जालंधर में पढ़ीं क्रांतिकारी सुशीला देवी को भूले लोग,जान पर खेलकर बचाया था शहीद-ए-आजम भगत सिंह का जीवन
जालंधर के कन्या महाविद्यालय की छात्रा सुशीला देवी उस समय दीदी के नाम से प्रसिद्ध थीं। उन्होंने तमाम विरोधों की परवाह किए बगैर स्वतंत्रता संग्राम के नायकों का साथ निभाया। शहीद-ए-आजम भगत सिंह उन्हें अपनी बड़ी बहन मानते थे।
प्रियंका सिंह, जालंधर। स्वतंत्रता संग्राम में देश के हर कोने से आजादी को लेकर आवाज उठी। इस संघर्ष में जालंधर का भी बड़ा योगदान रहा है। पुरुष ही नहीं बल्कि महिला क्रांतिकारियों ने भी देश की आजादी के लिए सक्रिय भूमिका निभाई थी। उन्हीं में एक थीं सुशीला देवी।
आर्य शिक्षा मंडल द्वारा संचालित जालंधर के कन्या महाविद्यालय की छात्रा सुशीला देवी उस समय दीदी के नाम से प्रसिद्ध थीं। उन्होंने तमाम विरोधों की परवाह किए बगैर स्वतंत्रता संग्राम के नायकों का साथ निभाया। यही वजह थी कि शहीद-ए-आजम भगत सिंह उन्हें अपनी बड़ी बहन मानते थे और दीदी कहकर ही बुलाते थे।
सुशीला देवी का जन्म पांच मार्च, 1905 को पंजाब के दत्तोचूहड़ (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उनकी शिक्षा जालंधर के आर्य समाज द्वारा संचालित कालेज कन्या महाविद्यालय से हुई और वह यहां 1921 से लेकर 1927 तक रहीं। उनके पिता डाक्टर कर्मचंद सेना में चिकित्सा अधिकारी थे। उन पर आर्य समाज विचारों का बहुत प्रभाव पड़ा और इसी का असर उनकी बेटी सुशीला देवी पर भी हुआ। बचपन से ही ऐसे विचारों के बीच रहने के कारण वह क्रांतिकारी बन गईं। उन्हें लिखने पढ़ने का भी बहुत शौक था और वह राष्ट्रवाद कविताएं, शेरो शायरी और गीत लिखा करती थीं।
सुशीला देवी ने भगत ¨सह को अंग्रेजों से बचाया था। अंग्रेज अधिकारी उनके पीछे लगे हुए थे। उस दौरान उनसे बचने के लिए वह जालंधर आए तो सुशीला दीदी और अन्य छात्राओं ने भगत ¨सह को होस्टल के कमरे में छुपा दिया था।
कालेज की डीन मधुमीत का कहना है कि इसका जिक्र खटकड़ कलां (नवांशहर) में बने शहीद भगत ¨सह संग्रहालय में भी लिखित रूप में दर्ज है। कालेज में बनाई गई शहीद भगत ¨सह की प्रतिमा के नीचे भी उनके यहां आने का जिक्र है। उस समय सुशीला देवी ने भगत ¨सह को बचाने में अहम भूमिका निभाई थी। बाद में वह भी क्रांतिकारियोंके साथ जुड़ गईं थीं। इसके बाद भी उन्होंने शहीद-ए-आजम भगत ¨सह और कई अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर देश की आजादी के लिए योगदान दिया। जहां कहीं उनकी जरूरत पड़ती, वह वहां पहुंच जाती थीं। 19 दिसंबर, 1927 को जब उन्हें काकोरी के क्रांतिकारियों की फांसी की सजा दिए जाने की सूचना मिली तो वह बेहोश हो गई थी। उस समय वह बीए पहले साल का पेपर दे रही थीं। इसके बाद उनके पिता ने उन्हें बहुत समझाया और आंदोलन से दूर रहने के लिए कहा। परंतु सुशीला देवी अपने पिता की बात से सहमत नहीं थीं और उन्होंने अपने घर से बगावत कर दी। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और क्रांतिकारियों की मदद में लगी रहीं।
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