हाई कोर्ट का अहम फैसला: पितृत्व की सच्चाई जानना बच्चे का मौलिक अधिकार, निजता का तर्क नहीं चलेगा
पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा है कि पिता का निजता अधिकार बच्चे के पितृत्व जानने के अधिकार से ऊपर नहीं है। कोर्ट ने डीएनए जांच के ट्रायल कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा जिसकी याचिकाकर्ता ने चुनौती दी थी। अदालत ने कहा कि बच्चे की वैधता सुनिश्चित करने के लिए अनुमान लगाया जाता है लेकिन जब बच्चा स्वयं पितृत्व की पुष्टि चाहता है तो सत्य सामने आना चाहिए।

दयानंद शर्मा, चंडीगढ़। पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने एक अहम निर्णय सुनाते हुए कहा है कि किसी पुरुष का निजता और सम्मान का अधिकार किसी बच्चे के अपने पिता की पहचान जानने के अधिकार से ऊपर नहीं हो सकता। जस्टिस अर्चना पुरी ने यह आदेश एक पुनरीक्षण याचिका को खारिज करते हुए दिया, जिसमें ट्रायल कोर्ट द्वारा डीएनए जांच कराने के निर्देश को चुनौती दी गई थी।
यह मामला एक नाबालिग की ओर से उसकी मां के माध्यम से दायर भरण-पोषण याचिका से शुरू हुआ था। बच्चे का दावा था कि याचिकाकर्ता उसका जैविक पिता है, जबकि प्रतिवादी व्यक्ति ने इस संबंध से इन्कार किया और कहा कि बच्चा उसकी पूर्व पत्नी के पहले पति का है।
बच्चे ने अदालत को बताया कि उसकी मां 1988 में प्रतिवादी के घर किरायेदार के रूप में रहने आई थी और समय के साथ दोनों के बीच संबंध बने, जिसके बाद 1990 में उसका जन्म हुआ। दूसरी ओर, प्रतिवादी ने तर्क दिया कि यह बच्चा उसका नहीं बल्कि महिला के पिछले पति का है जिससे उसने तलाक ले लिया था।
परिस्थितियों को देखते हुए डीएनए परीक्षण कराने का आदेश
ट्रायल कोर्ट ने 2015 में मामले की परिस्थितियों को देखते हुए डीएनए परीक्षण कराने का आदेश दिया था। इस आदेश को चुनौती देते हुए पंचकूला निवासी व्यक्ति ने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और यह दलील दी कि चूंकि बच्चा विवाह के दौरान पैदा हुआ था, इसलिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा लागू होती है, जिसके तहत विवाह के दौरान जन्मा बच्चा वैध माना जाता है।
अदालत ने इस दलील पर विचार करते हुए कहा कि यह अनुमान इसलिए लगाया जाता है ताकि बच्चे को नाजायज का दर्जा न मिले, लेकिन जब स्वयं बच्चा पितृत्व की पुष्टि के लिए आगे आ रहा है तो न्याय का तकाजा है कि सत्य को सामने लाया जाए।
हाई कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि बच्चा और उसकी मां डीएनए जांच के सामाजिक परिणामों से भली-भांति परिचित हैं, इसके बावजूद उन्होंने सत्य की स्थापना के लिए परीक्षण की मांग की है। ऐसे में अदालत के लिए यह अनदेखा करना संभव नहीं है।
कोर्ट ने कहा-परीक्षण से पितृत्व पर संदेह खत्म हो जाएगा
अदालत ने यह भी कहा कि यदि याचिकाकर्ता और बच्चा वास्तव में अजनबी हैं तो डीएनए परीक्षण से उसे किसी भी तरह की हानि नहीं होगी, बल्कि इससे उसकी स्थिति और अधिक स्पष्ट हो जाएगी। वहीं, यदि वह वास्तव में पिता है तो परीक्षण से पितृत्व पर संदेह हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा।
निजता के अधिकार को लेकर अदालत ने कहा कि डीएनए परीक्षण के दौरान प्रतिवादी के सम्मान और निजता का ध्यान रखा जाएगा। हालांकि, ट्रायल कोर्ट द्वारा नमूना लेने में पुलिस बल के प्रयोग की अनुमति देना अनावश्यक था।
अंतत हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को बरकरार रखते हुए कहा कि जब वैज्ञानिक तरीके से पितृत्व की सच्चाई स्थापित की जा सकती है तो फिर अपूर्ण साक्ष्यों या कानूनी अनुमान के आधार पर निर्णय छोड़ना न्यायोचित नहीं होगा। और इसके साथ ही हाईकोर्ट में पिता की याचिका को ख़ारिज कर दिया l
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