सही नहीं है न्यूनतम वेतन बढ़ाना, इससे बढ़ती है बेराजगारी, आप भी जानिये कैसे
अर्थशास्त्री मानते हैं न्यूनतम मजदूरी बढ़ाना सही नीति नहीं है। उनके मुताबिक इससे बेरोजगार में तेजी आती है।
डॉ. अश्विनी महाजन। हाल ही में दिल्ली और ओडिशा समेत कई राज्य सरकारों ने न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने का निर्णय लिया है। कई अर्थशास्त्री इस मुद्दे पर अपनी असहमति व्यक्त करते हुए कहते हैं कि न्यूनतम मजदूरी बढ़ाना सही नीति नहीं है, क्योंकि इससे रोजगार देने वाले व्यवसायों में श्रम बचाने की होड़ लग जाती है और वे ऐसी प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना शुरू करते हैं जिसमें श्रम का न्यूनतम उपयोग होता है। इससे युवाओं को रोजगार मिलना और मुश्किल हो जाएगा। लेकिन न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने के पक्षधर यह मानते हैं कि इससे श्रमिकों को उत्पादन में ज्यादा बड़ा हिस्सा मिलता है, इस प्रकार न्यूनतम मजदूरी सर्वसमावेशी विकास लाने के लिए जरूरी कदम है।
बंटे हुए हैं मत
यदि शोध की बात करें तो उस पर भी अर्थशास्त्रियों के मत बंटे हुए हैं। कुछ अध्ययन यह बताते हैं कि न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने से रोजगार पर कोई खास असर नहीं पड़ता, जबकि कुछ दूसरे अध्ययन यह बताते हैं कि न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने से रोजगार वास्तव में कम हो जाता है। न्यूनतम मजदूरी बढ़ने से श्रम महंगा हो जाता है, इसलिए कई शोधकर्ता ऐसा मान लेते हैं कि इसका असर श्रम की मांग पर पड़ेगा, जिससे रोजगार सृजन कम हो जाएगा। लेकिन कुछ अर्थशास्त्रियों का यह भी कहना है कि जो फमेर्ं ज्यादा मजदूरी देती हैं वे अपेक्षाकृत बेहतर कुशलता वाले मजदूरों को आकृष्ट करती हैं। इस प्रकार ज्यादा मजदूरी देना उद्यमी के लिए लाभकारी सौदा हो सकता है।
भूमंडलीकरण का दौर
भूमंडलीकरण के पहले का जमाना यदि देखें तो श्रमिक संगठनों की ताकत के सामने बड़े-बड़े उद्योगपति भी कमजोर पड़ते थे। श्रमिक आंदोलन की आशंका से ही मजदूरों को अच्छी मजदूरी मिल जाती थी। लेकिन भूमंडलीकरण के दौर में यह ताकत मजदूर संगठनों के पास नहीं बची। आज सामान्य मजदूर अपनेआप को असहाय महसूस कर रहा है और रोजगार देने वाली कंपनियां उनका शोषण कर रही हैं। प्रौद्योगिकी विकास से कई नए क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बन रहे हैं, लेकिन इन सभी क्षेत्रों में कामगार संगठित नहीं हो पा रहा। बीपीओ, सॉफ्टवेयर, कंप्यूटर हार्डवेयर, इलेक्ट्रॉनिक समेत नए क्षेत्रों में श्रम संगठन नाममात्र ही हैं। इसके अलावा सुरक्षा गार्ड, ड्राइवर, सफाई कर्मचारी इत्यादि कम वेतन वाले कामों में तो कंपनियां एजेंसियों के माध्यम से रोजगार देती हैं। मजदूरों को ये एजेंसियां न्यूनतम सुविधाएं भी नहीं देती हैं।
श्रम का हिस्सा निरंतर कम
उदारीकरण के युग में सबसे ज्यादा नुकसान श्रमिकों, कामगारों और कर्मचारियों को ही हुआ है। उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार कुल उत्पादन (मूल्य संवृद्धि) में श्रम का हिस्सा निरंतर कम होता गया है। जहां 1990-91 में श्रम का हिस्सा 78 प्रतिशत था, वह 2014-15 में घटकर 50 प्रतिशत ही रह गया। उधर श्रमिकों को जो नुकसान हुआ है, वह सारा लाभ पूंजीपतियों को मिला है, जिनके लाभों का मूल्य संवृद्धि में हिस्सा 19 प्रतिशत से बढ़कर 2014-15 में लगभग 47 प्रतिशत पहुंच गया। ऐसे में न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने में हर्ज क्या है? कई अर्थशास्त्री यह कहते हैं कि ज्यादा मजदूरी देना कंपनियों के हित में है क्योंकि यदि मजदूर को ज्यादा मजदूरी मिलती है तो वह बेहतर भोजन करेगा, जिससे उसकी कार्यकुशलता बढ़ेगी, इसलिए कंपनियां खुद ही ज्यादा मजदूरी देंगी। कंपनियां जब इसके लाभों को जानती हैं, तो उन्हें ज्यादा मजदूरी देने के लिए बाध्य क्यों किया जाए?
