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    30 साल से अलग पति-पत्नी को साथ रहने को बाध्य करना मानसिक क्रूरता, पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट का बड़ा फैसला

    Updated: Tue, 16 Sep 2025 11:41 AM (IST)

    पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने कहा कि 30 साल से अधिक समय से अलग रह रहे पति-पत्नी को साथ रहने के लिए मजबूर करना मानसिक क्रूरता है। अदालत ने बठिंडा के फैमिली कोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील पर यह टिप्पणी की जहां पति की तलाक याचिका खारिज कर दी गई थी। हाई कोर्ट ने माना कि 1994 से अलग रह रहे दंपती के वैवाहिक संबंध टूट चुके हैं।

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    विवाह मामले में पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट का बड़ा फैसला (File Photo)

    दयानंद शर्मा, चंडीगढ़। पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि यदि पति-पत्नी 30 वर्ष से अधिक समय तक बिना सुलह अलग रह रहे हैं तो उन्हें एक साथ रहने के लिए मजबूर करना मानसिक क्रूरता के समान है।

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    हाई कोर्ट ने कहा कि इतने लंबे समय तक अलग रहने के बाद विवाह का मूल सार खत्म हो जाता है और केवल एक कानूनी बंधन रह जाता है, जिसका आधार नहीं होता।

    जस्टिस गुरविंदर सिंह गिल और जस्टिस दीपिंदर सिंह नलवा की खंडपीठ ने यह टिप्पणी बठिंडा के फैमिली कोर्ट के उस आदेश के खिलाफ अपील की सुनवाई के दौरान की जिसमें पति की तलाक याचिका को खारिज कर दिया गया था।

    हाई कोर्ट ने कहा कि 1994 से अलग रह रहे इस दंपती के बीच वैवाहिक संबंध पूरी तरह टूट चुके हैं और पुनर्मिलन की संभावना नहीं बची है।

    अदालत ने बताया कि पति और पत्नी 1994 से अलग रह रहे हैं और मध्यस्थता के प्रयास भी असफल रहे, जो दोनों पक्षों के बीच गहरी कटुता और विश्वास की कमी को दर्शाता है। पति ने अपनी याचिका में दावा किया था कि 1986 में शादी हुई थी।

    इसके बाद वे केवल छह महीने साथ रहे। पत्नी का व्यवहार उनके और उनके वृद्ध माता-पिता के प्रति असभ्य और अभिमानी था।

    फैमिली कोर्ट ने पति की तलाक याचिका खारिज करते हुए कहा था कि चूंकि दोनों पक्ष 1994 से अलग हैं और शारीरिक क्रूरता का सवाल ही नहीं उठता।

    सुनवाई के दौरान पत्नी से पूछा कि क्या वह समझौते को तैयार है लेकिन पत्नी ने इन्कार कर दिया। इसके बाद हाई कोर्ट ने दोनों का विवाह भंग कर दिया।

    भत्ते के लिए पत्नी फैमिली कोर्ट में आवेदन को स्वतंत्र हाई कोर्ट ने पत्नी को स्थायी गुजारा भत्ता के लिए फैमिली कोर्ट में आवेदन करने की स्वतंत्रता दी।

    अदालत ने कहा कि जब विवाह पूरी तरह से टूट चुका हो और उसमें कोई जीवंतता न बची हो, तो पुनर्मिलन पर जोर देना दोनों पक्षों के लिए दुख को और बढ़ाने जैसा है।