जब विपक्ष में रहते हुए भी केंद्र सरकार के समर्थन में आए थे अटल बिहारी वाजपेयी
जनता पार्टी की सरकार में कुछ साल के लिए मंत्री पद को छोड़ दें तो प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने से पहले लंबे अरसे तक वह विपक्ष में ही रहे तो उन्हें विपक्ष का विशेषज्ञ नेता भी कहा जाने लगा।
अवधेश कुमार। अटल बिहारी वाजपेयी की पूरी जीवन यात्र के मूल्यांकन के लिए कुछ आधार बनाना होगा। उनको भारतीय राजनीति का शलाका पुरुष मानने वाले बिल्कुल सही हैं। राजनीति में इतना लंबा दौर गुजारने के बावजूद वैचारिक प्रतिबद्धता रखते हुए घोर विरोधियों के प्रति भी बिल्कुल उदार आचरण एवं उसे जीवन भर कायम रखना तथा किसी से निजी कटुता न होना सामान्य बात नहीं है। वस्तुत: आजादी के दौर के राजनेताओं में राष्ट्रीय राजनीति में वे अंतिम व्यक्ति बच गए थे। इसका असर उनकी सोच एवं व्यवहार पर था। हालांकि वह एक विशेष विचारधारा के प्रतिनिधि थे लेकिन राजनीति को देखने का उनका दृष्टिकोण आजादी के दौरान भारत के बारे में देखे गए सपने से निर्धारित था। आजादी के बाद जिन महापुरुषों के साथ उनको काम करने का अवसर मिला उन सबका भी असर उन पर था।
वाजपेयी और डॉक्टर मुखर्जी
वर्ष 1947 से लेकर लंबे समय तक देश में जो घटनाएं घटीं, भारत के सामने जो संकट और चुनौतियां आईं, उनसे निपटने के लिए तब के हमारे नेतृत्व ने जो कुछ किया उन सबका गहरा असर अटल जी के मनोमस्तिष्क पर पड़ा। जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की जम्मू कश्मीर यात्र के समय वह उनके साथ थे। वाजपेयी जी ने कई बार कहा कि डॉ. मुखर्जी ने उनको कहा कि जाओ और देशवासियों को बताओ कि मैं बिना परमिट के कश्मीर में प्रवेश कर गया हूं। जैसाकि हम जानते हैं डॉ. मुखर्जी वहां से वापस नहीं लौटे। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मौत हो गई। उनके पिता जी एक कवि एवं रचनाकार थे जिन्होंने पुत्र के रूप में इनको उसी तरह से विकसित करने की कोशिश की। संघ का प्रचारक बनने के बाद उन्हें राष्ट्रधर्म पत्रिका से लेकर पाञ्चजन्य, स्वदेश और वीर अजरुन जैसे पत्रों का संपादन करने का दायित्व मिला।
अटल जी के राजनीतिक व्यक्तित्व का निर्माण
इन घटनाओं का जिक्र करने का उद्देश्य यह बताना है कि अटल जी के राजनीतिक व्यक्तित्व निर्माण में सबकी सम्मिलित भूमिका थी। चाहे विपक्ष के नेता के रूप में हो, विदेश मंत्री के तौर पर या फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी संपूर्ण भूमिका में आपको यह सब परिलक्षित होता है। 1957 में पहली बार लोकसभा पहुंचने के बाद उनके भाषणों को देख लीजिए, उसमें जनसंघ की विचारधारा के अनुसार घटनाओं पर टिप्पणियां हैं, संघ के गीतों और उनकी कविताओं की पंक्तियां हैं, किंतु कहीं भी जवाहरलाल नेहरू या उनके साथियों के प्रति एक शब्द भी ऐसा नहीं है जिसे आप सम्मान को कम करने वाला कह सकते हैं। उस समय कश्मीर से लेकर पाकिस्तान, तिब्बत, केरल में राष्ट्रपति शासन आदि ऐसे अनेक मुद्दे थे जिन पर जनसंघ और कांग्रेस के बीच सहमति नहीं हो सकती। किंतु संसदीय लोकतांत्रिक राजनीति की मर्यादाओं का उन्होंने पूरा पालन किया।
संघ का सहयोग
1962 के युद्ध के समय जनसंघ के सारे प्रमुख नेताओं के साथ मिलकर वाजपेयी जी ने सरकार का साथ देने तथा कार्यकर्ताओं को देशभर में जितनी शक्ति हो उसके अनुसार सरकारी मशीनरी का सहयोग करने का निर्णय किया। इसी का परिणाम था कि संघ के स्वयंसेवक ने दिल्ली सहित कई शहरों के यातायात को व्यवस्थित करने में सहयोग किया। नेहरू जी अटल जी को बहुत प्यार करते थे। बकौल अटल जी एक बार उन्होंने लोकसभा में कांग्रेस और नेहरू सरकार की नीतियों पर तीखा हमला किया। उसी संध्या एक कार्यक्रम में नेहरू जी ने उनको देखा और कहा कि आज तो बहुत अच्छा भाषण था। यह जो उदार व्यवहार था नेहरू जी का, उनका असर न हो ऐसा कैसे हो सकता है। 1971 में बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के समय अटल जी पूरी तरह सरकार के साथ खड़े थे। यहां तक कि आपातकाल में उन्हें जेल जाना पड़ा। उस दौरान भी उन्होंने जो कविताएं लिखीं उनमें शासन की आलोचना तो है पर इंदिरा जी पर कोई सीधी निजी तीखी टिप्पणी नहीं।
चुनाव को लेकर फैसला