हास्यास्पद तर्क
यह तर्क अत्यंत हास्यास्पद है क्योंकि आंकड़े बताते हैं कि भूमंडलीकरण के पहले 25 सालों (1990-91 से 2015-16) के बीच वास्तविक मजदूरी में अत्यंत कम वृद्धि हुई, जबकि इस बीच वास्तविक राष्ट्रीय आय कई गुना ज्यादा बढ़ गई। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी का शोध बताता है कि 1980 से 2014 के बीच के 34 वषों में भारत की आर्थिक संवृद्धि का 66 प्रतिशत हिस्सा मात्र 10 प्रतिशत लोगों के हाथ ही आया और 29 प्रतिशत हिस्सा मात्र एक प्रतिशत लोगों ने हथिया लिया। ऐसे में जब परिस्थितियां श्रमिकों के पक्ष में नहीं हैं और पूंजीपति श्रमिकों का शोषण कर रहे हैं, तो न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने के अतिरिक्त सरकारों के पास कोई उपाय नहीं है। न्यूनतम मजदूरी के खिलाफ मत वाले अर्थशास्त्री कहते हैं कि न्यूनतम मजदूरी बढ़ाना अगर इसलिए जरूरी है कि गरीब की आमदनी बढ़ानी है तो सरकार उन्हें सीधे नकदी ट्रांसफर कर उनकी आमदनी बढ़ा सकती है। यह तर्क भी हास्यास्पद है।
गरीब आदमी की आमदनी बढ़ाना जरूरी
यह सही है कि गरीब आदमी की आमदनी बढ़ाना जरूरी है, लेकिन सरकार अपने ऊपर बोझ लादते हुए पूंजीपतियों के लाभों को बनाये रखे, यह समझ के परे है। भूमंडलीकरण के युग में खुले आयातों की नीति और मल्टीनेशनल कंपनियों समेत बड़े कॉरपोरेट को तमाम सुविधाएं दिए जाने के कारण देश-दुनिया में बेरोजगारी लगातार बढ़ती गई। आज भी भारत सरकार कॉरपोरेट को सालाना पांच लाख करोड़ रुपये से भी ज्यादा की रियायत देती है। पिछले कई वषों से कॉरपोरेट टैक्स की दर (सरचार्ज इत्यादि मिलाकर) लगभग 30 प्रतिशत रही, कंपनियों से वास्तविक रूप से 22 से 23 प्रतिशत ही कर वसूला गया, और उन्हें तमाम प्रकार की सुविधाएं भी मिलती रही। कॉरपोरेट जगत इन तमाम सुविधाओं का लाभ उठाता है, लेकिन मजदूर और कामगारों को जब वह पर्याप्त मजदूरी और वेतन नहीं देता तो सरकार द्वारा न्यूनतम मजदूरी बढ़ाकर मजदूरों की हालत में सुधार एकमात्र रास्ता बचता है।
न्यूनतम मजदूरी बढ़ने के विरोधियों का तर्क
न्यूनतम मजदूरी बढ़ने के विरोधी यह भी तर्क देते हैं कि मजदूरी दर बढ़ने से कंपनियां मशीनीकरण, रोबोटीकरण और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस जैसे उपाय अपनाकर रोजगार घटा सकती हैं। इसलिए युवाओं को रोजगार मिलने में कठिनाई हो सकती है। ऐसे में सरकारों को हस्तक्षेप करना पड़ेगा और उपयुक्त प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने की दिशा में प्रयास करना होगा। नई प्रौद्योगिकी का स्वागत होना चाहिए, लेकिन प्रौद्योगिकी के नाम पर अधिसंख्य मजदूरों और कामगारों से उनके जीने का अधिकार नहीं छीना जा सकता। जब तक देश में आय और संपत्ति की असमानता रहेगी तब तक औद्योगिक विकास पूरी तरह से जोर नहीं पकड़ सकता है। चंद अमीरों के लिए विलासिता की वस्तुएं बनाकर और बेचकर औद्योगिक विकास नहीं हो सकता। इसलिए जरूरी है कि किसान और मजदूर की आमदनी बढ़े।
(लेखक डीयू में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)