चंडीगढ़ में शौर्य चक्र विजेताओं के घरवाले पंजाब सरकार के रवैये से आहत, 20 साल से पुरस्कारों को मान्यता का इंतजार
शौर्य चक्र विजेताओं के स्वजनों ने कहा कि अन्य राज्यों ने जहां सैनिकों के बहुमूल्य बलिदान को सच्ची श्रद्धांजलि देते हुए उनके परिजनों की यथासंभव मदद की वहीं पंजाब सरकार ने शौर्य चक्र पुरस्कार को 20 साल से अधिक समय बीत जाने पर भी मान्यता ही नहीं दी।

जागरण संवाददाता, चंड़ीगढ़। पाकिस्तान के हमले का मुंहतोड़ जवाब देने वाले देश के जाबांज सैनिकों के बलिदान की पंजाब सरकार अनदेखी कर रही है। वार हीरोज के परिवार राज्य सरकार की चौखट पर माथा रगड़ रगड़ कर बुरी तरह से टूट चुके हैं लेकिन सुनवाई नहीं हो रही है। अपनी व्यथा को लेकर इन शौर्य चक्र विजेताओं की विधवाएं और उनके बच्चों ने सोमवार को मीडिया के सामने अपना दर्द रखा।।
उन्होंने कहा कि अन्य राज्यों ने जहां ऐसे बहादुर सैन्य अधिकारियों और सैनिकों के बहुमूल्य बलिदान को सच्ची श्रद्धांजलि देते हुए उनके परिजनों की यथासंभव मदद की, वहीं पंजाब सरकार ने शौर्य चक्र वीरता पुरस्कार को 20 साल से अधिक समय बीत जाने पर भी मान्यता ही नहीं दी। जांबाज फौजियों को मिलने वाला यह पुरस्कार जहां देश के अन्य राज्यों में मान्य है, वहीं पंजाब राज्य सरकार का मानना है कि इन अवार्ड्स की कोई मान्यता ही नहीं है।
वर्ष 1998 में जीवन बलिदान करने वाले शौर्य चक्र विजेता सिपाही राजिंदर सिंह की पत्नी और बच्चे 23 साल बीत जाने के बाद भी पंजाब सरकार से मान्यता और रोजगार सहायता की बाट जोह रहे हैं। लेफ्टिनेंट जोगा सिंह को मरणोपरांत शौर्य चक्र पुरस्कार से नवाजा गया था, उनका परिवार भी आज तक सरकारी दफ्तरों के चक्कर काट काट कर अशोक चक्र को मान्यता दिलवाने की जदोजहद में परेशान हो चुका है।
वर्ष 1992 में कश्मीर के बारामुल्ला में एक आपरेशन में शहीद हुए मरणोपरांत कीर्ति चक्र पुरस्कार से सम्मानित नायब सूबेदार बलदेव राज की विधवा कमला रानी आज भी वर्ष 1994 में तत्कालीन राष्ट्रपति से सम्मान प्राप्त करने वाले उन क्षणों की याद को अपने अंदर समेटे हुए हैं। पंजाब सरकार उनके पति की शहादत को नजरअंदाज कर रही है।
मरणोपरांत शौर्य चक्र पुरस्कार से सम्मानित लेफ्टिनेंट कर्नल बचित्तर सिंह की विधवा का कहना है कि पंजाब राज्य सरकार सैनिकों के बलिदान को पूरी तरह नजरअंदाज कर रही है। इन वीर जवानों को राज्य सरकार की तरफ से कोई सम्मान नहीं दिया जा रहा। उनके शहीद पति का नाम नई दिल्ली के नेशनल वॉर मेमोरियल पर अंकित है।उनके पति ने जब अपना जीवन बलिदान किया था, तब उनकी बेटियां 7 और 8 वर्ष की थी। उन्हें पालने-पोसने में उन्हें कितना संघर्ष करना पड़ा।
जांबाज सैन्य अधिकारी की युवा बेटी सुखरूप सहोता ने बताया कि सरकार ने कभी उनके पिता और उनके जैसे अन्य सैन्य अधिकारियों के बलिदान को गंभीरता से नहीं लिया। असम में उल्फा आतंकवादियों के खिलाफ हुए राइनो ऑपरेशन में बहादुरी की मिसाल पेश करने के लिए उनके पिता को आर्मी कमांडर्स कमेंदशन और चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ से भी पुरस्कृत किया गया था।
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