अमृतसर का पार्टिशन म्यूजियम दुनिया में सबसे अनूठा, यहां सहेजकर रखी हैं देश के बंटवारे के दर्द की यादें
भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के दर्द की यादों को अमृतसर में वर्ष 2017 में तैयार किए गए पार्टिशन म्यूजियम में सहेज कर रखा गया है। इस म्यूजियम का निर्माण आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज ट्रस्ट ने करवाया है।

हरीश शर्मा अमृतसर। एक तरफ खुली हवा में सांस लेने की खुशी थी तो दूसरी तरफ हिंसा और दंगों में अपनों से बिछड़ने और सब कुछ पीछे छूटने का गम। भारत-पाकिस्तान के बंटवारे का यह दर्द आज भी उन लोगों के दिल में जिंदा है, जिन्होंने इस पीड़ा को सहन किया है। बंटवारे की यादों को शहर में बनाए गए पार्टिशन म्यूजियम में सहेज कर रखा गया है।
करीब दो सौ साल तक गुलामी की बेड़ियों में जकड़े रहने के बाद आखिरकार बलिदानियों की कुर्बानी रंग लाई। 15 अगस्त, 1947 को पूरे देश ने एक बार फिर से दीवाली मनाई थी, मगर यह दीवाली थी आजाद हवा में सांस लेने की और गुलामी की जंजीरों को तोड़कर जश्न मनाने की। हालांकि इस खुशी के साथ ही गहरा दर्द भी मिला। यह दर्द भाई से भाई के बिछड़ने, अपनों को खोने और अपना सब कुछ दूर छोड़ने का था। देश के बंटवारे में करीब 1.45 करोड़ लोग बंट गए। बीस लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी। लोगों का सब कुछ पीछे ही छूट गया था लेकिन जो लोग पाकिस्तान से उजड़कर भारत आए वे यादों के तौर पर कुछ चीजें अपने साथ ले आए जो आज भी उनके लिए अनमोल है।
बंटवारे के दर्द की यादों को शहर में वर्ष 2017 में तैयार किए गए पार्टिशन म्यूजियम में सहेज कर रखा गया है। इस म्यूजियम का निर्माण आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज ट्रस्ट की ओर से करवाया गया है। यह दुनिया में एकमात्र ऐसा म्यूजियम है। 'पार्टिशन म्यूजियम' की सीईओ मल्लिका आहलुवालिया कहती हैं कि यह लोगों का अपना म्यूजियम है। यहां रखी वस्तुएं विभाजन का दौर देखने वाले लोगों ने स्वेच्छा से दान की हैं ताकि आने वाली पीढ़ियां उस ऐतिहासिक समय के दर्द को समझ व महसूस कर सकें। साथ ही कुछ लोगों ने आडियो या वीडियो के जरिए भी उस त्रासदी से जुड़ी अपनी यादें साझा की हैं।
अमृतसर स्थित पार्टीशन म्यूजियम में स्थापित एक कलाकृति।
संदूक को संग्रहालय में दिया ताकि यादें आने वाली पीढ़ी से साझा हो सकें
म्यूजियम की मैनेजर राजविंदर कौर ने बताया कि बंटवारे के बाद पाकिस्तान छोड़कर भारत आईं सुदर्शना कुमारी 1947 में आठ साल की थींं। पाकिस्तान के जिला शेखूपुर की रहने वाली सुदर्शना अब दिल्ली में रहती हैं। उनका एक छोटा सा संदूक पार्टिशन म्यूजियम में रखा गया है। सुदर्शना ने संदूक देते समय बताया था कि बचपन में उन्हें गुड़ियों से खेलना बहुत पसंद था। विभाजन का बिगुल बजा तो घर छोड़ना पड़ा। गुड़िया भी वहीं रह गईं। उन्हें बहुत से लोगों के साथ एक खुले मैदान में इकट्ठा किया गया। रात को वहीं सोए। सुबह उठे तो देखा कुछ ही दूर दंगों में एक कोठी जल गई थी।
वह और पांच-छह बच्चे उस जली हुई कोठी में गए और कुछ न कुछ उठा लाए। उन्हें भी यह संदूक वहीं मिला था। उन्होंने लौटकर मां से कहा कि इसमें वह अपनी गुड़ियों का सामान रखा करेंगी। फिर एक ट्रक में उन्हें वाघा के जरिए भारत छोड़ दिया गया। उन्होंने अपना संदूक संभालकर रखा। उनकी बड़ी बहन ने कुछ माह बाद उनके लिए एक गुड़िया बनाई। इस संदूक में उस गुड़िया के लिए वह कपड़े एकत्र करती थीं। वह जब भी उस संदूक को देखती थी तो बचपन की यादों में लौट जाती थी। शादी के बाद भी इसे ससुराल ले गई। तब इसमें अपने सर्टिफिकेट व मेकअप का सामान आदि रखने लगी। फिर वे असम चले गए और वहां से 30 साल बाद लौटे तो सबसे पहले अपने संदूक को उन्होंने दोबारा संभाला। 79 साल की उम्र में इसे संग्रहालय के लिए दिया तो तसल्ली हुई कि उनकी यादें आने वाली पीढ़ी से साझा होंगी।
