लोगों की आस्था का केंद्र है जुड़वा शिवलिग वाला काठगढ़ महादेव शिवालय
हिमाचल-पंजाब सीमा पर मीरथल से मात्र तीन किमी दूर छोंछ खड्ड व ब्यास नदी के किनारे पर विराजमान है अद्भुत जुड़वां शिवलिग वाला काठगढ़ महादेव शिवालय।

सरोज बाला, दातारपुर : हिमाचल-पंजाब सीमा पर मीरथल से मात्र तीन किमी दूर छोंछ खड्ड व ब्यास नदी के किनारे पर विराजमान है अद्भुत जुड़वां शिवलिग वाला काठगढ़ महादेव शिवालय। लाखों श्रद्धालुओं की श्रद्धा का केंद्र है यह शिवालय जहां महाशिवरात्रि के अवसर पर विशाल मेला आयोजित होता है। यहां सावन महीने में हर समय श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। बम-बम भोले के जयकारों के साथ हजारों शिव भक्त यहां शिवार्चन करते हैं।
मंदिर में विशाल शिवलिग है, जो दो भागों में विभाजित है। जिन्हें मां पार्वती व भगवान शिव के दो रूपों के रुप में पूजा जाता है। इस शिवलिग की विशेषता यह है कि ग्रहों व नक्षत्रों के अनुरूप इन दोनों भागों के बीच अंतर घटता व बढ़ता रहता है। माता पार्वती और उनका प्रिय सांप भी स्वयंभू प्रकट हैं। ग्रीष्म ऋतु में यह स्वरूप दो भागों में बंट जाता है और शिवरात्रि के दिन यह फिर से एकरूप धारण कर लेता है। स्वयं प्रकट हुए इस शिवलिग का इतिहास भी दंत कथाओं, किवदंतियों व पुराणों से जुड़ा होने के कारण शिव भक्तों में भक्ति का संचार करता है।
मंदिर के बारे में शिवपुराण में भी प्रसंग है, जिसमें श्री बह्मा जी व श्री विष्णु जी के बीच युद्ध हुआ था। इस युद्ध में दोनों एक-दूसरे को नीचा दिखाने की खातिर महेश्वर व पशुपास्त्र का प्रयोग करने के प्रयासरत थे, जिससे त्रिलोक के भस्म होने की आशंका पनपने लगी। इसे देखकर भगवान शिव महाअग्नि तुल्य स्तंभ के रूप में उन दोनों के बीच प्रकट हुए। जिससे युद्ध तो शांत हो गया, कितु दोनों ने अग्नि स्तंभ का मूल देखने की ठान ली। भगवान विष्णु शुक्र रूप धारण करके नीचे की ओर पाताल तक पहुंच गए, कितु स्तंभ का अंत न ढूंढ पाए। जबकि भगवान ब्रह्मा आकाश की ओर हंस का रूप धारण करके चले गए व वापस आकर झूठा विश्वास दिलाया कि स्तंभ की चोटी पर केतकी का फूल था, जिसे वे प्रमाण के तौर पर लाए हैं। ब्रह्मा जी के छल को देखकर भोले भंडारी को साक्षात प्रकट होना पड़ा व उन्होंने बताया कि युद्ध शांत करने के लिए ही उन्होंने अग्नि तुल्य स्तंभ का रूप धारण किया था। मंदिर में स्थित स्तंभ को लोग इसी अग्नि स्तंभ के साथ जोड़कर देखते हैं।
जिस स्थान पर आज काठगढ़ महादेव विराजमान हैं। यह भी कथा प्रचलित है कि भगवान राम के भ्राता महाराज भरत अपने ननिहाल कैकेय जाते थे, तो रास्ते में यहीं पर रुक कर अपने अराध्य देव शिव जी की पूजा किया करते थे। इतिहास में वर्णन आता है कि महान सिकंदर भारत विजय का अपना सपना यहीं पर अधूरा छोड़ कर वापस अपने देश लौटा था। अत्यंत ही सुंदर इस शिवालय की ऐतिहासिक चारदीवारी में यूनानी शिल्पकला का प्रतीक व प्रमाण देखने को मिलता है।
ऐसा भी कहा जाता है कि पहले यह शिवलिग खुले आसमान के नीचे था और महाराजा रणजीत सिंह ने इस स्थान की महत्ता को सुन कर इस मंदिर का निर्माण करवाया था। प्रतिदिन यहां पर दूर-दराज से श्रद्धालुओं का आना जाना लगा रहता है। प्रत्येक वर्ष महाशिवरात्रि के पावन अवसर पर यहां तीन दिवसीय मेला लगाया जाता है। जिसमे लाखों भक्त शिरकत करते हैं।
वर्तमान समय में यहां ओमप्रकाश कटोच की अध्यक्षता में प्रबंधक समिति गठित है। जो यहां की सारी व्यवस्था करती है। विशाल भवन, सराय व कई अन्य प्रकल्प यहां चलते रहते। महंत कालिदास जी यहां के महंत हैं, जो प्रबंधक कमेटी के तत्वावधान में दोनों समय पूजन करते हैं।
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