Nupur Sharma News: नुपुर मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को न्यायिक सक्रियता से जोड़ा जा रहा
Nupur Sharma Controversy न्यायिक सक्रियता का अलोकप्रिय उदाहरण है जहां जजों ने खबरों से प्रभावित होकर बिना पक्ष सुने ही एक गंभीर वैयक्तिक टिप्पणी कर दी। इस तरह की टिप्पणियों से शीर्ष अदालत को बचना चाहिए। इनसे निचले स्तर पर प्रभाव पड़ता है।

डा विनोद चंद्रा। न्यायिक सक्रियता यानी ज्यूडिशियल एक्टिविज्म को न्याय का अहम घटक माना जाता है। यह न्यायाधीशों को तय व्यवस्थाओं से इतर न्याय का मार्ग प्रशस्त करने का अवसर देता है। हालांकि इसके भी कुछ अच्छे और कुछ अलोकप्रिय उदाहरण हैं। नुपुर शर्मा के मामले में सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की टिप्पणी न्यायिक सक्रियता का वही अलोकप्रिय पक्ष है।
नुपुर शर्मा मामले में सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कहा कि देश में सौहार्द बिगाड़ने के लिए अकेले नुपुर जिम्मेदार हैं और उन्हें माफी मांगनी चाहिए। तथ्यों को देखे बिना और पक्ष सुने बिना की गई एकतरफा टिप्पणी इंटरनेट मीडिया पर बहस का कारण बन गई। लोगों ने भला-बुरा कहा तो सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस पार्डीवाला ने इंटरनेट और डिजिटल मीडिया के लिए सख्त कानून बनाने की वकालत कर दी।
फिलहाल एक बड़ा वर्ग मान रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों को नुपुर के मामले में ऐसी टिप्पणी से बचना चाहिए था। दरअसल न्यायिक सक्रियता न्यायाधीशों द्वारा न्याय दिलाने की शपथ को नहीं बदलती बल्कि न्यायाधीशों को वह करने की अनुमति देती है जो वे तर्कसंगत सीमाओं के भीतर उचित समझते हैं। इस प्रकार न्यायिक सक्रियता न्याय प्रणाली और उसके निर्णयों में स्थापित विश्वास को दर्शाती है। लेकिन अगर न्यायाधीश अपनी सीमा को लांघ कर टिप्पणी करें या किसी मौजूदा कानून को ओवरराइड करें, तो इसे उचित नहीं कहा जा सकता। ऐसा करना संविधान के प्रतिकूल होगा। ऐसे मामलों में न्यायिक सक्रियता बड़े पैमाने पर जनता को नुकसान पहुंचा सकती है क्योंकि न्यायाधीशों की टिप्पणियां उनके व्यक्तिगत या स्वार्थपरक उद्देश्यों से प्रभावित हो सकती हैं।
मौजूदा समय में यह संकट गंभीर होता जा रहा है क्योंकि एक तरफ न्यायिक सक्रियता के तहत न्यायाधीश लोगों की मर्यादाएं तय कर रहे हैं, तो दूसरी ओर न्यायपालिका पर भी द्वेषपूर्ण कार्य के आरोप लग रहे हैं। साधारण व्यक्ति इस दुविधा में है कि वह किसे उचित नैतिक व्यवहार माने। लोकतंत्र के लिए यह सही नहीं है। जनता, सरकार और न्यायपालिका में जब मतांतर हो, तब किसे सबसे ज्यादा मर्यादा प्रदर्शित करनी चाहिए, यह लोकतंत्र का यक्ष प्रश्न है। संविधान ने सभी को विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार दिया है। इसमें न्यायपालिका, विधायिका और जनता तीनों आते हैं। आज स्थिति यह है कि न्यायपालिका एवं न्यायाधीश अपनी सीमाओं को लांघकर मर्यादा तय करने की बात कर रहे हैं। सरकारें भी न्यायपालिका को मर्यादा में रहने की सीख दे रही हैं। वर्तमान समय में व्यवस्था में मर्यादाओं का संतुलन गड़बड़ा रहा है। संतुलन बनाने की जिम्मेदारी हर पक्ष की है। यह जरूरी है कि हम मर्यादा में रहकर दूसरे की मर्यादा का सम्मान करें।
[विभागाध्यक्ष, समाजशास्त्र, श्री जय नारायण स्नातकोत्तर महाविद्यालय, लखनऊ]
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