बंटवारे में ला पाए केवल जैकेट और ब्रीफकेस
संग्रहालय में रखी फुलकारी जैकेट और ब्रीफकेस पाकिस्तान से भारत आए भगवान सिंह मैणी और प्रीतम कौर की निशानी हैं। विभाजन से पहले उनकी सगाई हुई थी। विवाह की तैयारियों के बीच बंटवारे के कारण उनके परिवारों को उजड़ना पड़ा। प्रीतम कौर गोद में दो साल के भाई और हाथ में एक बैग में अपनी सबसे प्रिय फुलकारी जैकेट को लेकर अमृतसर जाने वाली ट्रेन में सवार हुईं।
यहां शरणार्थी शिविर में पहुंची तो उन्हें इसी शिविर में उनके होने वाले पति भगवान सिंह मिले। सरहद पार डेढ़ करोड़ शरणार्थियों में यह मिलन चमत्कार से कम नहीं था। भगवान सिंह एक ब्रीफकेस लाए थे, जिसमें प्रापर्टी के दस्तावेज और स्कूल सर्टिफिकेट थे। 1948 में उनका विवाह हुआ। दोनों लुधियाना चले गए। भगवान सिंह का तीस वर्ष पूर्व जबकि प्रीतम कौर का 2002 में देहांत हो गया। उनकी जैकेट और ब्रीफकेस आज भी उनकी यादें बयां करते हैं।
एसपी रावल की गागर भी है यहां
एसपी रावल पाकिस्तान के मिंटगुमरी से थे। रावल के पिता पाकिस्तान में अमीर जमींदार थे। विभाजन के दौरान एसपी रावल अपने परिवार के साथ एक रेहड़े पर घरेलू सामान लादकर भारत आए। इसी सामान में एक पीतल की गागर भी थी। गागर इसलिए रखी गई थी ताकि रास्ते में पानी की कमी न हो। जब वह कुरुक्षेत्र शरणार्थी कैंप में पहुंचे तो इसी गागर से सभी को पानी पिलाते थे। यह गागर उन्होंने स्वेच्छा से म्यूजियम को भेंट की है।
रेडियो लाए थे साथ, इसी पर सुनते थे दंगों की खबर
अमोल स्वानी का परिवार विभाजन से पहले पेशावर में रहता था। पिता सूखे मेवों का कारोबार करते थे। दंगे हुए तो अमोल को उनके परिवार सहित उनके कुछ मुस्लिम कर्मचारियों ने ट्रक में मेवों से भरी बोरियों के पीछे छुपाकर सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। परिवार की महिलाओं ने बुर्का पहनकर अपनी जान बचाई। अमोल अपने साथ तब रेडियो और कंबल लाए थे। इसी रेडियो पर दंगों से जुड़ी हर खबर को वह सुनते और आगे बढ़ते रहे। यही रेडियो उनका मनोरंजन कर समय-समय पर उनके गमों पर मरहम का काम भी करता रहा। इस रेडियो और कंबल को भी यहां सहेजा गया है।
दहेज में मिली थी चारपाई
म्यूजियम की मैनेजर राजविंदर कौर ने बताया कि कमलनैन भाटिया जोकि बंटवारे के बाद आए थे। उनका परिवार भावलपुर में रहता था। उन्होंने एक मुस्लिम खुदाबख्श की मदद से अपने परिवार को सुरक्षित भारत भेज दिया और स्वयं 1951 में आए। परिवार को उन्होंने एक चारपाई दी थी ताकि रात को कहीं रुकना पड़े तो उसी पर आराम कर लें। चारपाई इसलिए भी खास थी, क्योंकि यह उनकी शादी में पत्नी दहेज में लेकर आई थी। कमलनैन के पोते अंकित भाटिया बताते हैं कि करीब 15 साल पहले उनकी दादी का निधन हुआ और वह तब तक इसी चारपाई का इस्तेमाल करती थीं। दो साल पहले दादा का भी देहांत हो गया। इसके बाद इस चारपाई को म्यूजियम को भेंट कर दिया था।
बंटवारे के दौरान शादी में पहनी साड़ी लेकर आई थी शकुंतला
अमृतसर की रहने वाली शकुंतला खोसला 1935 में विवाह बंधन में बंधकर लाहौर चली गईं। विभाजन के दौरान जब दंगे भड़के तो वह परिवार सहित अमृतसर लौटना चाहती थीं, पर उनके पति लाहौर में रहकर ही व्यापार करना चाहते थे। कुछ महीनों तक वह अपने रिश्तेदारों के यहां छिपकर रहे। जब रिश्तेदारों को भी जान से मारने की धमकियां मिलीं तो शकुंतला व उनके पति को भारत आना पड़ा। शकुंतला खोसला अपने साथ वह साड़ी लेकर आईं जो उन्होंने विवाह के दिन पहनी थी। उसे भी यहां पर सहेज कर रखा गया है।
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