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    आखिर चीन के उपाय भारत-नेपाल भू-सांस्कृतिक और एथनिक कनेक्ट को क्यों नहीं तोड़ पाए?

    By Sanjay PokhriyalEdited By:
    Updated: Sat, 11 Jun 2022 11:57 AM (IST)

    India Nepal Relation भारत और नेपाल के बीच भू-सांस्कृतिक संबंध अत्यंत प्राचीन है। बीते कुछ वर्षो के दौरान चीन द्वारा किए गए अनेक प्रयासों के बावजूद नेपाल का झुकाव भारत की ओर ही कायम है और रहेगा ही।

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    नेपाल के नागरिक भी भली-भांति समझते हैं। फाइल

    डा. रहीस सिंह। वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी द्वारा प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के साथ ही भारत की विदेश नीति में एक नया आयाम जुड़ गया- ओथ डिप्लोमेसी। कुछ विश्लेषकों ने इसे ‘सार्क डिप्लोमेसी’ कहकर भी संबोधित किया था। सही अर्थो में यह ‘पड़ोसी प्रथम’ नीति का आरंभ था जिसमें ‘भारत केंद्रित’ विदेश नीति जैसी विशेषता प्रभावी तो थी, साथ ही बहुपक्षीय रिश्तों में एक प्रगतिशील संतुलन की विशेषता भी निहित थी। इसमें नेपाल और भूटान जैसे देशों को विशेष महत्व दिया गया था। आठ वर्ष बीतने के बाद अब यह समीक्षा का विषय है कि नेपाल के साथ-साथ स्थापित भू-सांस्कृतिक एकता आधारित संवेदनशील रिश्तों में कितना मूल्यवर्धन हुआ या कितना क्षय हुआ? यह भी देखने की जरूरत है कि चीन के उपाय भारत-नेपाल भू-सांस्कृतिक और एथनिक कनेक्ट को तोड़ क्यों नहीं पाए?

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    दरअसल बाजारवादी पूंजीवाद के इस दौर को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्राय: ऐसी अवधारणाएं गढ़ी जाती हैं जो कुछ समय के लिए ही सही पर पूंजी और बाजार की सर्वोच्चता जैसी विशेषता को स्थापित कर जाती हैं। दरअसल गरीब देश जल्द अमीर बनने की महत्वाकांक्षाओं से संपन्न होते हैं या फिर वे अपनी जनता को झूठा सपना दिखाकर सत्ता में आए होते हैं और फिर उसे पूरा करने के लिए चीन जैसे देश के ऋण जाल (डेट ट्रैप) में फंस जाते हैं। इसका खामियाजा अंतत: उसकी जनता भुगतती है, जैसा इस समय श्रीलंका में देखा जा सकता है। ऐसी स्थितियां श्रीलंका जैसे देशों की सरकारों और चीन जैसे देशों की महत्वाकांक्षाओं के बीच हुई संधियों के परिणाम होते हैं। ऐसे में दो प्रश्न सामने आते हैं। पहला- वित्तीय पूंजीवाद के इस बाजारवादी समय में क्या पूंजी या बाजार भू-संस्कृति पर आधारित संबंधों की ऐतिहासिक कड़ी तोड़ने में समर्थ हैं? दूसरा- क्या छद्म भाषावाद और ऋणवाद जिसे प्रतीकात्मक तौर पर मंडारिन-रेनमिनबी (चीन की भाषा और मुद्रा) अयोध्या-जनकपुर, लुंबिनी- कुशीनगर, गोरखपुर-काठमांडू कनेक्ट पर भारी पड़ सकता है? या दूसरे शब्दों में कहें तो क्या लोगों के भावनात्मक संबंधों एवं जुड़ावों पर कूटनीतिक व आर्थिक लाभांशों की मंशा भारी पड़ सकती है?

    भारत-नेपाल संबंधों का आकलन करते समय उन ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विशेषताओं को ध्यान में रखना होगा जो ऐतिहासिक हैं या पौराणिकता के युग से अब तक संबंधों की एक लंबी रेखा खींचने का काम करती हैं। इसलिए हमें भारत-नेपाल संबंधों को देखते समय भू-सांस्कृतिक कनेक्ट की अनदेखी नहीं करनी चाहिए। लेकिन यह तभी हो सकता है जब दोनों देशों के बीच स्थापित संबंधों को देखने की शुरुआत उन युगों से की जाए जब अयोध्या और जनकपुर एक दूसरे से जुड़े। इसके बाद उस समय से, जिसमें लुंबिनी और कुशीनगर तथा कपिलवस्तु व पावा के रिश्तों में भू-सांस्कृतिक एकता का आधार हो।

    अभी हाल ही में संपन्न हुई अपनी लुंबिनी यात्र के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी जनकपुर यात्र (2018) की याद दिलाई। जनकपुर में उन्होंने कहा था, ‘नेपाल के बिना हमारे राम भी अधूरे हैं। मैं जानता हूं कि आज जब भारत में भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर बन रहा है, तो नेपाल के लोग भी खुश हैं। भारत और नेपाल दो देश हैं, लेकिन हमारी मित्रता त्रेता युग की है। राजा जनक और राजा दशरथ ने केवल जनकपुर और अयोध्या ही नहीं, भारत और नेपाल को भी मित्रता के बंधन में बांध दिया था। इसलिए व्यक्ति और सरकारें तो आती-जाती रहेंगी, लेकिन दोनों देशों और उनके लोगों के बीच संबंध अमर रहेंगे। फिर कैसे कोई चीनी ड्रैगन, कैसे कोई रेनमिनबी, कैसे कोई मंडारिन इनमें स्थायी सेंध लगा लेगी? कभी नहीं।’

    रेनमिनबी-मंडारिन राम और सीता द्वारा स्थापित मूल्यों और जनकपुरवासियों की उन भावनाओं पर भारी नहीं पड़ सकती जिनके विषय में तुलसीदास ने कुछ इस तरह से वर्णन किया है- ‘हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल। जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल।’ यानी कुछ लोग परस्पर मिलने के लिए हर्ष के मारे सरपट दौड़ चले और ऐसे मिले मानो आनंद के दो समुद्र मर्यादा छोड़कर मिलते हों। सोचिए जिन रिश्तों को जोड़ने के लिए जनकपुर वासी ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे, वे इतने कमजोर नहीं हो सकते कि छद्म चीनीवाद या रेनमिनबी-मंडारिन का मोहपाश उनमें दरार पैदा कर सके। यह अलग बात है कि कुछ समय तक नेपाल में साम्यवादी शासन रहा, जिसकी प्रतिबद्धता नेपाल के लोगों के प्रति कम, चीनी शासकों के प्रति अधिक थी। यह नेपाल की जनता के प्रति कम्युनिस्ट शासकों का राजनीतिक छद्म था। इस छद्मवाद से शांति, शिक्षा, सुरक्षा, समृद्धि और संस्कारों की रक्षा करने के लिए भारत और नेपाल के लोग आगे आए। इसी ने क्षेत्रीय विकास का सूत्र भी दिया जिसमें नेपाल के विकास मंत्र तथा भारत और नेपाल की सहोदरता का आधार भी निहित है। फिलहाल भारत और नेपाल के बीच स्थापित भू-सांस्कृतिक संबंधों पर चीनी अर्थोपाय और भाषायी-प्रजातीय छद्म बंधुता अंशकालिक लाभांश देने वाली हो सकती है, स्थायी नहीं। इसे नेपाल के नागरिक भी भली-भांति समझते हैं।

    [विदेश मामलों के जानकार]