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    चुनावी बिसात पर नेतृत्व बदलाव अक्सर रहा है बेअसर, उत्तराखंड में क्‍यों हुआ बदलाव जानें इसके मायने

    By Krishna Bihari SinghEdited By:
    Updated: Thu, 11 Mar 2021 07:22 AM (IST)

    नरेंद्र मोदी काल के इतिहास को देखें तो सिर्फ लोकसभा ही नहीं विभिन्न विधानसभाओं के चुनाव में भी स्थानीय चेहरे से ज्यादा प्रभाव खुद प्रधानमंत्री मोदी दिखाते रहे हैं और ऐसे में उत्तराखंड का बदलाव सिर्फ चुनावी नहीं हो सकता है। जानें इस बदलाव के मायने...

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    उत्तराखंड का बदलाव सिर्फ चुनावी नहीं हो सकता है। जानें इसके मायने...

    आशुतोष झा, नई दिल्ली। माना जाता है कि किसी के लिए भी तीन पद ही सबसे ज्यादा अहम और यादगार होते हैं- जिला के डीएम, प्रदेश के सीएम और देश के पीएम। उत्तराखंड भाजपा विधायक मंडल के नेता चुने गए तीरथ सिंह रावत ने एक मुकाम पा लिया लेकिन क्या भाजपा के लिए भी यह सार्थक पल है? जिस त्रिवेंद्र सिंह रावत की प्रशासनिक खामी और व्यावहारिक अक्षमता के कारण भाजपा को आगामी चुनाव का डर सताने लगा था, क्या तीरथ सिंह रावत उस आशंका को गलत साबित कर सकेंगे।

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    उत्तराखंड का बदलाव सिर्फ चुनावी नहीं 

    नरेंद्र मोदी काल के इतिहास को देखें तो सिर्फ लोकसभा ही नहीं विभिन्न विधानसभाओं के चुनाव में भी स्थानीय चेहरे से ज्यादा प्रभाव खुद प्रधानमंत्री मोदी दिखाते रहे हैं और ऐसे में उत्तराखंड का बदलाव सिर्फ चुनावी नहीं हो सकता है। लेकिन एक इतिहास यह भी है कि कांग्रेस हो या भाजपा उत्तराखंड ही नहीं किसी भी प्रदेश में स्थापित नया चेहरा कभी ताकत नहीं दिखा पाया है। ऐसे मामलों में भी केवल नरेंद्र मोदी ही अपवाद साबित हुए थे। ऐन चुनाव के मुहाने पर कमान संभालकर भी अपने बूते केवल वही भाजपा को लगातार जिताते चले गए थे।

    पार्टी देना चाहती थी एक मौका 

    चार साल पहले जब त्रिवेंद्र को उत्तराखंड की कमान सौंपी गई थी तब भी सवाल उठे थे कि वही क्यों। वह न तो जनता में लोकप्रिय थे और न ही नेताओं में। माना गया था कि जिस तरह की खींचतान है उसमें सबसे ज्यादा मुफीद शायद वही साबित हों लेकिन साल दर साल यह परत पतली होती गई। प्रशासनिक स्तर पर भी वह छवि स्थापित नहीं कर पाए जिसकी केंद्रीय भाजपा अपेक्षा करती है। जो फैसला आज लिया गया वह अब से साल भर पहले भी लिया जा सकता था लेकिन शायद पार्टी एक मौका देना चाहती थी।

    ...लेकिन नहीं बनी बात 

    अगर उत्तराखंड की बात करें तो 2011 में रमेश पोखरियाल निशंक को हटाकर बीसी खंडूरी को मुख्यमंत्री बनाया गया था लेकिन वह खुद ही अपनी सीट हारे और साथ में भाजपा को भी हराया। उत्तराखंड त्रासदी के प्रबंधन में फेल होने के बाद कांग्रेस ने विजय बहुगुणा को हटाकर केंद्र से हरीश रावत को भेज दिया लेकिन 2017 में वह कांग्रेस तो क्या खुद को भी नहीं बचा पाए। अगर दक्षिण की बात की जाए तो कर्नाटक में तत्कालीन मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा को हटाकर छोटे-छोटे अंतराल में भाजपा ने दो मुख्यमंत्री बदले लेकिन बात नहीं संभली। 

    शिवराज ने संभाल लिए थे मध्‍य प्रदेश में हालात 

    अगर पश्चिम की बात हो तो आदर्श घोटाले में फंसे कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण जगह पृथ्वीराज चव्हाण लाए गए लेकिन बात नहीं बनी। आंध्र प्रदेश में वाईएसआर की मृत्यु के बाद कांग्रेस ने दो-दो मुख्यमंत्री बदले लेकिन दाल नहीं गली। मध्य प्रदेश में जरूर 2003-05 तक कई नेतृत्व परिवर्तन के बावजूद भाजपा जीतती रही लेकिन उस वक्त भी तत्कालीन और वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लगभग तीन साल का वक्त मिला था।

    बदलाव का कारण चुनाव से परे 

    गुजरात जरूर इसका अपवाद रहा है। केशुभाई पटेल की जगह नरेंद्र मोदी वहां मुख्यमंत्री बनाए गए थे उसके बाद से न सिर्फ उनके नेतृत्व में भाजपा लगातार तीन चुनाव जीती बल्कि उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद भी गुजरात भाजपा की ही झोली में है। वैसे भी 2014 के बाद से होने वाले कई राज्यों के चुनाव में प्रधानमंत्री की धमक दिखती रही है। 2017 का उत्तराखंड चुनाव तो इसका सबसे बड़ा उदाहरण रहा है। वैसे में यह माना जा सकता है कि मुख्यमंत्री बदलाव का कारण आगामी चुनाव से परे है। यह और बात है कि प्रदेश अध्यक्ष के रूप में सफल रहे तीरथ से बड़ी आशाएं रहेंगी।

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