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    Analysis: विश्व स्तर पर मृत्यु दंड को समाप्त करने के लिए कई दशकों से कवायद जारी, निर्धारित होने चाहिए इसके प्रविधान

    By JagranEdited By: Sanjay Pokhriyal
    Updated: Mon, 26 Sep 2022 08:28 AM (IST)

    विश्व स्तर पर जघन्य अपराधों में मृत्यु दंड देने की परंपरा का उद्देश्य यह मानना रहा है कि इससे भविष्य में गंभीर दुष्कृत्य करने से पहले कोई व्यक्ति सौ बार सोचेगा परंतु अब तक ऐसा कुछ दिख नहीं रहा है।

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    भारत में भी यह मामला सुर्खियों में है

    सीबीपी श्रीवास्तव। किसी भी प्रकार के जघन्य अपराध के मामले में मृत्यु दंड वास्तव में दंडात्मक न्याय का एक बड़ा उदाहरण है। जिन देशों में यह प्रचलित है उसका सैद्धांतिक आधार विधिक प्रत्यक्षवाद है जिसे साधारण अर्थ में इस रूप में समझा जा सकता है कि विधि में उल्लिखित प्रविधान ही वैध हैं और उनके विरुद्ध कही या लिखी गई कोई बात अवैध होगी। इसी सिद्धांत पर भारत और अन्य देश भी इस दंड को बनाए हुए हैं।

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    सवाल यह है कि क्या मृत्यु दंड मानव अधिकारों का उल्लंघन है, जैसा कि संयुक्त राष्ट्र, एमनेस्टी इंटरनेशनल और इसे समाप्त करने वाले देशों का मानना है, या ‘दुर्लभ से दुर्लभतम’ मामलों में ऐसा दंड दिया जाना तार्किक है, इस गंभीर मुद्दे पर विचार किया जाना चाहिए। दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि ऐसा दंड दिए जाने के आधार क्या होंगे? इसी मुद्दे पर हाल ही में भारत के उच्चतम न्यायालय ने इस मामले को सुनवाई के लिए एक संवैधानिक पीठ के पास भेज दिया है और यह कहा है कि ऐसे दंड के आधारों और मानकों का निर्धारण किया जाना चाहिए।

    न्यायालय ने यह कहा कि किसी मामले में जमानत देने के सवाल पर एक समान दृष्टिकोण व स्पष्टता आवश्यक है। ऐसे मामलों में अभियुक्तों को सुनवाई का वास्तविक व सार्थक अवसर देने के लिए इस पर पांच न्यायाधीशों वाली संवैधानिक पीठ द्वारा विचार किया जाना आवश्यक है। न्यायालय ने महान्यायवादी और राष्ट्रीय विधिक सेवाएं प्राधिकरण से भी इस विषय पर राय मांगी है। ‘मृत्यु दंड को लागू करते समय उसे कम करने वाली संभावित परिस्थितियों पर विचार करने के संबंध में दिशानिर्देशों का निर्धारण’ नामक मामले की सुनवाई संवैधानिक पीठ द्वारा की जाएगी। उच्चतम न्यायालय द्वारा इस विषय पर संज्ञान लेने का उद्देश्य मृत्यु दंड दिए जाने पर निर्णय लेने के लिए डाटा और जानकारी एकत्र करने में शामिल प्रक्रिया की जांच करना और उसे संस्थागत बनाना है। न्यायालय ने यह भी जांचने का फैसला किया था कि जिन न्यायालयों को मृत्यु दंड देने की शक्ति है, वे किस प्रकार अपराध की प्रकृति और आरोपित का विश्लेषण कर सकती हैं।

    न्यायालय में दायर याचिका

    ध्यातव्य हो कि नेशनल ला यूनिवर्सिटी, दिल्ली के मृत्युदंड विरोधी निकाय, प्रोजेक्ट 39ए द्वारा एक याचिका दायर किए जाने के बाद यह प्रक्रिया आरंभ की गई थी। याचिका में कहा गया था कि मृत्यु दंड के योग्य मामलों के संदर्भ में शमन, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत कारकों व किसी भी अन्य प्रासंगिक कारकों जैसी सूचनाओं के विस्तृत संग्रह, प्रलेखन और विश्लेषण का एक अभ्यास है जो किसी व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करता है। अतः उस पर गंभीर विचार करना अनिवार्य है। वर्तमान में भारत में केवल ‘दुर्लभ से दुर्लभतम’ मामलों में ही ऐसा दंड दिया जाता है।

