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गुजरात चुनाव से पहली बार विपक्ष को आत्माविश्वास से खड़े होने की मिली हिम्मत

इस चुनाव ने सिर्फ गुजरात में भाजपा की दरकन को ही नहीं उभारा है बल्कि इसने राष्ट्रीय स्तर पर भी विपक्ष को पहली बार आत्मविश्वास से खड़े होने की हिम्मत दी है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Wed, 20 Dec 2017 11:06 AM (IST)Updated: Wed, 20 Dec 2017 11:06 AM (IST)
गुजरात चुनाव से पहली बार विपक्ष को आत्माविश्वास से खड़े होने की मिली हिम्मत
गुजरात चुनाव से पहली बार विपक्ष को आत्माविश्वास से खड़े होने की मिली हिम्मत

नई दिल्ली [शाहनवाज आलम]। गुजरात चुनाव के परिणाम भले ही भाजपा के पक्ष में रहे हों, लेकिन इस चुनाव में हार कर भी जीती कांग्रेस ही है। इस चुनाव ने जहां भाजपा को उसके अपने ही गढ़ में पहले से कमजोर पड़ने की तस्दीक कर दी है तो वहीं करीब साढ़े तीन साल की मोदी सरकार में पहली बार राहुल गांधी एक वास्तविक विपक्षी नेता के बतौर उभरे हैं। यानी इस चुनाव ने सिर्फ गुजरात में भाजपा की दरकन को ही नहीं उभारा है बल्कि इसने राष्ट्रीय स्तर पर भी विपक्ष को पहली बार आत्मविश्वास से खड़े होने की हिम्मत दी है। गुजरात चुनाव के परिणाम ने पक्ष और विपक्ष दोनों को बदल दिया है।

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इसने जहां एक तरफ मोदी की सीमाओं को उजागर कर दिया, जिन्होंने अंतिम समय आते-आते पाकिस्तान, गुजराती अस्मिता, नेहरू और राहुल गांधी पर निजी टिप्पणियां करने से नहीं चूके, वहीं राहुल गांधी ने मोदी पर कभी भी निजी टिप्पणी नहीं की और यहां तक कि मणिशंकर अय्यर को ऐसी गलती करने पर पार्टी से निलंबित भी कर दिया। वहीं उन्होंने पाकिस्तान या गुजराती अस्मिता पर भी कोई टिप्पणी न करके अपने को मोदी से गंभीर सियासतदां के बतौर प्रस्तुत करने में बहुत हद तक कामयाबी हासिल कर ली। राहुल की इस नई छवि ने मध्यमवर्ग और आदर्शवादी तबके का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया है। यह वह तबका है जो पिछले लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा की तरफ चला गया था। यह राहुल गांधी की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

वहीं मोदी की भाषा और उसके हल्केपन को उन लोगों ने भी नोटिस किया जो मोदी की कार्यकुशलता के नैतिक समर्थक रहे हैं। हालांकि यह तबका अभी खुल कर मोदी की आलोचना नहीं कर रहा है, लेकिन वह यह खुलकर स्वीकार करने लगा है कि मोदी कुछ भी ठोस कर पाने में असफल रहे हैं। यह वह वर्ग है जिसकी कोई ठोस वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं होती, वह सरकारों को बस परफॉर्म करते हुए देखना चाहता है और उसी बुनियाद पर उसका आकलन करता है। यहां यह याद रखना जरूरी है कि ‘माहौल’ के जाल में यही वर्ग फंसता है और किसी भी सरकार के बचने और गर्त में जाने की कुंजी इसी के पास होती है। इसी वर्ग ने मनमोहन सिंह का साथ निर्भया, लोकपाल और भ्रष्टाचार के मुद्दे छोड़ दिया था और मोदी के साथ खड़ा हो गया था।

इस तरह कह सकते हैं कि राहुल ने इस वर्ग की घर वापसी कराने का अच्छी कोशिश की है। इस चुनाव के बाद मोदी के सामने सबसे बड़ी समस्या यह होगी कि अब वे इस तबके को ‘विकास’ जैसे मुद्दों पर बहुत आकर्षित नहीं कर पाएंगे क्योंकि इसने इसका संज्ञान लिया कि प्रधानमंत्री को अपने गृह राज्य में भी ‘विकास’ जिसे वे पिछले लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए तमाम राज्यों के चुनाव में बेच चुके हैं, पर बोलने के बजाय विभाजनकारी मुद्दों पर उतरना पड़ गया। इस तरह इस चुनाव के बाद अगर मोदी ‘विकास’ के बजाय अपने हार्डकोर हिंदुत्ववादी मुद्दों पर लौट आएं तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि वही एक मूल तबका इनके साथ रह गया गया लगता है।

उनके सामने दूसरी समस्या यह होगी कि जिस तरह उन्होंने गुजरात के बेटे और गुजराती अस्मिता के नाम पर वोट मांगे उसे अब वे मध्य प्रदेश और राजस्थान में नहीं दोहरा पाएंगे। वहां अब वे किन स्थानीय भावनात्मक बातों पर इन राज्यों के लोगों से वोट मांग पाएंगे यह समझ पाना उनकी रिसर्च टीम के लिए चुनौती होगी।  वहीं इस परिणाम ने कांग्रेस में भी राहुल को स्वीकार्यता दे दी है। अगर परिणाम ऐसे नहीं होते तो पार्टी के ही लोग सोनिया या प्रियंका गांधी का नाम आगे करके उनके राह में रोड़े खड़े करते। चुनाव के दरम्यान ही जिस तरह कांग्रेस के एक टीवी डिबेटर ने राहुल गांधी के अध्यक्ष चुने जाने पर सवाल उठाए उससे समझा जा सकता है कि पार्टी में भी उन्हें घेरने का कोई भी मौका नहीं चूकने वाले लोग सक्रिय हैं, लेकिन गुजरात के परिणाम के बाद ऐसे लोग चुप रहने को अब मजबूर हो गए हैं।

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