President Droupadi Murmu: राष्ट्रपति भवन में द्रौपदी मुर्मू की उपस्थिति से देश-दुनिया में जाएगा बड़ा संदेश
आज भारत के 15वें राष्ट्रपति का शपथ ग्रहण समारोह है। राष्ट्रपति का चुनाव जनजातियों के प्रतिनिधित्व के विस्तार के प्रतीक के रूप में याद रखा जाएगा। संथाल आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति निर्वाचित होने से ओडिशा और झारखंड समेत संपूर्ण आदिवासी क्षेत्र में खुशी की लहर दौड़ गई।

कौशल किशोर। देश में किसी आदिवासी और वह भी महिला के राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने का अवसर पहली बार सामने आया है। स्वयं में यह एक ऐतिहासिक अवसर है। इस बीच देश के आदिवासी क्षेत्र बस्तर से जुड़ी दो खबरें सुर्खियों में है। सुप्रीम कोर्ट आदिवासियों के प्रवक्ता हिमांशु कुमार की जांच याचिका खारिज कर पांच लाख रुपये का जुर्माना लगाता है। यहां की दूसरी खबर भी न्यायालय से जुड़ी है। पांच वर्ष पहले सुकमा नक्सली हिंसा मामले में जेल भेजे गए सौ से ज्यादा आदिवासियों को रिहा करने का निर्णय इसी बीच सुनाया गया। हाशिए पर मौजूद आदिवासियों को शासन व्यवस्था में शामिल करने का निहितार्थ भी विमर्श के केंद्र की ओर अग्रसर है।
आदिवासी पदयात्रा और सत्याग्रह: प्रतिनिधित्व विस्तार के साथ यह आदिवासियों की सिकुड़ती जमीन का भी प्रतीक है। इसके लिए इस बीच की अन्य खबरों पर गौर करना होगा। राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ने तेलंगाना के मुख्य सचिव से एक आदिवासी महिला के साथ पुलिस के र्दुव्यवहार पर जवाब मांगा है। गोदावरी नदी घाटी में खेती करने वाले नायकपोड आदिवासियों की जमीन छीनने का मामला अरसे से सुर्खियों में है। इसके लिए स्थानीय आदिवासी पदयात्रा और सत्याग्रह कर रहे हैं। ऐसे में वनाधिकार के संरक्षण की पैरवी करने वालों को इस दिशा में नए सिरे से सोचना चाहिए।
फैसला स्वागत योग्य: इसी बीच छत्तीसगढ़ में एनआइए कोर्ट ने पांच साल पुराने सुकमा नक्सली हिंसा में जेल में बंद आदिवासियों को रिहा करने का निर्णय सुनाया है। दरअसल नक्सलियों और माओवादियों ने 2017 में सीआरपीएफ के 25 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था। इस मामले में कैद 121 आदिवासियों पर दोष सिद्ध नहीं हो सका। अन्य मामलों में वांछित आठ लोगों के अलावा शेष 113 कैदियों को रिहा किया गया है। निश्चय ही यह फैसला स्वागत योग्य है। वैसे बड़ी संख्या में सुरक्षाबलों के मारे जाने से जुड़ा यह मामला निश्चित रूप से हमारे लिए शर्म का विषय है और हमारी व्यवस्था को दोषियों तक पहुंच कर सजा दिलानी चाहिए, निदरेष लोगों को नहीं।
चंपारण का गांधी स्मरण: बहरहाल वर्ष 2009 में 17 आदिवासियों की भयानक मौत की उच्चस्तरीय जांच के लिए एक याचिका को उच्चतम न्यायालय ने निरस्त कर दिया है। साथ ही आर्थिक जुर्माना भी लगाया है। हैरत की बात यह है कि इसके कारण कोर्ट को नक्सलियों की रक्षा का साधन बनने की आशंका खड़ी होती है। अहिंसक गांधीवादी को अर्बन नक्सल साबित करने की सियासत के साथ ही आदिवासियों का आत्मा हरण का खेल भी चरम की ओर बढ़ रहा है। दंडकारण्य के आदिवासियों के एक गांधीवादी प्रवक्ता को एक बार फिर ठिकाने लगाने का प्रयास भी इसी दौर की सच्चाई है। चंपारण के गांधी का स्मरण कर उन्होंने जुर्माना के बदले जेल की नीति अपनाई है। न्याय से निर्णय तक पहुंचा न्यायालय अब एक कदम आगे बढ़ गया है। अंतिम जन को प्राप्त संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा के बदले प्रभु वर्ग को राहत पहुंचाने का यह काम आदिवासियों के हित में नहीं है।
