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    भारतीय जीवन दृष्टि में जैव विविधता, प्रकृति को बचाने के लिए सभी की प्रतिबद्धता जरूरी

    By Sanjay PokhriyalEdited By:
    Updated: Fri, 27 May 2022 01:08 PM (IST)

    समकालीन संकटग्रस्त परिस्थितियों में यदि हम जैव विविधता को संरक्षित करना चाहते हैं तो हमें मानव समाज में अपनी वैदिक संस्कृति परंपराओं और प्रकृति के साथ उसके संबंधों के साहचर्य को पुनस्र्थापित करना पड़ेगा। प्रकृति को बचाने के लिए सभी की प्रतिबद्धता जरूरी है।

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    प्रकृति को बचाने के लिए सभी की प्रतिबद्धता जरूरी।

    आचार्य राघवेंद्र प्रसाद तिवारी। प्राचीन भारतीय सभ्यता तथा उसके जीवन-मूल्यों को वेदों, उपनिषदों, पुराणों और कई अन्य शास्त्रों में सहेज कर रखा गया है। इन शास्त्रों में हमारे सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन को अनुशासित रखने वाले मूल्यों का विस्तृत वर्णन है। सनातन धर्म की मान्यता है कि धरती हमारी माता है और इस पर मनुष्य एवं अन्य सभी प्राणियों का समान अधिकार है। सह-जीवन एवं सह अस्तित्व के मूल्य इस धर्म की सबसे बड़ी पूंजी हैं। जैव विविधता को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक घटकों जैसे वृक्ष, पशु-पक्षी, जल, वायु, मृदा, अग्नि, पत्थर, पर्वत, ग्रह आदि की पूजा-अर्चना की व्यवस्था थी। हमने प्रकृति के विभिन्न स्वरूपों की पवित्रता को पहचाना, सराहा एवं संरक्षित रखा।

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    वैदिक सभ्यता स्थलमंडल, जलमंडल और वायुमंडल के मध्य सह-अस्तित्व की सैद्धांतिकी थी। जीवन की उत्पत्ति जल में हुई एवं जल की शुद्धता सुनिश्चित किए बिना जीवन को बचाया नहीं जा सकता। जल-प्रदूषण रोकने हेतु नदियों और झीलों सहित विभिन्न जल स्नोतों की पूजा की जाती थी। वैदिक लोगों को आभास था कि पर्वत, जंगल एवं घास के मैदान जैव विविधता के भंडार थे एवं जीवन-रक्षक पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण हेतु अत्यंत आवश्यक थे। वैदिक संस्कृति में माना जाता था कि पौधों में मानवों की भांति चेतना होती है, वे भी पीड़ा के साथ-साथ खुशी का अनुभव करते हैं। इस विश्वास के फलस्वरूप पौधे और उनके उत्पाद हमारे अनुष्ठानों के अभिन्न अंग बने। भारतीय ग्रामीण परिवेश में आज भी विभिन्न अवसरों पर पीपल, बरगद, नीम, कदंब, बेल, तुलसी, आंवला, आम, केला, नारियल, पान, चंदन, रुद्राक्ष, कपरूर, कमल, पारिजात, अशोक इत्यादि पेड़-पौधे पूजा-अर्चना के अनिवार्य अंग हैं। वैदिककालीन मानव को यह भी ज्ञात था कि कार्बन तटस्थता बनाए रखने में इनकी अहम भूमिका है।

    वैदिक सभ्यता के दो प्रमुख सूत्र ‘कम से कम संसाधन में जीवन यापन’ और ‘प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग’ ने मानव जीवन को नियंत्रित रखा। पिछली कुछ सदियों से, विशेषकर विदेशी शासन काल में, वैदिक संस्कृति, परंपराओं और मूल्यों का क्षरण हुआ। हमारी समग्र विश्वदृष्टि खंडित हो गई। ‘कम ही अधिक है’ अब ‘अधिक भी कम है’, ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ अब ‘अहम भवंतु सुखिन:’, ‘वसुधैव कुटुंबकम’ अब ‘लिव इन रिलेशनशिप’, ‘मैं नहीं आप’ अब ‘आप नहीं मैं’, ‘प्रकृति केंद्रित’ नहीं अब ‘स्वयं केंद्रित’ एवं ‘पर्यावरण से मित्रता’ अब ‘पर्यावरण से शत्रुता’ में परिवर्तित हो गए हैं। सब कुछ मेरा ही है, मेरे लिए ही है, यह भाव प्रबलता से मनुष्य के भीतर घर कर गया है। वैदिक विचार ‘प्रकृति हमारी आत्मा का ही विस्तार है, हमारे सोच से लुप्त हो रहा है। हम अपने प्राकृतिक परिवेश से लगाव महसूस ही नहीं करते हैं। हमने व्यक्तिवादी, उपभोक्तावादी मानसिकता को जीवन का लक्ष्य बना लिया है, परिणामस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन हुआ है। प्राकृतिक अवयव निस्तेज हो रहे हैं। नदियां सूख रही हैं, उनमें गाद-गंदगी जम रही है।

    समकालीन संकटग्रस्त परिस्थितियों में यदि हम जैव विविधता को संरक्षित करना चाहते हैं, तो हमें मानव समाज में अपनी वैदिक संस्कृति, परंपराओं और प्रकृति के साथ उसके संबंधों के साहचर्य को पुनस्र्थापित करना पड़ेगा। प्रकृति को बचाने के लिए सभी की प्रतिबद्धता जरूरी है। इसके लिए सर्वप्रथम हमें यह स्वीकार करना होगा कि जीवन जीने की हमारी वर्तमान वैचारिकी उचित एवं न्यायसंगत नहीं है। साथ ही, इस तथ्य को भी स्वीकारना होगा कि हम प्रकृति के प्रति क्रूर होते जा रहे हैं और अपनी असीम लालसा की पूर्ति हेतु उसकी जैव विविधता को नुकसान पहुंचा रहे हैं।

    [कुलपति, पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा]

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