Exclusive Interview: 'फैसला सुप्रीम कोर्ट का था मेरा नहीं, कहानी बनाने की हुई कोशिश'; बी सुदर्शन रेड्डी ने खुलकर रखी अपनी बातें
उपराष्ट्रपति चुनाव दो विचारधाराओं के बीच की लड़ाई है। विपक्ष के उम्मीदवार सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी सुदर्शन रेड्डी दैनिक जागरण के साथ बातचीत में लोकतंत्र संविधान और सामाजिक न्याय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करते हैं। उन्होंने सभी सांसदों से सोच-समझकर वोट देने की अपील की है और संविधान को बचाने की बात कही।

संजय मिश्र, नई दिल्ली। उपराष्ट्रपति पद चुनाव का दो विचारधाराओं के बीच लड़ाई होने में कुछ गलत नहीं, लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा उपराष्ट्रपति पद के चुनाव में सत्ताधारी राजग अपने आंकड़ों के दम पर जीत को लेकर आश्वस्त है तो विपक्षी दल अपने उम्मीदवार की गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि, सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धतता तथा उदारवादी छवि के सहारे मैदान में है। पक्ष-विपक्ष के बीच संसद में आंकड़ों के बीच चाहे जो भी फासला हो इस चुनाव की सियासी सरगर्मी रोचक है जिसका पटाक्षेप नौ सितंबर को होगा।
चुनाव की सियासी गरमाहट में उठे मुद्दों पर विपक्षी आइएनडीआइए गठबंधन के उपराष्ट्रपति पद के साझा उम्मीदवार सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी सुदर्शन रेडडी ने दैनिक जागरण के एसोसिएट एडिटर संजय मिश्र से खास बातचीत की।
पेश है इसके अंश:
उपराष्ट्रपति चुनाव के मैदान में सर्वोच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश के उतरने से राजनीतिक ही नहीं सामाजिक जगत में भी उत्सुकतापूर्ण सरगर्मी है क्या यह आपके लिए सहज है? लोकतंत्र का तो मतलब ही बातचीत, समभाषण, परिचर्चा है। किसी वजह से देश में लोकतंत्र तथा संविधान के बारे में चर्चा हो रही है और कुछ हद चर्चा का यदि मैं कारण हूं मेरे लिए इससे बड़ी खुशी भला क्या हो सकती है।
नक्सल विरोधी अभियान को कमजोर करने में सुप्रीम कोर्ट के जज के तौर पर सलवा-जुडूम संबंधी फैसले में आपकी भूमिका को लेकर केंद्र सरकार के उच्च राजनीतिक स्तर पर सवाल उठाए गए हैं, आप इस पर क्या कहेंगे? यह सुप्रीम कोर्ट का फैसला था और मैं कौन हूं। मैंने फैसला जरूर लिखा। इसमें एक कहानी बनाने की कोशिश हुई है। मगर अब यह चर्चा खत्म हो गई है और ज्यादा टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा। उनको जो बोलना था उन्होंने बोला और जो मुझे कहना था मैंने कहा। बात खत्म हो गई और उसे पीछे छोड़ हम आगे बढ़ गए हैं।
विपक्षी आइएनडीआइए गठबंधन के साझा उम्मीदवार बनने के बाद आपने बीजद और वाईएसआर कांग्रेस जैसी कुछ पक्ष-विपक्ष से अलग पार्टियों से संपर्क-संवाद किया है तो क्या उनसे समर्थन का भरोसा मिला है? मैंने सभी राज्यसभा-लोकसभा सांसदों को पत्र लिखा है। सभी से बातचीत चल रही है और राज्यों की यात्रा कर रहा हूं क्योंकि उम्मीदवार हूं। मतदान करने वालों से तो आग्रह करना ही पड़ेगा। जिन पार्टियों का जिक्र आपने किया है उनके नेताओं से बातचीत हुई है मगर इस बातचीत का खुलासा करना मेरे लिए उचित नहीं।
सांसदों से क्या आप पार्टी लाइन से हट कर अंतरात्मा की आवाज पर वोट की अपील करेंगे? इस शब्द का मैं इस्तेमाल नहीं करुंगा आप चाहें इसे जो नाम दें। सभी सांसदों से मैंने यही अपील की है कि आपके समक्ष दो उम्मीदवार हैं। सोच-समझ कर अपना मत दीजिए। इससे ज्यादा कुछ कहना मुनासिब नहीं होगा क्योंकि मतदान करने वाले राजनीतिक दल नहीं बल्कि इसके सदस्य हैं। इसमें कोई व्हिप नहीं है। जब संविधान ने यह नियमावली बनाई है तो कुछ तो मतलब होगा।
