जानिए, दिल्ली की सियासी महासंग्राम में कौन है बाहुबली और कटप्पा
कुमार विश्वास के वक्तव्य का मर्म समझें तो दिल्ली दरबार की शिवगामी कमजोर और कुर्सी से चिपकी रहने वाली पात्र है। ...और पढ़ें

नई दिल्ली (मनोज झा)। दक्षिण के नामचीन निर्देशक एसएस राजमौलि की ब्लॉकबस्टर फिल्म बाहुबली के कथानक, रोमांच और किरदारों की झलक इन दिनों दिल्ली के सियासी परदे पर बखूबी देखी जा सकती है। यहां के सियासी गलियारे में खींचतान, दुरभिसंधियों और साजिशों का चल रहा खेल बाहुबली के मिथकीय साम्राज्य माहिष्मति की यादें ताजा कर रहा है।
फिल्म के कई कल्पित और चर्चित पात्र दिल्ली में अचानक से मूर्त रूप लेते दिखाई दे रहे हैं। हालांकि खालिस सिनेमाई अंदाज में चल रही इस सियासी पटकथा में कुछ पात्रों की भूमिका थोड़ी बदली-सी नजर आती है। इसमें कई बाहुबली और कई कटप्पा हैं।
दूसरी ओर, बिज्जल देव और उसके बेटे भल्लाल का किरदार एक ही पात्र में समाहित दिखाई देता है। वह ताकतवर, लेकिन संशयी किरदार दिखता है। इस सियासी घमासान में शिवगामी की भूमिका में कोई पात्र एकदम फिट तो नहीं बैठता, लेकिन एक मंडली है, जो हुक्म बजाती है।
आदेश-निर्देश और बयान जारी करती है, ट्विटर पर टिप्पणियां करती है। इतना ही नहीं, बाहुबलियों का कटप्पाओं से काम भी तमाम कराती है।
दिल्ली के ब्लॉकबस्टर में माहिष्मति साम्राज्य का कौन-सा किरदार किस नेता पर फिट बैठ रहा है, यह आप तय कर सकते हैं, लेकिन कुमार विश्वास खुद को लेटेस्ट बाहुबली बता रहे हैं। उनका कहना है कि उनसे पहले कुछ और बाहुबलियों को रास्ते से हटा दिया गया है।
विश्वास के कविताई अंदाज को थोड़ी गहराई से समझें तो आप बाहुबलियों की श्रेणी में योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को भी रख सकते हैं। कपिल मिश्र भी राजघाट पर अनशन से उठकर आए दिन हुंकार भर रहे हैं। लिहाजा उनको भी बाहुबली का दर्जा मिलना तय मान सकते हैं।
इस पूरे परिदृश्य में राजमौलि की फिल्म और दिल्ली में चल रहे सियासी घमासान के कुछ किरदारों में समानता तो कुछ की भूमिकाएं सिनेमा से थोड़ा अलग नजर आती हैं। उदाहरण के तौर पर राजमौलि का कटप्पा माहिष्मति के प्रति पूर्ण निष्ठावान था, कुछ उसी तरह जैसे हस्तिनापुर के प्रति देवव्रत भीष्म प्रतिज्ञाबद्ध थे।
उन्होंने गलत तो किया, लेकिन साम्राज्य की रक्षा के लिए किया। सबसे बड़ी बात कि उन्हें अपनी गलती का अहसास था, पछतावा था। दूसरी ओर, दिल्ली दरबार के कटप्पाओं की निष्ठा और स्वार्थ सिर्फ और सिर्फ अपनी कुर्सी के प्रति है।
ये बाहुबलियों पर इसलिए तीखे वार करते हैं, क्योंकि ऐसा नहीं करने पर उन्हें भी बाहुबलियों की कतार में निपटने को खड़ा किया जा सकता है। इसी प्रकार राजमौलि की शिवगामी सर्वोच्च आदर्षों वाली किरदार थी और माहिष्मति के प्रति उनकी भक्ति पर किसी को रत्ती भर संदेह नहीं था। लेकिन कुमार विश्वास के वक्तव्य का मर्म समझें तो दिल्ली दरबार की शिवगामी कमजोर और कुर्सी से चिपकी रहने वाली पात्र है।
वह बिज्जल-भल्लाल के एकीकृत किरदार के हुक्म की आंख मूंदकर सिर्फ इसलिए तामील करती है, क्योंकि उसे हर हाल में सत्ता की मलाई चाहिए। अन्यथा भल्लाल उसका भी काम तमाम कर सकता है।
एक सवाल कालकेय का भी है। राजमौलि ने इस रोमांचक किरदार को गढ़ने में अभूतपूर्व कल्पनाशीलता का परिचय दिया था। उन्होंने इसके जरिये फिल्म में एक नई भाषा भी गढ़ी। यह भाषा दर्शकों की समझ में भले न आए, लेकिन दोनों ओर के योद्धा इसे समझते-बूझते थे।
कालकेय क्रूर है, भयानक और विशालकाय है। सवाल है कि दिल्ली में यह कौन है? फिल्म और सियासत के अंतरसंबंधों की बारीकियों को जानने-समझने वालों से पूछें तो शायद वे यही कहेंगे कि दिल्ली में यह भूमिका भी एकीकृत किरदार में तिरोहित हो गई है।
कुछ भी हो, पात्रों, दृश्यों और कथानक की समानताओं-असमानताओं के बीच इन दिनों दिल्ली का सियासी घमासान माहिष्मति साम्राज्य जैसा रोमांच पैदा कर रहा है। बस दिक्कत यह है कि दिल्ली में सत्ता का यह संग्राम आम आदमी के बीच चल रहा है।

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