वाजपेयी जी के राजनीति काल में वह समय आया जब 1977 में उन्हें फैसला करना था कि जनसंघ अलग होकर चुनाव लड़ेगा, गठबंधन में शामिल होगा या फिर पार्टी का विलय कर दिया जाए। उस समय लालकृष्ण आडवाणी जनसंघ के अध्यक्ष थे, किंतु वाजपेयी जी के प्रभाव से ही यह संभव हुआ कि जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया। संघ के नेता भी वाजपेयी जी के कारण ही इसके लिए तैयार हुए। जनता सरकार के दौरान विदेश मंत्री के रूप में चीन और पाकिस्तान से संबंध सुधारने की उनकी कोशिश पर लोगों को आश्चर्य हुआ, क्योंकि आम धारणा यही थी कि यह तो पाकिस्तान और चीन के घोर विरोधी हैं। उस दौरान संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में भाषण देकर वाजपेयी जी ने इतिहास बनाया। मातृभाषा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है।
संबंध और संवाद का प्रभाव
एक पत्रकार, कवि और दूसरी पार्टियों के नेताओं के साथ संबंध और संवाद का ही प्रभाव था कि जब उनकी पार्टी के सामने 1998 में सरकार बनाने का अवसर आया तो उन्होंने एक साथ कई पार्टियों को साथ लेकर सरकार के लिए एजेंडा बना कर अपने तीन प्रमुख मुद्दों को बाहर किया। यही वह काल था जब उन्होंने सरकार बनने के ढाई महीने के अंदर ही पोखरण में 11 और 13 मई 1998 को दो नाभिकीय परीक्षण कराया। पूरी दुनिया इससे भौंचक रह गई। अमेरिका हक्का- बक्का था कि उसके उपग्रहों की नजर से इसकी तैयारी बच कैसे गई। जाहिर है, उसकी तैयारी में वाजपेयी, उनके रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडिस तथा वैज्ञानिक सलाहकार डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने मिलकर इतनी गोपनीयता बरती कि यह मिशन सफल हो सका। वाजपेयी जी को मालूम था कि इसकी प्रतिक्रिया दुनिया भर में भारत के विरुद्ध होगी।
भारत पर कठोर प्रतिबंध
अमेरिका से लेकर जापान, ऑस्ट्रेलिया सबने भारत पर कठोर प्रतिबंध लगा दिया। वही समय एक नेतृत्व की परीक्षा का था। वाजपेयी अपने कदम को पीछे हटाने को तैयार नहीं हुए और तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह के माध्यम से इतना सघन कूटनीतिक अभियान चलाया कि धीरे-धीरे अमेरिका भारत से सहमत हुआ और अन्य देशों के रवैये में बदलाव आया। बाद में यूपीए सरकार के समय अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश एवं हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के साथ जो नाभिकीय सहयोग समझौता हुआ उसकी नींव अटल जी ही डाल कर गए थे। अटल बिहारी वाजपेयी के काल का सबसे बड़ा प्रयास जम्मू कश्मीर को सामान्य स्थिति में लाना तथा पाकिस्तान से हर हाल में संबंध सुधारने की कोशिश के रूप में सामने आया। वाजपेयी जी ने स्वयं बस लेकर लाहौर जाने का ऐतिहासिक कदम उठाया और मीनार-ए-पाकिस्तान जाकर यह संदेश दिया कि देश के रूप में भारत पाकिस्तान को स्वीकार करता है।
कारगिल में पाकिस्तान की हार
लांकि वहां से वापसी के कुछ समय बाद ही करगिल युद्ध आरंभ हो गया। बिना सीमा पार किए पाकिस्तान को युद्ध में पूरी तरह परास्त करना तथा इस दौरान दुनिया भर का समर्थन जुटाने का कौशल हमारे सामने है। संसद पर हमले के बाद सीमा पर सेना को हमला करने की अवस्था खड़ा कर पाकिस्तान को कुछ घोषणाएं करने को विवश किया। जनरल परवेज मुशर्रफ को पहले आगरा बुलाया और बैठक असफल होने के बावजूद प्रयास नहीं छोड़ा। अंतत: जनवरी 2004 में वे दोबारा पाकिस्तान गए और मुशर्रफ ने समझौता में स्वीकार किया कि आतंकवाद के लिए अपनी भूमि का उपयोग नहीं करेंगे। पाकिस्तान के साथ समग्र वार्ता की शुरुआत हुई। आर्थिक नीतियों में उदारवाद के वे समर्थक थे तथा संघ एवं उससे जुड़े अनेक संगठनों के तीखे विरोध के बावजूद वे उस पर कायम रहे। अपने पूरे कार्यकाल में उन्होंने विरोधी नेताओं के तीखे विरोध को झेलते हुए व्यवहार में कभी तीखापन नहीं प्रदर्शित किया। इसलिए उनके प्रति सभी दलों के नेताओं का हमेशा ही सम्मान बना रहा।
प्रेरणा के स्नोत
आज अगर सभी दलों एवं विचारधारा के नेता और आम नागरिक अटल जी को लेकर द्रवित हैं तो इसमें उनके पूरे जीवन के आचरण का ही योगदान है। अटल जी जैसे राजनेता का व्यक्तित्व वास्तव में अतुलनीय है। इतनी बहुमुखी प्रतिभा और क्षमता तथा उन सबके होते हुए अहं से परे रह कर अपने कर्तव्यों के निर्वहन के प्रति इतना समर्पित रहना सामान्य बात नहीं है। ऐसे व्यक्ति को यह देश कभी भूल नहीं सकता। इतिहास में उनका नाम हमेशा सम्मान से लिया जाएगा। आज के नेताओं के लिए वे विचार और आचरण में प्रेरणा के स्नोत बने रहेंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)