क्या ऐतिहासिक अन्याय के कारण पीछे रह गए वर्गों के उत्थान के लिए आरक्षण का वर्तमान स्वरूप ही सही है?
EWS Reservation आरक्षण का विरोध वही कर सकता है जो समाज में फैले जातिगत विभेद से अनभिज्ञ है। जब तक हाशिए पर जी रहे अंतिम व्यक्ति को सशक्त नहीं कर लिया जाता तब तक समाज के स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ने की संभावना नहीं बन सकती।
डा. विनोद चंद्रा। जातीय विभेद के कारण समाज मूलत: दो भागों में बंटा रहा है। एक तो वे लोग जो सत्ता एवं संपन्नता की दृष्टि से ऊपर थे। दूसरा, ऐसा जातीय समूह जो हाशिए पर रहा। लोकतंत्र की स्थापना के उपरांत संविधान निर्माताओं ने सामाजिक न्याय के सिद्धांत पर बराबरी वाले समाज की पृष्ठभूमि में ऐतिहासिक रूप से सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक तौर पर पिछड़ी जातियों को मुख्यधारा के समाज में जोड़ने के लिए आरक्षण का प्रविधान सुनिश्चित किया था। पिछले 70 वर्षों के भारत के इतिहास की यदि समीक्षा की जाए तो आरक्षण का समाजशास्त्रीय महत्व स्पष्ट दिखाई देता है। जिन पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों को इस आरक्षण का लाभ मिला, उनकी राजनीतिक हिस्सेदारी बढ़ी है और यही कारण है कि पिछली सरकारों के नीतिगत फैसलों में विभिन्न जातियों के मध्य समानता की दृष्टि अपनाई जाती रही है। आरक्षण केवल राजनीतिक प्रतिभागिता बढ़ाने के लिए ही आवश्यक नहीं है अपितु यह विशेष शैक्षणिक अवसर प्रदान कर उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार करने के लिए भी आवश्यक है।
आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग
देश में जो लोग इसका विरोध करते हैं वह भारतीय समाज में फैले जातिगत विभेदीकरण की व्यवस्था से अनभिज्ञ हैं अथवा जानबूझकर उसे नजरअंदाज करते हैं। आरक्षण के संदर्भ में 80 के दशक में मंडल कमीशन के माध्यम से पूरे देश में चर्चा हुई और 1987 में आयोग की सिफारिशों को लागू कर 27% अन्य पिछड़ी जातियों, 15% अनुसूचित जातियों तथा 7.5% अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण की व्यवस्था शैक्षणिक संस्थाओं तथा सरकारी सेवाओं में की गई। इसके सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिले। हाल ही में नीट की परीक्षा के संदर्भ में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों की आरक्षण की मांग को लेकर पुनः चर्चा प्रारंभ हुई। कुछ लोग आरक्षण का समर्थन कर रहे हैं तो कुछ लोग आरक्षण के विरोध में खड़े हैं।
आरक्षण का विरोध करने वालों से कुछ समाजशास्त्रीय प्रश्न पूछे जा सकते हैं कि क्या ग्रामीण अंचल में उच्च जातियों व पिछड़ी वंचित जातियों में समानता आ गई है? क्या न्यायपालिका, पत्रकारिता व अन्य लोक महत्व की संस्थाओं में निम्न जातियों के लोग उच्च पदों पर आसीन हो रहे हैं? क्या उच्च जातियों की मोनोपोली समाज की प्रमुख संस्थाओं में खत्म हो गई है? क्या प्राइवेट सेक्टर में निम्न जातियों का प्रतिशत अपेक्षा अनुसार हो गया है? ऐसे बहुत सारे प्रश्न हमारे समक्ष हैं जिनकी तथ्यपरक जांच से ही हम आरक्षण की प्रासंगिकता और उपयोगिता को समझ सकते हैं।
आजकल आरक्षण की चर्चा में कुछ तर्क यह भी आने लगे हैं कि आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्तियों को भी आरक्षण का अधिकार है और राज्य की जिम्मेदारी है कि आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को भी जातिगत आरक्षण की ही भांति विशेष सुविधा देकर मुख्यधारा के समाज में जोड़ा जाए। आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को रोजगार दिलाकर उनकी आर्थिक विषमताओं को दूर किया जा सकता है। यह विषय भारतीय संसद व राजनीतिक दलों के समक्ष भी है कि बराबरी के समाज निर्माण में आरक्षण का कहां तक प्रयोग हो।
समाज में व्याप्त विषमताओं को समझना होगा
आरक्षण नीति के माध्यम से राजनीतिक दल विभिन्न पिछड़ी जातियों के लोगों को अपने लिए वोट बैंक मान बैठते हैं। इसी क्रम में आज आर्थिक रूप से कमजोर लोगों का एक समूह तैयार होता जा रहा है जो आरक्षण दिलाने के लिए राजनैतिक दलों के लिए वोट बैंक का काम करेगा। इस तरह से आरक्षण के अब राजनीतिक स्वरूप ज्यादा मुखर हो रहे हैं जबकि बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने आरक्षण के माध्यम से सामाजिक न्याय पर आधारित बराबरी के समाज की व्यवस्था की बात कही थी। डा. राम मनोहर लोहिया भी इसी तर्क के थे कि जब तक वंचितों का सशक्तीकरण नहीं होगा और वह मुख्यधारा से जुड़ेंगे नहीं, तब तक भारत के सभी लोग अपनी पूर्ण ऊर्जा से विकास कार्यक्रमों में योगदान नहीं दे सकेंगे। कहा जा सकता है कि भारत में आरक्षण के विषय को समझने के लिए समाज में व्याप्त विषमताओं को समझना होगा और सभी जातीय समूहों को बराबरी के अवसर देने के लिए इस प्रक्रिया को चलते रहने देना होगा।
[विभागाध्यक्ष, समाजशास्त्र, श्री जय नारायण स्नातकोत्तर महाविद्यालय, लखनऊ]
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