जानें कैसे शुरू हुआ था सिंधिया परिवार का राजनीतिक सफर, क्यों मां से नाराज हुए थे माधवराव
राजमाता विजयाराजे के राजनीति में आने की और माधवराव के उनसे खफा होने की कहानी बेहद दिलचस्प है। दोनों की वजह ही कांग्रेस थी।
नई दिल्ली (जेएनएन)। स्वतंत्रता के बाद जब देश में कांग्रेस का डंका बज रहा था उस दौरान भी ग्वालियर और गुना इलाके में हिंदू महासभा की अपनी राजनीतिक हैसियत थी। ज्योतिरादित्य के दादा और ग्वालियर के महाराज जीवाजीराव सिंधिया का भी तत्कालीन हिंदू महासभा के प्रति झुकाव था। यह बात प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को पसंद नहीं थी। 1956 में जीवाजी बांबे गए, उसी दौरान महारानी विजयाराजे सिंधिया (राजमाता) दिल्ली पहुंचीं और जवाहर लाल नेहरू व इंदिरा गांधी से मिलीं। उन्होंने दोनों से कहा, उनके पति की राजनीति में कोई रुचि नहीं है। वह हिंदू महासभा का न तो समर्थन करते हैं और न ही वित्तीय मदद। नेहरू के कहने पर वह गोविंद वल्लभ पंत और लाल बहादुर शास्त्री से मिलीं, जिन्होंने विजया राजे को कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ने को कहा और यहीं से सिंधिया परिवार की सियासी पारी का शुभारंभ हुआ।
कांग्रेस से सिंधिया राजघराने का अलगाव
सिंधिया राजघराने का कांग्रेस से रिश्ता करीब एक दशक तक ही चल सका। 1966 में मध्य प्रदेश में भीषण सूखा पड़ा। 25 मार्च, 1966 को बस्तर के महाराज प्रवीर चंद्र भंज देव की जगदलपुर स्थित महल में आक्रोशित भीड़ और पुलिस के बीच हुई फायरिंग में मौत हो गई। इस घटना में 11 अन्य लोग भी मारे गए। इससे विजयाराजे बहुत खिन्न हो गई। सितंबर 1966 में ग्वालियर पुलिस की फायरिंग में दो प्रदर्शनकारी छात्रों की मौत हो गई। तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र द्वारा राजघराने को तवज्जो न दिया जाना विजयाराजे को अखर रहा था। इसी कड़वाहट के चलते उन्होंने कांग्रेस छोड़ने का फैसला किया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक कुशाभाऊ ठाकरे और प्यारेलाल खंडेलवाल उसी दौरान भारतीय जनसंघ के संगठन मंत्री बने, जिन्होंने राजमाता को जनसंघ में शामिल होने को कहा। 1967 में विजयाराजे ने ग्वालियर की कारेरा विधानसभा और गुना की लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा। दोनों जगह से जीतने पर उन्होंने गुना की सीट छोड़ दी और मध्य प्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बन गईं। कुछ ही समय बाद मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र के खिलाफ गोविंद नारायण सिंह के नेतृत्व में कांग्रेसी विधायकों ने बगावत कर दी। हालांकि, जनसंघ की मदद से गोविंद नारायण मुख्यमंत्री तो बन गए, लेकिन बाद में कांग्रेस ने उन्हें मना लिया।
1971 में विजयाराजे ने जनसंघ के टिकट पर बिंद से लोकसभा का चुनाव जीता। गुना की सीट 26 वर्षीय पुत्र माधवराव सिंधिया के लिए छोड़ दी, जिन्होंने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीता। ग्वालियर सीट जनसंघ प्रत्याशी के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी ने जीती। 1980 में भाजपा का उदय होने पर विजयाराजे सिंधिया उसकी संस्थापक सदस्य बनीं।
माधवराव ने चुनी अलग राह
आपातकाल के दौरान विजयाराजे जेल में डाल दी गईं। वह पैरोल पर बाहर आईं। पुत्र माधवराव सिंधिया कांग्रेस की सरकार द्वारा गिरफ्तार न किए जाने के आश्वासन पर नेपाल से भारत लौटे। कांग्रेस ने उन्हें पार्टी में शामिल होने को कहा। विजयाराजे के मुताबिक, भैया ने कहा था कि अगर मैं कांग्रेस में शामिल होने की बात से इन्कार कर दूंगा तो वह मुझे जेल में डाल देंगे। 1977 में चुनाव की घोषणा होने पर माधवराव ने मां और उनके सहयोगी बाल आंग्रे से कहा, अब अपने फैसले खुद लूंगा, मुझे आप लोगों की सलाह की जरूरत नहीं है। इसके बाद उन्होंने ग्वालियर से स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा। राजघराने की प्रतिष्ठा और राजमाता की अपील के चलते उन्होंने बड़ी जीत हासिल की।
माधवराव की मां से नाराजगी
माधवराव कुछ ही वषों में इंदिरा गांधी और संजय गांधी के करीबी हो गए। 1980 में राजमाता के इंदिरा गांधी के खिलाफ रायबरेली से चुनाव मैदान में उतरने से माधवराव बेहद खिन्न हुए। हालांकि राजमाता हार गईं, लेकिन माधवराव गुना से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीत गए। इसके बाद वह राजीव गांधी और पीवी नरसिंह राव की सरकार में मंत्री बने। जैन हवाला मामले में नाम आने पर माधवराव ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। 1996 में टिकट न मिलने पर कांग्रेस छोड़ कर मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस नामक पार्टी बनाई। एचडी देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का हिस्सा बने। 1998 में फिर कांग्रेस में शामिल हो गए और 2001 में विमान हादसे में मृत्यु होने तक पार्टी में रहे।
राजनीति में सिंधिया परिवार के अन्य लोग
विजया राजे सिंधिया की चार पुत्रियों में से दो राजनीति में हैं। वसुंधरा राजे ने 1985 में राजस्थान की धौलपुर सीट से जीत हासिल कर सियासी पारी शुरू की। 1989 में उन्होंने झालावाड़ सीट से लोकसभा का चुनाव जीता। उन्होंने 2003 तक संसद में झालावाड़ का प्रतिनिधित्व किया। इसके बाद राजस्थान लौटीं और मुख्यमंत्री बनीं। 2018 तक राज्य की मुखिया रहीं। वसुंधरा राजे के पुत्र दुष्यंत सिंह वर्तमान में झालावाड़-बारन सीट से सांसद हैं। उनकी छोटी बहन यशोधरा राजे 1990 में अमेरिका से भारत लौटीं। उन्होंने गुना क्षेत्र से राजनीति शुरू की। 1998 में पहली बार चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंची। उसके बाद 2003, 2013 और 2018 में विधानसभा पहुंचीं और शिवराज सरकार में मंत्री रहीं।
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