर रनिंग और फिर बैडमिंटन खेलना शुरू किया।
जैवलिन थ्रो में जहां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक गोल्ड व एक सिल्वर मेडल जीता, वहीं राष्ट्रीय स्तर पर दो गोल्ड अपने नाम किए। दौड़ने में एक सिल्वर मेडल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तो दो सिल्वर राष्ट्रीय पैरा खेलों में जीते। इसके बाद बैडमिंटन में तो पदकों की झड़ी लगा दी। वल्र्ड गेम्स की डबल्स स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीतने के अलावा चार अन्य ब्रांस मेडल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और चार गोल्ड, एक सिल्वर व एक ब्रांस मेडल राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने अपने नाम किए हैैं। विभिन्न खेलों में उत्तम प्रदर्शन के लिए इन्हें 2009 में राष्ट्रपति द्वारा 'बेस्ट रोल माडल इन सोसायटी' के रूप में सम्मानित किया गया।
खेलों द्वारा पायी फिटनेस ने उन्हें मदद की माउंटेनियेरिंग की ट्रेनिंग में। देहरादून में पोस्टिंग के दौरान उन्होंने 2015 में एवरेस्ट के बेस कैंप तक ट्रेकिंग की। फिर अगली चयन प्रक्रिया में 20 किलोमीटर की माउंटेन रेस में इन्हें दौड़ना था। 155 लोगों में से मात्र 55 इस चैलेंज को पूरा कर पाए और उनमें भी सांगवान 13वें स्थान पर रहे। अन्य प्रतिस्पर्धी उन से 15-20 साल कम उम्र के थे और सभी सामान्य थे। इस उपलब्धि के बाद इनका चयन माउंट एवरेस्ट पर चढऩे वाली पहली कारपोरेट टीम के लिए हो गया। साथ ही उसके नेतृत्व की जिम्मेदारी भी इन्हें ही सौंपी गई।
छह बार एवरेस्ट फतह करने वाले नवराज सिंह धर्मशक्ति से प्रशिक्षण ले यह टीम जून 2017 में एवरेस्ट फतेह करने निकली और टीम के सात सदस्यों ने सफलतापूर्वक चोटी को पतह किया। हालांकि कैप्टन सांगवान को दूसरे बेस कैंप पर ही रुकना पड़ा लेकिन बतौर लीडर उन्होंने अपनी टीम को पूरी तरह प्रोत्साहित कर भारत की पहली कारपोरेट एक्सपीडिशन टू एवरेस्ट को सफल बनाया। कैप्टन सांगवान का कहना है कि जीवन में जो कुछ भी होता है वह अच्छे के लिए ही होता है। भले ही हमें समय आने पर ही उसकी समझ आए।
घुटने पर गोली लगी फिर भी जीत पाकिस्तानी चौकी
कारगिल युद्ध के दौरान पहली बटालियन के पहले कमांडिंग अफसर गोरखा राइफल्स के कर्नल ललित राय थे। 18000 फीट की ऊंचाई पर चल रहे युद्ध के दौरान इस सीनियर अधिकारी के घुटने पर गोली लग गई। अन्य जूनियर्स का हौसला न टूटे, इसलिए अपने नेतृत्व पर उन्होंने इस गोली का असर नहीं आने दिया। उन्होंने वहां से जाने से इन्कार कर दिया और घायल अवस्था में भी दुश्मन का सामना करने डटे रहे। उनके इस जज्बे ने बाकी सैनिकों में जोश फूंकने का काम किया और वे पाकिस्तानी चौकी पर एक ही बार में कब्जा करने में कामयाब रहे। इस जांबाजी के लिए उन्हें अगस्त 1999 में वीर चक्र से सम्मानित किया गया।
इन दिनों पुणे में एक होस्पिटैलिटी कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत कर्नल राय एक इंस्पीरेशनल व मोटीवेशनल स्पीकर भी हैं। 20 हजार से ज्यादा स्टूडेंट्स को अपने प्रेरक शब्दों से प्रभावित कर चुके कर्नल राय कहते हैं कि 'आज आधुनिक सुविधाओं के कारण युवाओं में जागरूकता बहुत बढ़ गई है। वे चाहते हैैं कि जिसे भी सुने, वो एक रोल मॉडल हो। मैंने पाया है कि आज के यूथ में देशभक्ति की भावना बहुत अधिक है लेकिन जरूरत उनकी सही नब्ज पहचान कर उसे दबाने की है। वे भविष्यवादी हैं लेकिन आसपास इतने विकल्प होने के कारण फोकस नहीं कर पाते।'
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