मिशनरियों के उत्थान ने आदिवासियों को भाजपा से किया दूर, झारखंड विधानसभा में ईसाई विधायकों की संख्या मुस्लिमों से दोगुनी
झारखंड विधानसभा चुनाव की सबसे बड़ी सच्चाई यह भी है कि यहां ईसाई विधायकों की संख्या मुस्लिमों से सीधे दोगुनी है जबकि आबादी मुस्लिमों की तुलना में एक ति ...और पढ़ें

अरविंद शर्मा, जागरण, नई दिल्ली। झारखंड विधानसभा चुनाव की सबसे बड़ी सच्चाई यह भी है कि यहां ईसाई विधायकों की संख्या मुस्लिमों से सीधे दोगुनी है, जबकि आबादी मुस्लिमों की तुलना में एक तिहाई से भी कम है। वर्ष 2011 की जनगणना रिपोर्ट बताती है कि झारखंड में 15 प्रतिशत मुस्लिम और मात्र चार प्रतिशत ईसाई हैं। लेकिन, मुस्लिम समुदाय के इस बार मात्र चार विधायक हैं और ईसाई विधायकों की संख्या आठ है।
बाबूलाल मरांडी एवं कल्पना सोरेन सामान्य सीटों से विधायक बने
यह आंकड़ा आरएसएस और भाजपा के कान खड़े करने वाला है। आत्ममंथन के लिए विवश करने वाला भी। झारखंड में इस बार 30 आदिवासी विधायक जीतकर आए हैं। आरक्षित 28 सीटों के अलावा बाबूलाल मरांडी एवं कल्पना सोरेन सामान्य सीटों से विधायक बने हैं।
सीधा हिसाब है, आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों में एक तिहाई पर ईसाई नेताओं ने कब्जा जमा लिया लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद भाजपा का सिर्फ खाता ही खुल पाया है। वह भी बाहर से लाए गए चम्पाई सोरेन के बूते।
भाजपा की ऐसी दुर्गति एक दिन का नतीजा नहीं है। दो दशक लगे हैं रसातल की ओर प्रस्थान करने में। जिन्हें सिरमौर मानकर राज्य की जिम्मेवारी सौंपी जाती रही, वह सत्ता के मद में ऐसे चूर रहे कि आगे की कल्पना भी नहीं की। आरएसएस ने जिन स्वयंसेवकों को साथी का दर्जा दिया था, सत्ता में आने के बाद भाजपा ने उन्हें कार्यकर्ता मान लिया। लिहाजा दूरी बढ़ती गई।
आदिवासी क्षेत्रों से भाजपा जैसे-जैसे कटती गई, मिशनरियां हावी होती गईं
आदिवासी क्षेत्रों से भाजपा जैसे-जैसे कटती गई, वैसे-वैसे मिशनरियां हावी होती गईं। सुदूर क्षेत्रों में आरएसएस का भाव सेवा का रहता था, किंतु मिशनरियों ने पैटर्न बदला और अपने लोगों को संघर्ष के लिए प्रोत्साहित किया। परिणाम सामने है। चार प्रतिशत होते हुए भी आठ विधायक बन गए, लेकिन दो तिहाई आबादी में पैठ का दावा करने वाली भाजपा को सिर्फ एक सीट से संतोष करना पड़ा।
धर्मांतरण के मुद्दे पर भाजपा सिर्फ हल्ला मचाती रही। लेकिन मिशनरियों ने अपने समर्थकों को संघर्ष करना सिखाया। संसाधन और जंबोजेट नेताओं की टोली होते हुए भी भाजपा हाथ मलती रह गई। इसके लिए कमांडर के साथ वे सारे दोषी हैं, जो अपने ही प्रत्याशियों को हराने के प्रपंच में लगे थे।
कार्यकर्ताओं को भांपने में हुई भूल
अलग राज्य निर्माण से पहले 1994 में झारखंड में वनांचल भाजपा नाम से अलग यूनिट बनाकर मरांडी को अध्यक्ष बनाया गया। अच्छा काम किया। कार्यकर्ता से केंद्र में मंत्री और फिर झारखंड का प्रथम मुख्यमंत्री होने का गौरव मिला। ¨कतु आंतरिक खींचतान में जैसे ही कुर्सी गई, बाबूलाल बागी हो गए। कुछ दिन इंतजार किया। हालात अनुकूल नहीं हुए तो पार्टी को ही अलविदा कह दिया। इसका खामियाजा बाबूलाल के साथ ही भाजपा को भी भुगतना पड़ा। दोबारा लाकर बिठाना कार्यकर्ताओं ने स्वीकार नहीं किया।

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