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद का चुनाव सियासी मामलों से हटकर होना चाहिए। जीतकर जो भी इस पद पर बैठे वो दलीय राजनीति से इतर सबको लेकर चले यह बेहद जरूरी है। सबको साथ लेकर चलने की आप बात कर रहे मगर वर्तमान में कुछ संवैधानिक पद भी राजनीतिक झुकाव-पक्षपात के आक्षेपों से बच नहीं पा रहे क्या यह चिंताजनक नहीं है? यदि मैं उपराष्ट्रपति चुना जाता हूं तो यह भरोसा देता हूं कि किसी राजनीतिक दल या गुट-समूह को उपर उठाने या नीचे गिराने जैसा कोई काम नहीं करूंगा। यह काम किसी को भी नहीं करना चाहिए। कौन ऐसा कर रहा कि सवाल और आक्षेपों की आज स्थिति पहुंच गई है इस पर फिलहाल टिप्पणी मेरे लिए उचित नहीं है।
राजनीति के एक गलियारे से सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज का उपराष्ट्रपति चुनाव लड़ने को न्यायपालिका के राजनीतिकरण से जोड़ने का प्रयास हो रहा इसका प्रतिकार कैसे करेंगे? हिन्दुस्तान हर नागरिक को बताना चाहता हूं कि उपराष्ट्रपति कोई सियासी नहीं एक संवैधानिक पद है। करीब 55 सालों से संविधान से जुड़ा हुआ एक व्यक्ति हूं और यह चुनाव मेरी इस यात्रा का हिस्सा है। इसलिए यह नहीं समझता कि चुनाव लड़ने का फैसला कर कोई अनुचित कदम उठाया है। वस्तुत: संविधान से जुड़ाव की मेरी यात्रा जारी है क्योंकि मैंने कोई पद या राज्यसभा का नामिशेनशन नहीं मांगा है।
उम्मीदवारी को आप संवैधानिक यात्रा का हिस्सा मान रहे मगर विपक्ष इसे विचाराधारा की लड़ाई बता रहा, तो क्या यह संवैधानिक पद और वैचारिक लड़ाई के बीच संघर्ष नहीं है? मेरी विचाराधारा संविधान है। मैं एक उदारवादी लोकतांत्रिक संविधानवादी हूं। मेरे प्रतिद्वंदी उम्मीदवार राधाकृष्णन जी खुद तथा उनके समर्थक बोलते हैं कि वे बचपन से एक संस्था से जुड़े हैं। यह उनका हक है और उन्होंने वह रास्ता चुना तथा मैंने इस रास्ते को। इसको नजर में रखते हुए आप इसे विचारधारा का चुनाव मानते हैं तो फिर यह विचाराधारा की लड़ाई है। इसमें कुछ गलत बात भी नहीं क्योंकि लोकतंत्र का मतलब ही है अलग-अलग ख्याल रखना और दोनों के बीच विमर्श चल रहा है। यह विमर्श चलना भी चाहिए क्योंकि देश का निर्माण ऐसे ही होता है। सब लोग एक ही बात करेंगे, एक ही भाषा बोलेंगे या देश में सभी एक ही दल के होंगे लोकतंत्र में ऐसा असंभव है।
आपने वैचारिक विविधता की बात की मगर वर्तमान राजनीति में प्रतिद्वंदिता सियासी दुश्मनी का स्वरूप ले रहा इसे कैसे बदला जा सकता है? किसी को वैचारिक विरोधी तो मान सकता हूं मगर उसे कभी दुश्मन मान के चलने वाला नहीं हूं। किसी विचाराधारा को नहीं मानने का मतलब नहीं कि हम उसे दुश्मन मानें। लोकतंत्र में प्रतिद्वंदी-विरोधी को दुश्मन मानने की सोच से भारत आगे नहीं बढ़ेगा। हम सब को इसे रोकना चाहिए। उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव में तू-तू मैं-मैं करने नहीं करते हुए मर्यादा के साथ चुनाव लड़ना इस दिशा में मेरा अपना पहला कदम है।
यदि आप उपराष्ट्रपति चुने जाते हैं तो क्या तीन प्राथमिकताएं रहेंगी? सबको जोड़ना मेरा पहला काम होगा चाहे किसी भी दल के हों। सभी सदस्यों की मान्यता देना ताकि उनकी गरिमा को ठेस न पहुंचे। दूसरा चर्चा-संवाद का स्वस्थ वातावरण निर्माण। सभी सांसदों को संसद में खड़े होकर देश को संबोधित करने का मौका मिलना चाहिए। तीसरी चीज रहेगी संविधान को बचाने और उसे मजबूत करने का काम।
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