शिक्षण की प्रासंगिक कार्यशैली, सामयिक बदलावों से ही सार्थक सिद्ध होगी हमारी शिक्षा
वर्तमान शिक्षक समसामयिक एवं प्रासंगिक बने रहें नया सीखना तथा सुधार प्रदर्शन और रूपांतरण की प्रक्रिया से गुजर कर ही एक शिक्षक बौद्धिक रूप से सजग नवाचारी तार्किक एवं नवीन ज्ञान के प्रति आग्रही बना रह सकता है।

आचार्य राघवेंद्र प्रसाद तिवारी। स्वातंत्र्योत्तर भारत के विकास और चतुर्दिक उन्नयन को शिक्षा के माध्यम से नियोजन एवं प्रबंधन करने के वैचारिक उपक्रम के तहत निíमत पहले शिक्षा आयोग (1964-66) के अध्यक्ष डॉ. डीएस कोठारी ने रेखांकित करते हुए कहा था कि ‘भारत की नियति अब इसकी कक्षाओं में आकार ले रही है। इसके लिए व्यक्ति, राष्ट्र एवं मानवता को पुन: जीवंत करने हेतु शिक्षकों को सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन का माध्यम बनना होगा।’ वस्तुत: यह प्रबोधन शाश्वत ज्ञान के पुनस्र्थापना की दिशा में अनवरत संलग्न शिक्षकों के प्रेरक व्यक्तित्व, प्रोत्साहन कर्ता एवं सक्रिय अभिकरण के रूप में भूमिका निर्वहन की एक न्यायपूर्ण अभिव्यक्ति है।
शिक्षा संबंधी अपनी प्रतिबद्धता को साकार करते हुए राष्ट्र निर्माण हेतु संकल्पित वर्तमान सरकार ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 को अंगीकार किया। कहना न होगा कि यह नीति शिक्षकों के लिए संदर्भ, सरोकारों एवं दूरदर्शिता तथा सीखने और ज्ञान की परंपरागत तथा आधुनिक पद्धतियों के साथ एक रचनात्मक सहसंबंध की स्थापना हेतु भगीरथ प्रयास है। इस शिक्षा नीति की शिक्षकों से भिन्न अपेक्षाएं हैं, जिसकी पूíत नवाचारी दृष्टिकोण एवं कौशलयुक्त शिक्षक-शिक्षा द्वारा ही संभव है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 का लक्ष्य अधिगम प्रणाली को अधिक प्रासंगिक और आत्मनिर्भर बनाना है, जिसमें बहुविषयक समग्र चिंतनशील शिक्षा, अकादमिक एवं शोध कार्यक्रमों की पुनर्रचना, अधिगम परिणाम आधारित पाठ्यक्रम, अकादमिक क्रेडिट बैंक, नवाचार अनुभवजन्य अधिगम तथा शैक्षिक एवं सह शैक्षिक गुणों के आकलन हेतु मूल्यांकन प्रणाली को और अधिक सशक्त एवं सक्षम बनाने की कार्य योजना समाहित है।
निसंदेह शोध मानवीय उत्कृष्टता की महत्वपूर्ण संज्ञानात्मक परियोजना है। इसीलिए इस नीति में अनुसंधान पारिस्थितिकी तंत्र को सृजित एवं प्रबंधित करने के लिए समाजोपयोगी अनुसंधान हेतु नेशनल रिसर्च फाउंडेशन की परिकल्पना की गई है। इस नीति में एक व्यापक एवं समावेशी इकाई के अंतर्गत ‘सहज किंतु कठोर’ नियामक प्रणाली का प्रविधान किया गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति का उद्देश्य युवाओं को प्रशिक्षित करना एवं उन्हें वैश्विक दक्षता और जीवन कौशलों से समृद्ध करना है, ताकि वे सामाजिक एवं आíथक रूप से प्रासंगिक होकर वैश्विक ज्ञान समाज का अनिवार्य प्रतिभाग बन सकें। तात्पर्य यह है कि शिक्षण अधिगम की प्रणालियों में आज के विद्याíथयों की समावेशी आवश्यकताओं तथा 21वीं सदी के बहु-विषयक अनुशासनों तथा कौशलों से युक्त अधिगम को समायोजित करना अनिवार्य है।
इस संदर्भ में विचारणीय यह है कि क्या हमारे शिक्षक इस भूमिका को निभाने के लिए संसाधन संपन्न हैं तथा वे किस तरह समग्र और बहुविषयक अधिगम परिदृश्य का नवाचारी रूप से क्रियान्वयन कर सकेंगे। ध्यातव्य है कि देश में पाठ्यक्रम निर्माण और विकास की गतिशीलता के अभाव के कारण हम वैश्विक संदर्भो में दक्ष एवं अपेक्षा अनुरूप विद्याíथयों का सृजन नहीं कर पाए। परिणामस्वरूप कौशल हीनता एवं बेरोजगारी की समस्या सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी है।
इस दृष्टि से तात्कालिक न्याय है कि 21वीं सदी के शिक्षकों को अपने परंपरागत परिस्थितियों से बाहर निकल कर व्यावहारिक अधिगम प्रणाली को विकसित करने हेतु सभी व्यावसायिक मानकों को आत्मसात करना होगा। उन्हें अनुसंधान और नवाचारों हेतु इस प्रकार के पारिस्थितिकी तंत्र और संस्कृति को विकसित और पोषित करना चाहिए जिससे संसाधनों का सृजन हो तथा युवा वर्ग स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय समस्याओं का समाधान करने में सक्षम हो सके। यह तभी संभव है जब शिक्षक बहु विषयक, समग्र एवं परिणाम आधारित पाठ्यक्रम ढांचे को आत्मसात करें जिसमें अनुभवात्मक अधिगम, कौशल विकास, विचार, उद्यमशीलता, शिक्षण आधारित अनुसंधान शिक्षण के मुख्य तत्व हों।
एक संवेदनशील शिक्षक के लिए यह आवश्यक है कि वह सुनिश्चित करे कि उसके विद्यार्थियों में जीवन-र्पयत सीखने-सिखाने की जिजीविषा विकसित हो, जिसके लिए प्रश्न के प्रति आकुलता एक बुनियादी कौशल है। इस हेतु शिक्षकों को हमेशा एक सक्रिय अभिकरण के रूप में कार्य करना होगा। शिक्षकों को अधिगम प्रणाली में हो रहे सुधारों तथा भावी पीढ़ी की अधिगम आवश्यकताओं के अनुरूप अपने ज्ञान को अद्यतन करने की आवश्यकता है। समाज, उद्योगों, गैर सरकारी संगठनों, अनुसंधान संगठनों तथा वित्त-पोषण संस्थाओं के साथ सार्थक संवाद से इस प्रकार की अधिगम आवश्यकताओं को समझने में सहायता मिलेगी।
वर्तमान शिक्षक समसामयिक एवं प्रासंगिक बने रहें, इसलिए यह आवश्यक है कि उत्कृष्ट सामाजिक एवं व्यावसायिक मानकों के आधार पर शिक्षकों का प्रशिक्षण, नियोजन एवं प्रबंधन हो। यह शिक्षा नीति इस दिशा में शिक्षकों के समक्ष एक सर्वसमावेशी वैचारिक पाथेय सिद्ध हो सकता है। नवाचारी शिक्षण की यह प्रक्रिया सीमित संसाधनों के कारण कठिन हो सकती है, किंतु असंभव नहीं है। आत्मनिर्भर संरचना को अपनाकर संसाधनों के इस अभाव को बाधक बनने से रोका जा सकता है।
[कुलपति, पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा]
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