    वर्ष 2013 में कानून में एक संशोधन ने उन मामलों में भी मृत्यु दंड की अनुमति दी, जहां दुष्कर्म पीड़िता की मृत्यु का कारण बना हो या पीड़िता को मरणासन्न स्थिति में ला दिया हो। मृत्यु दंड की वैधता के परीक्षण का विषय सबसे पहले उच्चतम न्यायालय के सामने जगमोहन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1973 मामले में लाया गया था, जिसमें न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मृत्युदंड या आजीवन कारावास के बीच चुनाव करते समय तथ्यों, परिस्थितियों और किए गए अपराध की प्रकृति की जांच न्यायाधीश द्वारा की जाएगी। इसलिए मृत्युदंड देने का निर्णय अनुच्छेद 21 के अनुरूप विधि द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार किया हुआ कहा जाएगा। इसी प्रकार, राजेंद्र प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश 1979 मामले में न्यायालय ने यह कहा कि मृत्यु दंड सफेदपोश अपराधों, समाज-विरोधी अपराधों में और उस व्यक्ति को दिया जाना चाहिए जो पूरे समाज के लिए खतरा बन गया हो।

    भारत में गलत नहीं यह दंड

    जहां तक मृत्यु दंड की तार्किकता का प्रश्न है, भारत में इसके प्रचलन को गलत नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि यह विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया से नियमित है और विधिक प्रत्यक्षवाद के सिद्धांत के अनुरूप है। साथ ही, संवैधानिक अधिकारों को भले ही छीना नहीं जा सकता, लेकिन स्वतंत्रता के अधिकार किसी भी स्थिति में निरपेक्ष नहीं बनाए जा सकते। अधिकारों के साथ-साथ निर्बंधनों की यह व्यवस्था व्यक्तिगत और सामाजिक हितों के बीच संतुलन बनाती है। अधिकारों के संरक्षण को ध्यान में रख कर राज्य के प्राधिकार के प्रयोग की सीमा भी निर्धारित है जिसके आधार पर यह सिद्ध होता है कि भारत में संविधानवादी सरकार की अवधारणा प्रचलित है। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम किसी भी स्थिति में निष्पक्षता के साथ कोई समझौता करें।

    दांडिक मामलों में हालांकि विधायिका द्वारा कई सुरक्षा उपाय उपलब्ध कराए गए हैं, लेकिन आधारों या मानकों के अभाव में निचली अदालतों या उच्च न्यायालयों के स्तर पर भी दंड देने के मामले में विवेकाधीन शक्तियों के प्रयोग से स्वेच्छाचारिता की आशंका बनी रहेगी और न्याय तंत्र की मूल भावना को दुष्प्रभावित करती रहेगी। इन परिस्थितियों में दंड संहिता की धारा 302 और आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 354 (3) के तहत किये गए कार्यों के बावजूद संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के उल्लंघन की आशंका होगी। न्यायालय का दायित्व : किसी भी आपराधिक कृत्य के लिए उपयुक्त दंड देना न्यायालय का दायित्व है। लेकिन इसके लिए कई महत्वपूर्ण तथ्यों पर विचार किया जाना चाहिए जैसे अभियुक्त की पारिवारिक और शैक्षणिक पृष्ठभूमि, उसका सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश, पहले किए गए आपराधिक कृत्य, मौजूदा कृत्य की मंशा और परिस्थितियां आदि। पीड़ित प्रभाव मूल्यांकन भी एक महत्वपूर्ण कारक होगा। इन्हीं आधारों पर दंड की प्रकृति और उसकी मात्रा व अवधि तय की जानी चाहिए।

    व्यक्तिगत और सामाजिक हितों का संरक्षक

    मानकों के निर्धारण से उन सभी मामलों में जिनमें आजीवन कारावास या मृत्यु दंड का विकल्प है, न्यायालय के लिए उनमें चुनाव करना सरल होगा और उसके पास यह विवेकाधिकार होगा कि वह व्यक्तिगत और सामाजिक हितों के संदर्भ में निर्णय ले, जैसाकि महाराष्ट्र राज्य बनाम सुखदेव सिंह 1992 मामले में न्यायालय द्वारा निर्देशित किया गया था। उच्चतम न्यायालय द्वारा इस विषय को संवैधानिक पीठ के समक्ष रखे जाने का निर्णय निश्चित रूप से अनिवार्य था और इसे पूर्णतः तर्कसंगत कहा जाना चाहिए। वास्तव में उच्चतम न्यायालय को जिस रूप में संविधान में प्रतिष्ठित किया गया है, वह उसे संविधान के साथ-साथ व्यक्तिगत और सामाजिक हितों का संरक्षक बनाता है। ऐसे हितों का संतुलन ही भारत के संविधान की विशेषता है जिसे हर हाल में संरक्षित किया जाना चाहिए। संवैधानिक पीठ द्वारा इस पर विचार करने और मानकों के निर्धारण के बाद न्याय तंत्र और सुदृढ़ होगा जो आपराधिक न्याय तंत्र में पीड़ित और अभियुक्त के अधिकारों को संतुलित बनाए रखने में सहायक भी होगा।

    [अध्यक्ष, सेंटर फार अप्लायड रिसर्च इन गवर्नेंस, दिल्ली]

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