खनिज संपदाएं और प्राकृतिक सौंदर्य : आदिवासी इलाकों में प्रचुर मात्रा में मौजूद खनिज संपदाएं और प्राकृतिक सौंदर्य ही इनका सबसे बड़ा दुश्मन साबित होता है। इसके लिए पूंजीवादी और समाजवादी ही नहीं, बल्कि सभ्यतावादी शक्तियां भी खूब सक्रिय हैं। प्राकृतिक संसाधनों की लूट में लगी निगमों के साथ ही आदिवासियों की जमीन हड़पने का सपना साकार करने के लिए पूरी पलटन सतत गतिशील है। इनके साथ ही उग्रवाद भी करवटें बदल रहा है। संथाल आदिवासी महिला के राजतिलक से क्या यह स्थिति बदलेगी? झारखंड की राज्यपाल के तौर पर उन्होंने 2017 में पत्थलगढ़ी आंदोलन में शामिल आदिवासियों के लिए राजभवन का द्वार खोल दिया था। सरकार ने छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट व संथाल परगना टेनेंसी एक्ट में संशोधन कर आदिवासियों की जमीन हड़पने का प्रयास किया था। इस विधेयक को लौटाकर उन्होंने आदिवासियों के हित में कार्य किया था किन्हीं कारणों से भटके हुए देशवासियों को आज सुधार का अवसर उपलब्ध कराते हुए शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। सुब्बा राव और जयप्रकाश नारायण जैसे देशभक्तों ने चंबल के खूंखार डाकुओं को साधुओं में परिवर्तित कर दिया था। दंडकारण्य में वही प्रक्रिया पूरी करने से आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल किया जा सकता है।
जल, जंगल और जमीन : जनजातीय राजनीति का सूत्र जल, जंगल और जमीन ही है। राष्ट्रपति होने की वजह से आदिवासी और महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मामला चर्चा में है। इसके ठीक पहले हसदेव अरण्य में कोयला खदान के लिए वनों की कटान पर रोक लगाने के कारण छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल सरकार चर्चा में थी। इसकी पृष्ठभूमि कांग्रेस नेता राहुल गांधी के कैंब्रिज विश्वविद्यालय के विशेष सत्र में मिलती है। जैवविविधता संकट जैसे संवेदनशील मामले पर उन्होंने अपनी राय व्यक्त कर आदिवासियों के लिए हमदर्दी दिखाई थी। जनजातीय समाज का सामना करने में जुटे राजनीतिक वर्ग लगी के सामने खड़ी इस चुनौती से मुंह फेरना देशहित में नहीं है। प्रतिनिधित्व के विस्तार के साथ अस्तित्व के संकट से जुड़ी इस चुनौती का सामना करना होगा। इसके घटकों के साथ सामंजस्य साध कर लक्ष्य को पूरा करने में राष्ट्रपति की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। परंतु इसका रोडमैप परिदृश्य से परे है।
संथाल आदिवासी महिला का प्रथम नागरिक होना भारत के लिए गौरव की बात है। महामहिम द्रौपदी मुर्मू नगर पंचायत से चुनावी राजनीति में सक्रिय हैं। हमारे प्रधानमंत्री आत्मनिर्भर गांव और सशक्त पंचायत की पैरवी करते हैं। राज्य और केंद्र सरकार यदि स्थानीय पंचायतों के साथ सामंजस्य स्थापित कर बाधाएं दूर करें तो गांधीजी के हिंद स्वराज का सपना साकार हो सकता है।
[सामाजिक कार्यकर्ता]
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